Thursday, 1 December 2016

मस्जिद दूर है।

बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं, किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए.

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए.

-निदा फाज़ली


किसी शहर में ईद की सुबह तड़के सात बजे....

“मौसीन!....जुबेदा कहाँ हो भाई नमाज़ का वक्त होने वाला है”, घर के बाहर तांगे की तलाश करते राशिद ने घर के भीतर आवाज़ लगाई.

आवाज़ सुनते ही ज़ुबेदा दौड़ते हुए दरवाज़े पर आई और इठलाते हुए बोली –

“अब्बा! अब्बा! बताइए तो, कैसी लग रही हूँ?”.

“बेहद खूबसूरत, किसी की नज़र ना लग जाए मेरी शहज़ादी को”, राशिद ने ज़ुबेदा को नैनों से पैरों तक निहारते हुए कहा,  “और ये तेरी अम्मी कहाँ रह गई जा जाकर उसे कह के कितना भी सज ले, उम्र कभी लौट कर नहीं आती”, राशिद ने तंज कसा.

इससे पहले की ज़ुबेदा की ज़बां ने कुछ लफ्ज़ निकलते, राशिद मियां फिर बोल पड़े-

“और ये तेरा आवारा भाई कहाँ है?, कमसकम आज ईद के दिन तो अपनी शक्ल दिखा देता, वल्लाह! इस लड़के क्या करूँ मैं?, राशिद ने तांगा रुकवाते हुआ कहा.

“ सेवेरे 4 बजे ही मैदान के लिए निकल गया था आता ही होगा, कुछ देर इंतज़ार कर लेते हैं”, मौसीन ने घर के दरवाज़े बंद करते हुए कहा.

“नहीं, आज के रोज़ मैं देरी से नहीं पहुंचना चाहता, अगर उसके मुन्तज़िर बने बैठे रहे तो नजाने कब पहुंचेंगे. तू ताला लगाकर चाबी शबाना को देदे वो उसे दे देगी", राशिद ने बगल वाले मकान की तरफ इशारा करते हुए कहा. 
शबाना पिछले कुछ सालों से मौसीन और रशीद के बगल वाले मकान में रह रही थी और मौसीन की करीबी दोस्त थी.

"चलो आओ बैठ जाओ", राशिद तांगे में बैठ गया.

अपने शौहर की बात मानकर मौसीन ने घर में ताला लगाया और चाबि शबाना को देकर तांगे में बैठ गई.

“चलो भाई मस्जिद की ओर लेलो”, राशिद ने तांगे वाले से कहा.

पूरा शहर खुशियों से सराबोर था. सुबह के 7:30 बज रहे थे मगर गलीयों में बिखरी चहल-पहल को देखकर लग रहा था मानो शाम के 7:30 बज रहे हों. नीचे फर्श की जगह लोगों के पैर नज़र आ रहे थे वहीँ अर्श को उन लाल-हरे झंडों ने ढक दिया था, भीड़ में से तांगे को निकालना भी जंग सा लग रहा था.

“अरे! भाई क्या कल पहुँचाओगे, ईद आज है कल नहीं”, राशिद ने तांगे वाले की जानिब देखते हुए कहा।

“मियां, भीड़ नहीं देख रहे हो क्या, कहो तो उड़ा के ले चलूँ” रिक्शे वाले ने मुड़कर कहा. और खुदा तो आज भी है, कल भी. जब दिल करे मिल लेना”, रिक्शे वाले ने घोड़े की नाल को खींचते हुए कहा.

राशिद मियां के ज़हन में उत्तर तो कई उमड़े मगर बत्किस्मती से वाजिब एक भी ना था सो वे चुप ही रहे।

जैसे ही तांगा गलियों के जाल से निकलकर मुख्य सड़क पर पहुंचा, ज़ुबेदा की नज़र अपने भाई उमर पर पड़ी।

“अब्बा! अब्बा! वो देखिए कौन आ रहा है”, ज़ुबेदा ने राशिद का ध्यान उमर की ओर केन्द्रित करते हुए कहा.

घुंगराले बाल, सांवला चेहरा, मट्टी भरे कपड़े और बाहों में बल्ला दबाए 16 साल का उमर अपने दोस्तों से बात करता हुआ घर की ओर जा रहा था.

“उमर, ऐ उमर यहाँ आ जल्दी”, राशिद उमर की तरफ देखते हुए चिल्लाया.

