राब्ता है लकीरों का इंसां से, कुछ तो,
सुना है बिन बोले,
हाल-ए-दिल बताती हैं.
के जो हाथों में हैं,
वो हर्फ़ हैं कातिब-ए-तकदीर के, गालिबन
अहल कहते हैं किस्मत मुट्ठी में है.
कुछ हैं, लकीरें जबां पे हमारी,
हर ज़ायका तभी तो,
मीठा नहीं होता.
जो माथे पर हैं,
कभी गहरी, कभी उथली,
एहसासों की सारे, दास्तां कहती हैं.
इन नज़रों ने कभी,
पाक समझा था सभी को,
कुछ धोखे, कुछ फरेब तोहफे में मिले.
जांच होती है, खुद के
खयालों की देखो,
मेरी आँखों के बगल में, लकीरें आई हैं.
चेहरे पर बुजुर्गों के,
तो बज़्म होती है उनकी,
और फिर दौर दलीलों का चलता है.
मिट जाती हैं आखिर,
मिट्टी में जाकर, जब
इंसान सुपुर्द-ए-ख़ाक होता है.
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