वर्तमान में हम अपने सामने जिन घटनाओं को होता देख रहे हैं वे सभी किसी न किसी रूप में इतिहास से ताल्लुकात रखती हैं और यही इतिहास की सबसे बड़ी खासियत है। आज का संबंध कल से है और उसका असर कल पर भी होगा यह निश्चित है। आज यदि हम "एयर इंडिया" और "सहारा" जैसी कंपनियों के विमानों में सफर कर पा रहे हैं तो उसका कारण राइट-बंधू हैं जिन्होंने हमारे जन्म से पूर्व ही इस आधुनिक समाज की ज़रूरतों को भांप लिया और आविष्कार किया हवाईजहाज का। ताज-महल जैसी सुन्दर और विशालकाय इमारत आज यदि इस विश्व में मौजूद है तो उसके पीछे भी वो इतिहास है जिसमे शाहजहाँ और मुमताज़ महल की मोहब्बत का जिक्र है। भारतीय सिनेमा ने आज पूरे संसार में अपनी अलग पहचान बना ली है मगर यदि दादा साहब फाल्के के मन में राजा हरीशचंद्र पर फिल्म बनाने का खयाल ना आया होता तो क्या आज हम सिनेमाघरों में सुलतान देख पाते,शायद नहीं।
इतिहास ने हमे अर्थात मानव जाति को अनेक सुख-सुविधाएं दीं मगर कुछ ऐसी गुत्थियां भी दे गया जिन्हे सुलझा पाना आज तक संभव नहीं हो पाया है। बाबरी मस्जिद विध्वंस उन्ही में से एक है।
उत्तरप्रदेश के फैज़ाबाद जिले में बसा है एक ऐतिहासिक शहर जो अयोध्या या अवध के नाम से जाना जाता है स्थानीय लोग इसे साकेत के नाम से भी जानते हैं। सरयू नदी के किनारे बसी इस जगह का इतिहास नदी से कई अधिक गहरा और गहन है। हिन्दुओं के अनुसार ये जगह भगवान राम की जन्मभूमि है। गरुड़ पुराण और रामचरित्रमानस में इस तथ्य का उल्लेख मिलता है। इसी शहर में मौजूद है सोलविं शताब्दी के मध्य में बनी बाबरी मस्जिद।
सरयू के तट पे बसा अयोध्या शहर
हिन्दू समुदाय के अनुसार प्रथम मुग़ल शासक बाबर ने 1525 में उत्तर भारत में कदम रखा और बक्सर की लड़ाई में इब्राहिम लोधी को हराने के बाद 1527 में चित्तौड़ के राजा राणा संग्राम सिंह को खानवा की लड़ाई में शिकस्त देकर पूरे क्षेत्र में अपना आधिपत्य जमा लिया।
उसने मीर बाक़ी को उस क्षेत्र का सूबेदार नियुक्त कर दिया और 1528 में मीर ने वहां बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया। मस्जिद के प्रवेश द्वार के पास से दो शिलालेख प्राप्त किये गए जिनमे फ़ारसी में लिखा हुआ था के इस मस्जिद का निर्माण मीर बाक़ी ने बाबर के कहने पर कराया था। हालाँकि बाबर की जीवनी बाबरनामा में इस मस्जिद के निर्माण का कोई उल्लेख नहीं मिलता मगर एक बात जो सकते में डालती है वह यह है के उस जीवनी में उस अवधि के सभी पन्ने फ़टे हुए हैं। हिन्दू समुदाय के अनुसार मस्जिद के निर्माण से पूर्व उस भूमि पर एक मंदिर था जिसे तोड़ने के पश्चात ही मस्जिद का निर्माण हुआ था मगर मुस्लिम समुदाय का कहना है के इस बात का कोई प्रमाण नहीं है. 1853 में पहली बार इस मुद्दे ने तूल पकड़ा और हिन्दू -मुस्लिम दंगो की शुरुआत हो गई।
बाबरी मस्जिद [विध्वंस के पूर्व]
