छोड़ आया था मैं शहर अपना,
मकताबी-पढ़ाई पूरी होते ही.
आदमी अपने ही घर में ठहर जाए, कुछ रोज़,
तो सरगोशियां शुरू हो जाती हैं,
के "क्यों कुछ करता नहीं है क्या?"
समेट कर कुछ बर्तन, इक बिछौना,
इक मसनद, कुछ किताबें,कलम
ढेरों समझाइश और वो जो,
एक तस्वीर माँ ने दी थी..
मैं निकल पड़ा नए शहर की जानिब।
रास्ते में तबसरे ही मिले पेट भरके,
शहर-ए-नौ में इससे ज़ियादा मिलता भी क्या....
इक छत के नीचे से,
बस दूसरी के तले आ गया था...
खेर, उसे "घर" कहता था,
इसे "रूम" कहता हूँ।
ब-तरतीब जमाकर सब समान, मैंने,
उस तस्वीर को चौखट के ऊपर टांग दिया था,
जिसपर राम-दरबार लगा हुआ था,
वही जो माँ ने दी थी घर से निकलते वक़्त....
कुछ पाँच-सौ रोज़ बाद मैंने उतारा,
उस तस्वीर को...
देखा के चारों गोशों पर,
चंदन, हल्दी, कुमकुम लगा हुआ था....
ये वही निशां थे जो मेरी दादी लगाया करती थी,
और उनके बाद मेरी माँ....
कुछ छे-सात परतें धूल की चढ़ गई थी,
के मैं नहीं करता था तो क्या,
हवा पूजा करके जाती थी, हर रोज़....
साफ़ कर दीं वो परतें, मैंने कागज़ के एक टुकड़े से..
देखा के हाथ राम के उठे हुए हैं अभी भी,
आशीर्वाद देने को..
राहत हुई, के खुदा नाराज़ नहीं हुआ है।
उस तस्वीर को अब मैंने,
रक्ख दिया है टेबल पर, मेरी तहरीरों के साथ में..
मगर हवा बड़ी ज़िद्दी है,
आज भी छुप-छुपकर,
अपना काम करके जाती है....
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