Friday, 27 January 2017

नंदी।

इस कविता का उद्देश्य किसी भी समुदाय या धर्म की भावनाओं को ठेंस पहुंचाना नहीं है। ना ही इस कविता के माध्यम से किसी भी धर्मं एवं किसी भी देवी-देवता पर सवाल उठाए गए हैं। यह मात्र उन ख्यालों की काल्पनिक प्रस्तुति है जो मुझे अक्सर शिव मंदिरों में बैठे नंदियों को देखने के पश्चात आते रहे हैं। 


शिव-मंदिर के सामने, एक नंदी बैठा है.
तना हुआ शरीर है उसका,
और आँखें शिव पर टिकी हैं...

जब भी देखा है मैंने उसको,
बस ऐसे ही देखा है। 
क्यूँ बैठा है एक जगह?, आखिर क्या कारण है?

अस्बाब असल तो पता नहीं,
मगर सुन रक्खा है लोगों से.
परमभक्त है शम्भू का, सेवा में बैठा रहता है..... 

आते-जाते हर शख्स,
उसके कानो में कुछ कह जाता है... 
इच्छाएँ पढ़ते हैं सारे, ऐसा माँ कहती हैं.

आसमान से कुछ परिंदे, 
उसके कानो पर आकर बैठे हैं.
ख़ुदा जाने! अब इनकी क्या ख्वाइश है?, 

कुछ चीटियाँ आई हैं, पैरों से होते हुए,
और घुस गई हैं उसके कानो में.
के छोटी हैं, तो इच्छाएँ ज़रा पास से बताएंगी।

मैं भी पहुंचा नंदी के पास, दूसरों की मानिंद
और पढ़ दी अपनी ख्वाइश,
एक अरसे से जो इस दिल में थी। 

के कब से बैठे हो यूँ ही, अब ज़रा सा उठ जाओ...
सब अरदासें अपने कानो की,
शिव-शंकर तक पहुँचा आओ। 


Keep Visiting!




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