“खुदा तेरी हिफ़ाज़त करे उमर”, उमर के दोस्तों ने ठिठोली करते हुए कहा.

उमर ने बाँहों में फंसे बल्ले को हथेलियों में लिया और तांगे के पास जा पहुंचा.

“क्यों जनाब इंज़माम बनना है आपको?”, राशिद ने गुस्से में कहा.

“नहीं, सचिन बनना है” उमर ने सर झुकाते हुए कहा.
उमर की बात सुन ज़ुबेदा हंस पड़ी।

चुप! एकदम चुप!, राशिद ने ज़ुबेदा को आँखें दिखाते हुए कहा.

“संभालो,संभालो अपने शहज़ादे को, देखो कैसे ज़ुबान लड़ाता है अपने वालिद से”, राशिद ने मौसीन से कहा.

“ऐ! उमर चल जल्दी घर जा. शबाना खाला से चाबि ले लेना और तैयार होकर जल्दी से मस्जिद आ जाना हम वहीँ तेरा इंतज़ार करेंगे” मौसीन ने राशिद से नज़रें चुराते हुआ कहा.

“जी अम्मी”, उमर ने कहा और घर की और जाने लगा, के तभी राशिद ने उसे वापास बुलाया और कहा – “ये बीस रूपए रख मस्जिद दूर है तांगे से आना नहीं तो वक़्त पर नहीं पहुँच पाएगा, जल्दी जा और 9 बजे से पहले पहुँच जाना”

पैसे लेकर उमर घर की और भागा और जल्दी से तैयार होकर घर में ताला लगाने लगा. ताला लगाकर उमर अपने पैरों में मौजड़ियाँ चढ़ा ही रहा होता है की एकाएक उसकी नज़र जुनेद पर पड़ती है.

जुनेद , ग्यारह-बारह साल का बच्चा जो गली में मिट्टी के खिलौने बेचा करता था. उमर उसे अच्छे से जानता था क्योंकि मौसीन अक्सर जुनेद से ही जुबेदा के लिए खिलौने खरीदा करती थी.

“क्या जुनेद मियां आज ईद के दिन भी काम, ईदगाह नहीं जाना क्या?”, उमर ने अपनी मौजड़ियां पैरों में चढ़ाते हुए कहा।

“हाँ उमर भाई अब क्या करें करना ही होगा. अम्मी की तबियत कुछ नासाज़ है इसलिए ईदगाह ना जाकर यहीं गलियों में फिर रहा हूँ..कुछ बेचुंगा, कमाऊंगा तब ना घर पर सेंवई बनेगी”, जुनेद ने खिलौने की टोकरी को ज़मीन पर रखते हुए कहा।

“अच्छा ये कितने की है”, उमर ने टोकरी में से एक गुड़िया उठा ली.

“है तो 25रु की मगर ईद पर स्पेशल डिस्काउंट देते हुए आपको 20 में दे देंगे”, जुनेद ने अपनी मासूम आवाज़ में व्यापारियों की मानिंद कहा.

उमर ने मुस्कुराते हुए वो गुड़िया रख ली और जुनेद के हाथ में बीस रूपए रख दिए.

“शुक्रिया उमर भाईजान, अब मैं भी घर निकलता हूँ, खुदा-हाफ़िज़. और हाँ ईद मुबारक" जुनेद ने टोकरी सर पर रखते हुए कहा.

“ईद मुबारक मियां ईद मुबारक", उमर ने गुड़िया की तरफ नज़र उठाते हुए कहा.

जुनेद से बात करते-करते उमर को वक़्त का ख्याल ही नहीं रहा. 8:30 बज चुके थे और ईद की नमाज़ 9 बजे तक हो जाती है. सिर्फ़ आधा घंटा बचा था और मस्जिद तक पैदल पहुँच पाना लगभग नामुमकिन था...

अपने हाथों में गुड़िया पकड़े हुए उमर मुसलसल जुनेद को जाता हुआ देखता रहता है और जैसे ही वो उसकी आँखों से ओझल होता है उसकी नज़रें आसमान की तरफ उठ जाती हैं.

कुछ पल अर्श को निहारने के बाद उमर मन ही मन कह उठता है-

“माफ़ करना, मस्जिद वाकई दूर है....
Keep Visiting!

1 comment:

  1. इंसान, इंसानियत,अल्लाह

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