फ़रिश्ते आके उनके जिस्म पे खुशबू लगाते हैं।
वो बच्चे रेल के डब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं।।
- डॉ. राहत इंदौरी
हवा महल रोड , जयपुर (राजस्थान)
"अरे थारी! मरज़ाणा म्हारी गाड़ी के नीचे आकइ मरणों है के", बस ड्राईवर ने ब्रेक मारते हुए कहा।
"हुकुम ज़रा बगल से चल लो यार", कंडक्टर ने बस के सामने आए आदमी को घूरते हुए कहा।
"चैन से नीन भी नी लेण देते यार", माणिक बुदबुदाया।
अचानक ब्रेक लगने के कारण बस की आखिरी सीट पर बैठे माणिक की नींद टूट गई। अपने बैग से पानी की बोतल निकाल कर उसने अपना मुँह धोया और खिड़की के बाहर देखने लगा।
सैकड़ों देशी-विदेशी पर्यटकों (टूरिस्ट) से घिरा हुआ और हवा के लिए बेताब हवा महल किसी मैरिज-हॉल से कम नहीं लग रहा था। महल के कुल 953 दरीचों में से लगभग आधों में अलग-अलग नज़ारे देखे जा सकते थे। कहीं परिवार के परिवार दिखाई पड़ते थे तो कहीं मॉडर्न राजकुमार और राजकुमारी को साथ देखा जा सकता था। कुछ लोग खिड़कियों से नीचे झाँक रहे थे और बाकी उनकी तसवीरें लेने में मशगूल थे। ये कार्य वाइसे-वर्सा चल रहा था। देशी पर्यटकों को जहां अपने बच्चों की तसवीरें लेने से फुर्सत नहीं थी वहीँ विदेशी पर्यटक महल और उसकी भव्यता को अपने कैमरे मेंं कैद कर रहे थे।
"कीजां जाणा हैं भाई?", कंडक्टर ने खिड़की के बाहर झाँक रहे माणिक के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा।
"एक मानक चौक देणा भाई सा", माणिक ने जवाब दिया।
प्राचीन शहर को आधुनिक बनाने की कवायद शुरू हो चुकी थी और इसी कड़ी में जयपुर को जयपुर मेट्रो में तब्दील किया जाना था। इसी वजह से शहर में मेट्रो का काम तेज़ी से चल रहा था और सड़कों पर अक्सर जाम लग जाया करते थे। बस-ड्राइवर को जयपुर की सड़कें कुरुक्षेत्र सी मालूम पड़ती थीं। हाथी समान बस पर सवार, बाकि वाहनों से खुद को बचाते हुए वो आगे बढ़े जा रहा था। माणिक नज़ारे निहार ही रहा था के एकाएक कंडक्टर की आवाज़ उसे वापस बस के भीतर ले आई।
"कीजां जाणा हैं भाई?", कंडक्टर ने खिड़की के बाहर झाँक रहे माणिक के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा।
"एक मानक चौक देणा भाई सा", माणिक ने जवाब दिया।
प्राचीन शहर को आधुनिक बनाने की कवायद शुरू हो चुकी थी और इसी कड़ी में जयपुर को जयपुर मेट्रो में तब्दील किया जाना था। इसी वजह से शहर में मेट्रो का काम तेज़ी से चल रहा था और सड़कों पर अक्सर जाम लग जाया करते थे। बस-ड्राइवर को जयपुर की सड़कें कुरुक्षेत्र सी मालूम पड़ती थीं। हाथी समान बस पर सवार, बाकि वाहनों से खुद को बचाते हुए वो आगे बढ़े जा रहा था। माणिक नज़ारे निहार ही रहा था के एकाएक कंडक्टर की आवाज़ उसे वापस बस के भीतर ले आई।
"चलो! मानक चौक, दरवाज़े पे आ जाणा भाई सारे", "कंडक्टर ने एक बूढ़े आदमी को टिकट देते हुए कहा।
"क्या करूँ?, बड़ी भीड़ है उतरना घणा मुश्किल लग रा है, आज घार ही चलता हूँ। केमिस्ट्री तो अपणा ही सब्जेक्ट है, एक रोज़ की क्लास छूट भी गई तो बेंज़ीन से अपणा रिश्ता नी बिगड़ेगा?, मम्म.....हाँ सही है घार ही जाता हूँ।" माणिक ने पांच से भी कम सेकेंड में फैसला किया।
माणिक सिंह बुन्देला, सोला साल का लम्बा और तगड़ा लड़का जो मिजाज़ से एकदम आलसी और कामचोर था। उसके पिता पन्नालाल बुंदेला, जिनकी "बुन्देला स्वीट्स" नामक दुकान पूरे जयपुर में प्रसिद्द थी, एक हलवाई थे। दुकान के बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा भी था - "बुन्देला स्वीट्स, जिसपर स्वाद करे भरोसा"
माणिक का स्कूल उसके घर से अठारा किलोमीटर दूर था और अपने घर से स्कूल पहुँचने में उसे लगभग एक घंटा लगता था। स्कूल छूटने के बाद माणिक वहां से मानक चौक स्थित "बलबीर कोचिंग क्लासेस" में पढ़ने के लिए जाता था ऐसा भ्रम सेठ पन्नालाल बुन्देला को था।
"भाई सा, एक बापू मार्केट की बना देणा" माणिक ने जम्हाई लेते हुए कंडक्टर से कहा।
माणिक सिंह बुन्देला, सोला साल का लम्बा और तगड़ा लड़का जो मिजाज़ से एकदम आलसी और कामचोर था। उसके पिता पन्नालाल बुंदेला, जिनकी "बुन्देला स्वीट्स" नामक दुकान पूरे जयपुर में प्रसिद्द थी, एक हलवाई थे। दुकान के बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा भी था - "बुन्देला स्वीट्स, जिसपर स्वाद करे भरोसा"
