Friday, 28 April 2017

डर।



किसी ग़हरी खाई के किनारे
तल तलाशती पाल पर बैठ,
मैं अक़्सर नज़रें,
आसमान की तरफ़ कर लेते हूँ
ऊपर, एकदम ऊपर....


शायद इस डर से,
के झाँकते-झाँकते कहीं
गिर ही ना जाऊं....
सोचता हूँ, के ये जो पाल,
एक दशक से झांक रही है, 
गिरती क्यों नहीं?


ये डर जो है, भीतर है,
औरों की तरह...
ये डर, गिरने का डर है...


जब तक मैं पाल पर रहता हूँ,
साथ रहता है मेरे,
और इसीलिए मैं डरता हूँ
भयभीत रहता हूँ गिरने से...


रोंटे खड़े हो जाते हैं,
और हवाओं संग लहराते हैं....
परिंदों की आवाज़ें,
खाई-किनारे सुकून नहीं देती।


मगर यह डर, यह भय कमाल का है,
यह प्रेरणा देता है,
ये मुतासिर करता है,
ये वो भय है जो कहता है,
के ऊपर देखो, नीचे नहीं.....


यह डर ज़रूरी है,यह भय ज़रूरी है
इसका होना मुझे,
निडर बनाता है.....


और बस इसलिए....

किसी ग़हरी खाई के किनारे
तल तलाशती पाल पर बैठ,
मैं अक़्सर नज़रें,
आसमान की तरफ़ कर लेते हूँ
ऊपर, एकदम ऊपर...

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