बद-इकबाली है शायद,
के इक वज़न सा ढ़ोना पढ़ता है.
इस शक्ल को अनवरत.
बालों के नीचे,रुखसारों के ऊपर.
मेरी दो ये आँखें,
और सामने इक ऐनक.
हटाता हूँ, जब कभी,
इन आँखों से इसे.
सब धुंधला-धुंधला सा हो जाता है.
बे-तरतीब सी इस दुनिया, का नक्शा,
कुछ और बिगड़ सा जाता है.
फ़ैल जाती है, चांदनी और किरणें आफताब की,
इस कदर आलूदा हो गई हैं ये नज़रें,
नादिम है पानी भी,
के वो धो नहीं सकता.
गिरते-पड़ते नज़ारे, कोशिश सँभलने की करते हैं.
हर्फ़ भागते हैं किताबों से ऐसे,
के जैसे, लहरें किसी दरिया से.
मगर माने उन सब शब्दों के,
वहीँ रहते हैं वैसे के वैसे,
गरिमत है!
शक्लें मुख्तलिफ दिखाई पड़ती हैं,
हर इक इंसा की मुझको,
खेर,इस नज़र से तो कमतर हर इक नज़र है.
वो माथा जो हल्का हुआ था, ऐनक उतारने से,
कुछ वक़्त पहले,
भारी वही होने लगता है.
इशारा है के,
के जिसे उतारा था,
उसे अब वापस चड़ा लो.
चड़ते ही आँखों पर, पर्दा-ए-ऐनक.
सब साफ़ हो जाता है, पहले की तरह.
के जैसे नजारे छन कर आरहे हों नज़रों तक.
हसरता! इक ऐनक ठीक ऐसा ही,
मेरे दिल-ए-सुखन का भी होता!
के बहुत कुछ है यहाँ भीतर,
No comments:
Post a Comment