निर्मोही आखाड़ा नामक एक हिन्दू समुदाय ने दावा किया के मस्जिद के स्थान पर मंदिर हुआ करता था और प्रशासन से मांग की के वहां मंदिर बनाने की अनुमति दी जाए। 1853 में शुरू हुआ ये मामला दो वर्षों तक चला जिसके पश्चात प्रशासन ने सभी प्रकार की पूजा पाठ पर रोक लगा दी। फैज़ाबाद जिला गजट 1905 के अनुसार 1855 तक दोनो समुदाय एक ही इमारत में इबादत या प्राथना किया करते थे मगर 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेज़ों ने मस्जिद के सामने एक बाहरी दिवार खड़ी कर दी और हिन्दुओं के अंदरूनी प्रांगण में जाने पर रोक लगा दी गई। दीवार के बाहर एक चबूतरे का निर्माण कराया गया [राम चबूतरा] और हिन्दुओं को वही प्राथना करने की हिदायत दी गई। यह कार्य कर अंग्रेज़ों ने एक बड़ा दांव खेला था वो जानते थे के उनके इस कृत्य से समस्या बढ़नी ही है। इतिहास एक बार और गवाही देता नज़र आया के जब-जब संसार में सरहदें बनी हैं अस्थिरता,लड़ाई,झगड़ा और आतंकवाद निसंदेह बड़ा है। 1883 से लेकर 1886 तक दोनों समुदायों के विभिन्न लोगों ने अनेक याचिकाएं दर्ज कराई मगर अदालत ने सभी को खारिज कर दिया।
1936 में ब्रिटिश सरकार ने यूपी मुस्लिम वाख्फ अधिनियम अधिनियमित किया ताकि राज्य की समस्त निषेध जागीरों की देख-रेख ठीक तरह से हो पाए। अधिनियम के मद्देनज़र मस्जिद और उसके पास मौजूद
गंज-ऐ-शाहेदन कब्रिस्तान को यूपी सुन्नी सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ वाखफ्स को दे दिया गया क्यूंकि बाबर सुन्नी था। शिया लोगों ने इसका जमकर विरोध किया क्यूंकि उनके अनुसार मस्जिद पर हक़ उनका है क्यूंकि मीर जिसने मस्जिद का निर्माण करवाया वो शिया था,दो समुदायों के बीच की लड़ाई अब समुदायों के अंदर भी शुरू हो चुकी थी। दिसंबर 1949 आज़ादी के दो वर्ष बाद अखिल भारतीय रामायण महासभा ने मस्जिद के बाहरी प्रांगण में नौ दिन की अखण्ड रामायण का आयोजन किया। इस कार्यक्रम के अंतिम दिन अर्थात २२ दिसंबर 1949 को 50 -60 लोग मस्जिद की दिवार कूद के उसके अंदर घुसे और वहां राम-सीता की प्रतिमाएं स्थापित कर दीं । इस घटना के बाद उन्होंने ये अफवाह फैला दी के मूर्तियां वहां जादू से प्रकट हुई हैं।
इस घटना के बाद मस्जिद को पूर्णतः बंद कर दिया गया और उस जगह को विवादित घोषित कर प्रवेश द्वार पर ताला डाल दिया गया।
बाबरी मस्जिद [विवादित घोषित किये जाने के बाद]
तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और गृहमंत्री वल्लभ भाई पटेल ने यूपी के मुख्य्मंत्री गोविन्द बल्लभ पंत और यूपी के गृहमंत्री लाल शास्त्री को आदेश दिए के उन मूर्तियों को मस्जिद से तुरंत निकलवाया जाय मगर फैज़ाबाद के डिप्टी कमिशनर केके नायर ने इस फैसले को नकार दिया क्योंकिं उन्हें डर था के इस फैसले से हिन्दू समुदाय भड़क जाएगा। इसके बाद एक बार फिर से याचिकाओं,अपीलों और मांगों का दौर शुरू हो गया। 1950 में गोपाल सिंह विशारद ने फैज़ाबाद जिला न्यायालय में एक याचिका दायर की जिसमे उन्होंने ये मांग रखी के भूमि पर हिन्दुओं को राम और सीता की पूजा करने की अनुमति दी जाए,निर्मोही अखाड़े ने भी 1959 में अदालत के सामने अपनी मांग रखी के उस भूमि को उन्हें दिया जाए,1961 में सुन्नी सेंट्रल वाख्फ बोर्ड ने अपील की के उन मूर्तियों को मस्जिद में से हटाया जाय। 