एक कुत्ता रहा करता था..
बैठकर चौराहे पर, अपनी पथराई सी आँखों से
नज़र रखता था, सब पर..
निकलता था गश्त पर शाम होते ही,
और ठहरता था कुछ देर हर घर के सामने..
हर रोज़ कोई-न-कोई,
कुछ खाने को दे जाता था...
के जैसे तनख्वा देता है कोई,
अपने चौकीदार को...
अंजान शख्स कोई दिख जाए,
तो एक हलकी भौंक लगाता था..
जैसे पूछ रहा हो "कौन हो तुम"...
कोई जवाब ना मिलने पर, ज़ोर-ज़ोर से भौंकता था,
कोई जवाब ना मिलने पर, ज़ोर-ज़ोर से भौंकता था,
और फिर दौड़ता था उस अनजान के पीछे,
अपनी लंगड़ी टांग लिए...
बाल सब उड़ चुके थे उसके,
ज़र्द पड़ गया था पूरा..
मगर फिर भी गलियों में..
उसका डंका बजता था।
प्यार भरी सूखी रोटियों में,
क्या गज़ब की ताकत होती होगी..
कभी-कभी जब मैं,
देर रात घर लौटता था...
वो देख लिया करता था मुझको,
गली में घुसते ही..
उठता था चुपचाप से और फ़िर
भौंकता था गुस्से से...
के जैसे पूछ रहा हो..
"क्यों भाई कहाँ रहे इतनी देर"।
मैं डर-डर कर गुज़रा करता था..
अपने ही घर की गलियों से..
के कहीं किसी कोने से आकर,
वो कुत्ता मुझको काट न ले..
दो रोज़ जब नहीं दिखा वो,
और रात आवाज़ें नहीं आई...
तो मन में सवाल उठा के "कहाँ गया" आखिर "कहाँ गया"..
पड़ोसियों से पता चला के "गुज़र गया" कल "गुज़र गया"।
बेख़ौफ घूमा करता हूँ, मैं आजकल
उन गलियों में...
मगर नजाने, क्यों मुझको..
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