Thursday, 2 February 2017

मछलीघर।



इक नुमाइश में पहुंचा, इत्तेफ़ाक़न कल शाम।
सौदे मछलियों के हो रहे थे-
मगर बड़ी तहज़ीब से, वाक़ई।

होते थे इशारे उँगलियों से लोगों की,
ज़िस्म, मछलियों का क़ैद हो जाता था..

ख़याल आया दो ले लूँ, अपना बनाकर रखूँगा,
कुछ अकेलापन दूर होगा।

मगर कौन सी, ढ़ेरों थीं वहां तो।
थोड़ा टहला, थोड़ी नज़र घुमाई,
और आखिर में घर हमारे,
दो मछलियां आईं।

एक कांच का गोला सा कुछ भी लाया फिर,
वो दुकानदार कहता था, वही घर है उनका।

उनका घूमना, उछलना, टकराना,
नजरें हिलाना और मुँह चलाना,
एक मुस्कान बिखेर देता है शक़्ल पर।

सोचता हूँ, उस बुड़-बुड़ करती आवाज़ों से,
बोल खिलाफत के निकलते हों शायद,
आँसूँ भी आते हों शायद,
और घुल जाते हों, आब में..

मैं दुआएं देता हूँ, के
कोई मेरे अपने मिले मुझे।
ग़ालिबन, गालियां देती हों वो,
अपनों से दूर जो ले आया हूँ उन्हें।

Keep Visiting!

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