बेताब, बेबाक बस बढ़े जा रहा हूँ।
देखा है - कैसे भागता है,
बाघ शिकार को?
बस वैसे ही भाग रहा हूँ,
हांपते हुए....
अदब के मकताब में,
कुछ एक लफ्ज़ सीखे हैं मैंने,
बस उन्हीं के ज़रिये मैं,
कहता रहता हूँ कितना कुछ?
बहुत कुछ, शायद!
जो मान रहे हो ज़हीन मुझको,
पागल हो!
जो हो मुतासिर मुझसे तो,
रास्ता बदलो!
कुछ पोशीदा है,
रुमूज़ है कोई,
रुमूज़ है कोई,
कुछ तो है,जो छूटा है...
तलाश मुझे करनी होगी,
लाज़िम है।
लाज़िम है।
और जल्दी, कम है वक़्त...
मुड़ना होगा वापस उन,
तंग, पेचीदा गलियों में,
उन कूचो में, उन गोशो में...
पहुंचना होगा मसदर पर,
नब्ज़ पकड़नी होगी....
दूर नहीं ज़्यादा लेकिन,
बस एक-दो हाथ की दूरी पर,
मैं पा लूंगा जो घुमा हुआ है,
और फिर से लौटूंगा....
लौटूंगा इन रफ्तारों में,
बन कर एक हज़ारों में,
के नए सिरे से तहरीरें,
फिर वही पुरानी लिक्खूंगा..
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