ओ! "सुनने वाले",
तेरा मुझसे, मेरी "नज़्मो" से....?
क्या है मेरी नज़्मो में?
मैं ही तो हूँ, "पूरा का पूरा"...
थोड़ा इस सफ़ में, तो थोड़ा उसमे....
तू कहाँ है? "सुनने वाले"....
वो जो तीसरे मिसरे के,
चौथे हर्फ़ पर तुम मुस्कुराए थे,
सच कहो! तुम वही थे ना...
वो शेर जिसपर तुम झूम उठे थे,
तुम कहना चाहते थे...
क्यों?, चाहते थे ना?
"मुझे" सुनना ही, तुम्हारा "कहना" है,
और "मुझे" पढ़ना,
तुम्हारा "लेखन", शायद!.....
मैं आता हूँ, कहता हूँ,
तुम दाद देते हो,
हर शेर, हर मिसरे पर , वाह कहते हो....
बस इसी दाद-ओ-तहसीन के "शोर"में,
तुम्हारा मुझमें "प्रवेश" होता है,
तुम सतह पर नहीं रहते, ज़र्फ़ में उतरते हो....और...
जब मैं पढ़ता हूँ कोई "नज़्म" मुशायरे में,
ओ! "सुनने वाले",
अपनी हर "ताली" से तुम,
No comments:
Post a Comment