1961 के बाद इस संघर्ष पर विराम लग गया कुछ वक्त के लिए ऐसा लगा के ये मामला हमेशा के लिए दब गया मगर सत्ता के भूखे कुछ लोगों को यह शान्ति रास नहीं आई. हिन्दू-मुस्लिम की इस लड़ाई को फिर से भड़काया गया और इसके पीछे थे वे लोग जो आजकल धर्म की राजनीति को गलत बताते नज़र आते हैं। अप्रैल 1984 में विश्व हिन्दू परिषद ने विवादित भूमि को हिन्दुओं के नाम करवाने के लिए एक अभियान चलाया जिसके तहत देशभर में रथयात्राएं निकाली गई। प्रथम यात्रा सितंबर-अक्टूबर 1984 में सिकामरहि से अयोध्या तक निकाली गई। अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के कारण इस अभियान को कुछ समय के लिए रोक दिया गया। २३ अक्टूबर 1985 को 25 जगहों से इस अभियान को एक बार फिर आरम्भ किया गया और इस बार कार्यकर्ताओं की संख्या पहले से कई अधिक थी। एक और विहिप का अभियान जारी था वहिं दूसरी ओर 25 जनवरी 1986 को 28 साल के एक स्थानीय वकील उमेश चंद्रा ने अदालत से अपील की के बाबरी मस्जिद प्रांगण में पूजा करने पर लगी रोक को हटाया जाय। इसके पश्चात राजीव गांधी के आदेश पर मस्जिद के प्रवेशद्वार दौबारा खोल दिए गए. राजीव गांधी को ये ज्ञात नहीं था के उनका ये फैसला भाविष्य में समस्त देश के लिए परेशानी का निमित बन जाएगा। इतिहासकारों का मानना है के राजीव गांधी ने ये फैसला राजनीतिक कारणों से लिया था. इस घटना के बाद उनकी कड़ी आलोचना हुई। हालात और अधिक बिगड़ गए जब 1989 के आम चुनाव से पहले विहिप को विवादित भूमि पर शिलान्यास करने के अनुमति मिल गई। भारतीय जानता पार्टी ,राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ और बजरंग दल भी अब यात्राओं में जुट गया। वर्तमान में गुजरात की गांधीनगर सीट से लोकसभा सांसद और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी 1990 में सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा आरम्भ की.
रथयात्रा के दौरान लालकृष्ण आडवाणी
पूरे देश में इस आंदोलन का असर देखने को मिल रहा था लाखों की संख्या में बजरंग दाल ,विहिप,आरएसएस और बीजेपी के कार्यकर्ता इस अभियान में शामिल हो रहे थे देश के कोने कोने से रथयात्राएं निकल रहीं थी।
6 दिसंबर 1992 को विहिप,बीजेपी और आरएसएस के 1,50,000 से अधिक नेता और कार्यकर्ता अयोध्या में प्राथना करने के लिए एकत्रित हुए और न्यायालय के फैसले के विरुद्ध जाकर 1,50,000 से अधिक करसेवकों ने पलक झपकते ही मस्जिद को ध्वस्त कर दिया. इस घटना के बाद पूरा देश जल उठा दंगे-फसाद हुए,मार-काट मची और वो सबकुछ हुआ जो देश में अस्थिरता फैलाने के लिए काफि था। दंगो में 2000 से अधिक लोगों की मौत हो गई अकेले मुंबई शहर में ही 900 मौतें हुई सांप्रदायिक दंगों ने पूरे देश को दहशत में डाल दिया,कहने को तो केवल बाबरी मस्जिद गिराई गई थी मगर विध्वंस पूरे राष्ट्र का हुआ था.
