Friday, 26 May 2017

कई परतों का समावेश है फिल्म "हिंदी मीडियम"।

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Hindi Medium

कुछ ही माह पहले मैं अपने दोस्तों के साथ जयपुर साहित्य उत्सव में शामिल होने के लिए जयपुर स्थित होटल दिग्गी पैलेस पहुंचा था. पांच दिवसीय उत्सव के प्रथम दिन मेरा और हजारों की संख्या में आए अहल-ए-वतन का तारुफ़ फ़िल्म-निर्देशक, नगमानिगार, सुखनवर और मकबूल शायर गुलज़ार साहब से हुआ. यूँ तो पिछले कई वर्षों से मैं उनकी तहरीरों को पढ़ता आ रहा था मगर सही माइनो में उस दिन उनका दीदार होने के बाद से ही मैं उनका मुलाज़िम हुआ हूँ. उनका हर वाक्य, जबां से निकली हर सफ़ एक शेर मालूम होती थी. उसी दौरान मुझे याद है उन्होंने अपनी नई किताब “सस्पेक्टेड पोएट्री” के विषय में एक बात कही थी. उनका कहना था के “इस किताब में जितनी भी नज़्मे हैं उनमे कई परत हैं, एक मैं खोलता हूँ बाकी आप खोलें”. उनके उस वाक्य ने अदब या साहित्य को देखने के मेरे नज़रिये  को पूर्णतः परिवर्तित कर दिया था.

हाल ही मैं परदे पर आई साकेत चौधरी द्वारा निर्देशित फ़िल्म “हिंदी मीडियम” विभिन्न परतों के समावेश से बनी एक ऐसी ही संरचना है. विभिन्न नए, पुराने मुद्दों को बड़े ही मज़ेदार ढंग से पेश करते हुए निर्देशक और लेखक ने भारतीय शिक्षा जगत से लेकर भारतीय समाज में मौजूद खामियों को ब-खूबी उजागर किया है. फ़िल्म कई परतों से मिलकर बनी है और इसलिए एक वाक्य में इसे समझाना या समझाने का प्रयास करना महज़ नादानी से बढ़कर और कुछ नहीं है. फिल्मो के विषय में मैंने कहीं पढ़ा था कि एक सफल फिल्म वो है जिसे एक सफ़ में कहा जा सके. शायद होती भी होंगी, मगर मैं इस धारणा को ब-अदब अस्वीकार करता हूँ(पूर्णतः नहीं) निजी तौर पर मेरा मानना है कि एक अच्छी फिल्म वह है जिसमे कई परतें हों, जिसका अर्थ एक लाइन में तो क्या एक पैराग्राफ में भी समझाया ना सके और अर्थ समझने के लिए व्यक्ति को स्वयं वो फिल्म देखनी पढ़ जाए. “भागवत गीता का अर्थ भागवत गीता में ही निहित है”.

फिल्म के कहानी की बात करें तो सम्पूर्ण फिल्म राज बत्रा (इरफ़ान खान), मीता बत्रा(सबा कमर) और उनकी बेटी पिया बत्रा के इर्द-गिर्द घूमती है. जहाँ राज एक बहुत बड़ा कपड़ा विक्रेता या व्यापारी है मगर वो ज़्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है. अंग्रेजी ना आना उसके लिए एक तब अभिशाप बन जाता है, जब उसकी बेटी का एडमिशन किसी अच्छे स्कूल में कराने के लिए उसे भी अंग्रेजी सीखनी पड़ती है. अपनी बेटी के एडमिशन के लिए राज और मीता जो सब करते हैं वो सब देखने लायक है.

शार्ट एंड स्वीट नज़र आने वाली यह फिल्म व्यवस्था के साथ-साथ खोखले समाज को भी सर-ए-बाज़ार बेईज्ज़त करती नज़र आती है. फिल्म का एक संवाद “इस देश में अंग्रेजी जबां नहीं है, क्लास है, क्लास।” हमे गहन चिंतन में डाल देता है की क्या सच में आज हमारा देश या समाज अंग्रेजी के ज्ञान को पांडित्य का पर्याय मानने लगा है?. हम क्यों किसी जबां को धर्म, जाती, क्लास आदि से जोड़ते हैं? मेरा उर्दू पढ़ना या उसे लिखने की कोशिश करना क्या ये साबित करता है की मैं इस्लाम कुबूल करने जा रहा हूँ?....” फिल्म के एक द्रश्य में श्यामा (दीपक डोबरियाल) राज (इरफ़ान खान) की ओर इशारा करते हुए कहते हैं “हम सिखाएँगे तुम्हे। गरीबी में जीना एक कला है और हम तो खानदानी गरीब हैं, हमारा पिता गरीब थे, उनके पिता गरीब थे, उससे पहले भी सब गरीब ही थे. हम शुद्ध गरीब है” फिल्म का ये एक संवाद भारत में मौजूद “Perpetual Poverty” के चक्रव्यूह को बेहद मजाकिया अंदाज़ में पेश करता है. “सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी”. 

एक अन्य द्रश्य जो फिल्म के अंत में आता है में नायक बच्चों के माँ-बाप से कहता नज़र आता है कि “आनेस्टी इस बेस्ट पॉलिसी”, “शेयरिंग इस केयरिंग” आदि बातें हम बड़े स्कूलों में पढ़ते ज़रूर हैं मगर इन्हें सिखाने का काम स्कूल नहीं कर पाते. यह बातें हम अपने रोज़मर्रा के जीवन में आम लोगों के बीच रहकर ही सीख पाते हैं. फिल्म में शिक्षा के अधिकार के कानून पर भी सवाल खड़े किये गए हैं. दीपक डोबरियाल(हर बार की तरह) और पाकिस्तानी अदाकारा सबा कमर का अभिनय कमाल का है. मकबूल कलाकार इरफ़ान खान एक बार फिर एक्टिंग कर पाने में असफल रहे हैं और उन्हें वो करता देखने के लिए हमे उनकी अगली फिल्म का इंतज़ार करना होगा.(व्यंग समझें). निर्देशक साकेत चौधरी ने इससे पूर्व “शादी के साइड इफेक्ट्स” जैसी फिल्में बनाई हैं और इसलिए यह अपनी तरह की उनकी पहली फिल्म है. “हिंदी मीडियम” हर अच्छी फिल्म की तरह मुस्कुराते हुए हमे कई गहन और प्रगाड़ सवालों के साथ छोड़ जाती है.

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