माणिक का स्कूल उसके घर से अठारा किलोमीटर दूर था और अपने घर से स्कूल पहुँचने में उसे लगभग एक घंटा लगता था। स्कूल छूटने के बाद माणिक वहां से मानक चौक स्थित "बलबीर कोचिंग क्लासेस" में पढ़ने के लिए जाता था ऐसा भ्रम सेठ पन्नालाल बुन्देला को था।
जे.बी रोड, जयपुर, (राजस्थान)
"भाई सा, एक बापू मार्केट की बना देणा" माणिक ने जम्हाई लेते हुए कंडक्टर से कहा।
शाम होने को थी और सड़क पर ट्रैफिक बढ़ता जा रहा था। बस मानक चौक से आगे निकल आई थी और जोहरी बाज़ार रोड पर धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। माणिक एक बार फिर नींद के आगोश में जाने ही वाला था के अचानक बस की खिड़कि पर एक 10-15 साल के बच्चे ने दस्तक दी। उसके हाथों में पेन थे, कई सारे रंग-बिरंगे पेन, एक बच्चे की ज़रूरत से थोड़े ज़्यादा। खिड़की के बाहर बीच रोड पर हाथों में पेन लिए वो उछल रहा था, आवाजें लगा रहा था और एक हाथ से खिड़कि ठोंकते हुए अपने दूसरे हाथ से पेन के पैकेट्स को हवा में बार-बार लहरा रहा था। बड़ी देर तक उसकी हरकतों पर गौर करने के बाद मंदबुद्धि माणिक को समझ आया के वो बच्चा पेन बेचने वाला है।
बस आगे बढ़े जा रही थी, और बच्चा माणिक के पीछे। बच्चे को लगातार अपना पीछा करता देख माणिक ने इशारे से उसे बस के अंदर आने को कहा और अपने बगल में बैठे शख्स को देखकर मुस्कुराने लगा। वो जानता था कि इतनी भीड़ में बस के अंदर आ पाना मुमकिन नहीं है और अगर है भी तो एक पांच रुपए का पेन बेचने के लिए वो बच्चा इतनी मशक्कत नहीं करेगा। जैसे उसने एक दिन की क्लास अटेंड करने के लिए नहीं की।
बस आगे बढ़े जा रही थी, और बच्चा माणिक के पीछे। बच्चे को लगातार अपना पीछा करता देख माणिक ने इशारे से उसे बस के अंदर आने को कहा और अपने बगल में बैठे शख्स को देखकर मुस्कुराने लगा। वो जानता था कि इतनी भीड़ में बस के अंदर आ पाना मुमकिन नहीं है और अगर है भी तो एक पांच रुपए का पेन बेचने के लिए वो बच्चा इतनी मशक्कत नहीं करेगा। जैसे उसने एक दिन की क्लास अटेंड करने के लिए नहीं की।
बस जोहरी-मार्केट से आगे निकल आई और फिर उसने रफ़्तार पकड़ ली। वो बच्चा भी फिर दिखाई नहीं दिया। माणिक को ख़ुशी हुई की जैसा उसने अनुमान लगाया था सबकुछ ठीक वैसा ही हुआ।
कुछ ही देर बाद सांगानेरी गेट आ गया और माणिक ने अपनी सीट छोड़ दी। हालाँकि उसे बापू मार्केट उतरना था जो की अगला स्टॉप था मगर भीड़ के कारण वो एक स्टॉप पहले ही अपनी सीट से उठ गया ताकि बापू मार्केट आने तक वो दरवाज़े तक पहुँच सके।
लगभग 10 मिनट बाद जब बस रुकी तो माणिक नीचे उतरा और नीचे उतरकर उसने जो देखा वो उसे बेहद हैरान-परेशान करने के लिए काफ़ी था। उसके पाँव तले जमीन खिसक गई और वो सकते में आ गया।
कुछ ही देर बाद सांगानेरी गेट आ गया और माणिक ने अपनी सीट छोड़ दी। हालाँकि उसे बापू मार्केट उतरना था जो की अगला स्टॉप था मगर भीड़ के कारण वो एक स्टॉप पहले ही अपनी सीट से उठ गया ताकि बापू मार्केट आने तक वो दरवाज़े तक पहुँच सके।
लगभग 10 मिनट बाद जब बस रुकी तो माणिक नीचे उतरा और नीचे उतरकर उसने जो देखा वो उसे बेहद हैरान-परेशान करने के लिए काफ़ी था। उसके पाँव तले जमीन खिसक गई और वो सकते में आ गया।
बापू मार्केट, जयपुर (राजस्थान)
(माणिक का घर)
"आ गया म्हरा टाबर", जा मुँह-हाथ धो आ, खाना लगा देती हूँ", माणिक की माँ ने घर के अन्दर आते माणिक से कहा।
अपनी माँ की बात को नज़रंदाज़ करते हुए माणिक अपने कमरे के भीतर चला गया और सीधा जाकर अपने बिस्तर पर लेट गया। कुछ तो बात थी जो उसे लगातार परेशान कर रही थी। बिस्तर पर लेटे-लेटे वो कुछ सोच रहा था की एकाएक उसके कानों में एक आवाज़ सुनाई दी -
"टाबर, ए टाबर..खाना लग गया है, जल्दी अठे आ"
यह आवाज़ उसकी माँ की थी।
माँ की बात सुन माणिक बिस्तर से उठा, कपड़े बदले और अपने हाथ में रखे पेन को टेबल पर रखकर कमरे से बाहर, खाना खाने चला गया।
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