मस्जिद को ध्वस्त करते करसेवक
इस घटना का असर भारत में ही नहीं वरन कुछ पड़ोसी देशों पर भी हुआ। सबकुछ सामान्य होता उससे पहले ही इंडियन मुजाहिद्दीन नामक एक आतंकी संगठन ने देश में हमले कर दिए और हालात बत से बत्तर हो गए। इस पूरे मामले की जांच के लिए सरकार ने एक कमेटी का गठन किया जिसका नाम था लिबरहान कमीशन। जांच में मिले सबूतों के आधार पर कमेटी ने 68 लोगों को इस विध्वंस का आरोपी बनाया जिसमे बीजेपी,आरएसएस और विहिप के वरिष्ठ नेता शामिल थे उन नेताओं में कई जाने-माने नाम भी सामने आए जैसे वरिष्ठ नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपई , तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी और मुख्य्मंत्री कल्याण सिंह। इन पर आरोप लगाया गया के इस घटना की जानकारी इन्हे पहले से ही थी। 2003 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भारतीय पुरातत्व विभाग को आदेश दिया के वे मस्जिद एवं उसके आसपास के इलाके की जांच करें और पता लगाए के क्या कभी उस भूमि पर कोई मंदिर था? 6 महीनो की जांच-पड़ताल और खोज के बाद एएसआई ने न्यायालय के समक्ष अपनी जांच रिपोर्ट पेश की जिसके अनुसार ये तथ्य सामने आया के दसवीं शताब्दी में उस जगह पर एक मंदिर का निर्माण हुआ था। आल इंडिया मुस्लिम परस्नल लॉ बोर्ड ने पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट को गलत और निराधार बताते हुए उसका खंडन कर दिया। 1853 में शुरू हुए इस मसले पर 2010 में फैसला आया,30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की बेंच ने अपना फैसला सुनाया जिसके अनुसार विवादित स्थान की कुल भूमि [2.77 एकड़ ] को तीन हिस्सों में बांटा गया और फिर तीनो संगठनों[ हिन्दू महासभा ,निर्मोही अखाड़ा और इस्लामिक सुन्नी वाख्फ् बोर्ड ] को ज़मीन का एक तिहाई हिस्सा दे दिया गया। आश्चर्य ही नहीं अपितु दुःख भी होता है यह जानकर के इतना खून- ख़राबा उस ईश्वर को रंचमात्र ज़मीन दिलवाने के लिए हुआ जो के इस सम्पूर्ण विश्व का मालिक है। फैसला आए 5 वर्ष से अधिक हो गए हैं मगर आज भी वो भूमी एक विवादास्पद स्थान से अधिक और कुछ नहीं है. हाल ही में उज्जैन में आस्था का महाकुंभ सिहंस्थ 2016 समाप्त हुआ है,यहां भी देश की सभी समस्याओं को अलग रख राम मंदिर के निर्माण के विषय में बातचीत हुई है। ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने अपने बयान में कहा के राम मंदिर बनाना उनका काम है न के सरकार का और वे इस कृत्य को अंजाम अवश्य देंगे। प्रसिद्द इतिहासकार किशोर कुणाल की किताब अयोध्या रीविसिटेड में मौजूद तथ्य उन लोगों के पक्ष में कतई नहीं हैं जो अयोध्या की उस भूमी पर राम मंदिर को देखना चाहते हैं क्यूंकि इस किताब में लिखी बातें हिलाकर रख देने वाली हैं ,किताब के अनुसार मस्जिद के निर्माण से या मंदिर के विध्वंस से बाबर का कोई संबंध नहीं था और प्रवेशद्वार के पास मिले शिलालेख झूठे व् नकली थे।
इतिहासकार किशोर कुणाल और उनकी लिखी किताब अयोध्या रीविसिटेड
बाबरी मस्जिद विध्वंस इतिहास के उन काले पन्नो में दर्ज है जिनके कारण आज भी लोगों के सर पर साम्प्रदायिकता के काले बादल छाय हुए हैं। आखिर क्यों चाहिए हिन्दुओं को एक और मंदिर ?
आखिर किस लिए चाहिए मुस्लिमो को एक और मस्जिद ? क्या राम ने आदेश दिया है तुम्हे? या रहीम ने फरमान जारी किया है? इन सवालों के उत्तर शायद ही किसी के पास हों।
सच ही कहता है कोई के एक गरीब बच्चे को देख मैंने उससे माफ़ी मांगते हुए कहा के 'हम तेरी कोई मदद नहीं कर सकते अभी हमे और मंदिर-मस्जिद बनवाना है। जब भी कभी इस मसले पर विचार करता हूँ तो अदम गोंडवी साहब की कुछ पंक्तियाँ याद आ जाती हैं।
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेड़िए
हममे कोई हूण,कोई शक,कोई मंगोल है
दफन है जो बात अब उस बात को मत छेड़िए
गलतियां बाबर की थी ,जुम्मन का घर फिर क्यूँ जले
ऐसे नाज़ुक वक्त में हालात को मत छेड़िए
छेड़िए एक जंग मिल जुलकर गरीबी के खिलाफ
दोस्त मेरी मजहबी नगमात को मत छेड़िए
बहरहाल इस मुद्दे पर कोई सख्त फैसला अभी तक तो नहीं आया है मगर हो सकता है जल्द आए शायद क़यामत के दिन!
यह लेख राइज़िंग लिटेरा मैगज़ीन के जुलाई 2016 अंक में "अतीत के पन्नों" से नामक कॉलम में छापा गया।
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