क्या कमाल के दिन थे वो,
जब थे हम कागज़ श्वेत से।
हाथ किसी के ना आते थे,
नटखट थे बड़े, रेत से।।
हम नन्हे, कोमल पौधे थे,
जो बात-बात मुरझाते थे।
जो गुत्थी कभी थी ही नहीं,
उसे घंटों बैठ सुलझाते थे।।
मासूम थे, छोटे-छोटे थे,
दुनिया भी कितनी छोटी थी।
पिता के कंधे से लेकर के
माँ की गोद तक होती थी।।
तालाब बने अब पड़ा हुआ है,
जो दरया खुलकर बहता था।
पौधा वह स्थिर खड़ा है,
जो संग हवा के रहता था।।
सब दांत हमारे कच्चे थे,
और हाव-भाव सब सच्चे थे।
बिना दिखावा ओढ़े भी,
हम सजे-धजे से लगते थे।।
किसी बात का भान नहीं था,
किसी चीज़ का ज्ञान नहीं।
अनजान थे हम दुनियादारी से,
इसीलिए परेशान नहीं।।
कहाँ गई वो गफ़लत जो
उस बखत हमारे भीतर थी।
जो भी थी, जैसी भी थी,
इस नफ़रत से तो बेहतर थी।।
बे-वजह हम हंसते थे और
बे-वजह रो पड़ते थे।
दिन में डरते थे जिनसे,
उनसे सपनों में लड़ते थे।।
अब मर्द-ओ-औरत बन गए हैं,
छल,बल सब खेल समझते हैं।
कोई कह दे "बच्चा" तो उसपर,
बच्चों जैसे भड़कते हैं।।
बचपना अब भी है हम में,
भीतर छिप कर रहता था।
जैसे झरने की धुंध के पीछे,
पानी निर्मल बहता है।।
धुल सकते हैं मैल सारे
इस ही निर्मल पानी में।
कई प्रश्नों के हल मिलेंगे,
बचपन की किसी कहानी में।।
अब आप चाहे अठारह के हों,
पच्चीस के या पचपन के
याद तो होंगे दिन छुटपन के,
किस्से अपने बचपन के।।
बस उन किस्सों को याद करो
और मन के भीतर दोहराओ,
क्या पता धुंध हट ही जाए
और निर्मल पानी तुम पाओ,
और निर्मल पानी तुम पाओ।।
Keep Visiting!
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