Monday, 24 April 2017

शोर।



कभी-कभी मैं बैठ जाता हूँ,
सड़क-किनारे बैंच पर....
और काट राब्ता ख़ामोशी से,
मुलाक़ात "शोर" से करता हूँ....


वही "शोर" जो चंचल है,
कभी यहाँ, तो कभी वहाँ...
वही "शोर" जो स्थिर नहीं है,
घटता-बढ़ता रहता है....


"बड़ा-शोर" है सड़क-किनारे,
आखिर कितना नापुं क्या?...
मगर "शोर" जो है "अनकाउंटेबल" है,
नापा नहीं जाएगा....


कई रंग हैं "शोर" के,
और दौड़ लगाते हैं सारे....
चाहतें हैं, हसरते हैं, 
ख्वाइशें और तमन्नाएं.....


दौड़ता है, भागता है रोज़ सुबह-ओ-शाम,
मैं सोचता हूँ "शोर" कभी थकता होगा क्या?
शायद! थकता हो और पसर जाता हो,
दरख़्त से सटकर रखी उस बैंच पर....


एक सियाह अँधेरी रात को,
मुझे "शोर" नज़र में नहीं आया....
सोचा मैंने चला गया,
अब सुबह ही वापस आएगा....


तभी अचानक एक वरक शजर से,
झड़कर बैंच पर आ गिरा,
और "शोर" जागा हौले से,
एक गहरी उबासी लेते हुए.....

Keep Visiting!

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