शब्-ओ-रोज़ शहर के चौराहों पर,
कुछ लोग "बस" का इन्तिज़ार करते रहते हैं....
बेचैन निगाहों से बार-बार मुड़कर देखते हैं,
वो आ गई क्या?, वो आई तो नहीं?
उसके आते ही हडबडाते हुए,
दरवाज़े कि जानिब भागते हैं..
और दौर धक्का-मुक्की का सा चलता है, कुछ देर....
सब जल्दी में हैं,
सभी की राह तकता होगा कोई....
जिन्हें जगह नसीब हो जाए,
वो तशरीफ़ रख देते हैं तुरंत
और फिर मुस्कुराते हैं उस ऊंगते हुए इंसान पर,
जो खड़ा रह गया..
कुछ कहे बिना ही ताना कसते हैं..
इशारों से कहते हैं के "कल कोशिश करना".....
इन उठते-बैठते, चड़ते-उतारते राहगीरों में
कोई चक्कर काटता रहता है आगे-पीछे...
इक बैग टंगा है गर्दन में, फूर्ती है आवाज़ में..
और हिसाब चल रहा है पेशानी पर..
पैसे लेकर टिकट देता है..
कंडक्टर है मामूली सा..
पैसे लेकर टिकट देता है..
कंडक्टर है मामूली सा..
मगर शख्स-ए-मामूली
सवाल बड़ा पेचीदा सा करता है सभी से...
और हर रोज़,एक जैसा..
जैसे तलाश हो उसे किसी सच्चे जवाब की...
हर शख्स से, बड़ी आसानी से पूछ लेता है..
कहिए जनाब, कहाँ जाना है?
उस इलाक़े का नाम बता देता हूँ,
जहां आजकल घर है मिरा, दूसरों की मानिंद।
मन हंस पड़ता है, ज़बाँ के जवाब पर,
जैसे कह रहा हो,
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