मैं अक्सर जाता हूँ मुशायरों में,
एक ख़्याल की चार नज़्में लेकर...
"तीन" ख़ुदको सुनाकर,
"चौथी" सबको सुनाता हूँ..
और एक "पाँचवी" नज़्म लेकर,
निकल पड़ता हूँ घर की जानिब....
वो "तीन" नज़्में, तीनों की तीनों
"छपी" हुई हैं मेरे ज़हन में,
ये वो हैं जिन्हें सफ़्हा,
संभाल नहीं पाएगा...
वो "चौथी" जो सबने सुनी,
मशहूर है आजकल...
हर पढ़ने वाले ने,
उसे नए माने दिए हैं...
इस "चौथी" को डांटकर,
रखता हूँ मैं...के,
जो ये इतनी "मक़बूल" है,
कहीं उतनी "मगरूर" ना हो जाए...
वो "पाँचवी" जो मैं लेकर चला था...
जानिब "घर" के, घर नहीं पहुँची...
रास्ते सब छान मारे,
मगर कुछ ना मिला।
वो है कहाँ, मैं ढूंढ़ता हूँ,
वस्ल को बेताब हूँ।
गढ़ना चाहता हूँ मैं,
उसे लिखना चाहता हूँ...
बस उसी "पाँचवी नज़्म" को खोजने,
मैं अक्सर जाता हूँ मुशायरों में,
एक ख़्याल की चार नज़्में लेकर...
Keep Visiting!
No comments:
Post a Comment