Tuesday, 31 January 2017

ख़्याल।


       आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में।       
'ग़ालिब' सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है।।

-मिर्ज़ा ग़ालिब




 माथा सहला कर उठाते हैं सुबह को,
किवाड़ खोलकर फिर, ज़हन में,
पाँव दबाए चले आते हैं,
अकेले कभी तो कभी झुण्ड में,

ज़हीन हैं, के आए हैं
तो कोई मकसद ज़रूर होगा।

बड़ी रफ़्तार में रहते हैं
रोकूँ, ठेहराउँ, समझाऊं
इतना वक़्त कहाँ है?

कुछ एक पकड़ में आ जाते हैं
और आहिस्ते लिख दिए जाते हैं।

शामें कटती हैं सोहबत में इनकी,
ज़ाती राब्ता है पुराना,
बिना बुलाए चले आते हैं।

बहुरूपी हैं, कई परतें हैं एक की,
चुभते हैं काँटों से कभी,
कभी दिल गुलज़ार कर जाते हैं।

परेशान, हाँ करते हैं कभी-कबार,
हताश,निराश कर देते हैं इस कदर,
के रूह डूबी चली जाती है,
ज़हन की भीतरी आबजू में।

बड़ी मुश्किलात होती है उभरने में, 
सच कहता हूँ।

सोचता हूँ, बेदखल कर दूँ,
कर ही देता, होता ज़द में अगर।
पर ख़याल सब अपने ही हैं,
अब अपनों से क्या रूठना।

जीते हैं मुझमें और फिर,
उतरकर पन्नो पर अमर हो जाते हैं।
के जिनके जन्म का पता नहीं,
उनकी मौत क्या होगी।

Keep Visiting!

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