प्रस्तुत ग़ज़ल पूर्णतः काल्पनिक है। इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है।
पाठक अपने विवेक से काम लें।
इश्क़ का कोई फ़साना अच्छा नहीं लगता।
अब उनका सपनों में आना अच्छा नहीं लगता।।
नगमे जो लिखे थे कभी उनके लिए।
अब उन्हें गाना-गुनगुनाना अच्छा नहीं लगता।।
घूम-घूमकर जिन गलियों में शायर बने हैं हम।
अब उन गलियों में जाना अच्छा नहीं लगता।।
वो नहीं रहते हैं आजकल सर-ए-शहर।
हमे अब खुद ही का ठिकाना अच्छा नहीं लगता।।
मुहब्बत गर हो तो मुकम्मल भी हो।
के अधूरा कोई भी अफ़साना अच्छा नहीं लगता।।
जुदाई के दर्द का आशना हूँ मैं।
इश्क़ में हारा कोई परवाना अच्छा नहीं लगता।।
और वो उल्फ़त थे, चाहत थे, इबादत थे वो।
जो वो नहीं हैं तो ये ज़माना अच्छा नहीं लगता।।
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