Thursday, 23 February 2017

सफ़हा।




इक सफ़हा और कोई कलम,
किसी अत्फाल के सामने रख देना। 
कुछ देर निहारेगा उनको,
फिर मोड़ कर उस कागज़ को फेंक देगा, शायद 
घर के किसी गोशे में..
तुम वापस दे देना उसको,
वही कागज़ बिना सल मिटाए....

कलम से खेलेगा कुछ देर,
हाथ नया खिलौना आया है..
और उसी मासूम बाज़ीचे में,
 चोट पहुंचा लेगा खुद को,
फिर रोएगा बिन आँसूं ,
और सुताई कलम की कर देगा,
उसको फिर तुम चुप कराना,
और कलम फिरसे थमा देना.

कुछ और पल गुज़रते ही,
वो सफ़हे पर नज़र गड़ाएगा..
जैसे कोई सुखनवर हो, नज़्म लिखना चाहता हो। 
रोती कलम को थामकर,
अपने गुल जैसे उन हाथों से,
सफ़ आड़ी-तिरछी खींचेगा.
और मुस्कुराएगा, के जैसे,
कोई शेर लिखा हो आज़माती.

उस सफ़हे को अपने पास,
संभालकर तुम रक्ख लेना....
कोई 15-20 बरस के बाद,
जब वही तुम्हे परेशान मिले,
जिंदगी की उठा-पटक से हताश, निराश दिखे.
तुम किसी पुरानी किताब से,
फिर वही सफहा निकाल कर,
हाथ में उसके दे देना,
के तब बना दी थी उसने, जो आज है उसकी "ज़िंदगी"

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