यह कविता पूर्णतः कल्पनाओं के आधार पर लिखी गई है।
मैं आपको आश्वासन देता हूँ के इसका सार्थक अर्थ समझना अधिक कठिन नहीं होगा।
याद रहे के यह कविता किसी उद्देश्य के पूर्ती के लिए नहीं है ये मात्र मेरे विचार हैं जो क्षितिज या फलक को देखने के बाद मेरे ज़हन में उभरे हैं। क्षितिज मेरे लिए मेरी तमाम रचनाओं का मसदर है और कई नज़्मों की तरह यह भी उसी के लिए है।
मैं सोचता हूँ पार क्षितिज के,
कुछ न कुछ तो होगा।
एक कबीरा उस तरफ भी,
विचार कर रहा होगा।।
एक नदी जो उस तरफ से,
इस तरफ आती है।
शायद! वही जो इस तरफ से,
उस तरफ जाती है।।
उस तरफ से जो फ़िज़ाएँ
मुझ तलक आती हैं।
शायद! वही जो इस तरफ से,
उस तरफ जाती हैं।।
उस तरफ जहाँ नदी है और,
और हवा भी, मशकूक है!
पास आता है नज़र,
ज़द में नहीं है, दूर है।।
उस तरफ की जीस्त का भी,
कोई आकार तो होगा।
एक कबीरा उस तरफ भी,
विचार कर रहा होगा।।
मानसून के अब्र उस तरफ,
विश्राम को रुके हैं।
इस जानिब जो आ रहे हैं।
आराम कर चुके हैं।।
सरहदों से सरहदों तक,
इंद्रधनुष जाता है।
कुछ ही पल में,
उस तरफ से इस तरफ आता है।।
जब यहां हम अन्धकार की,
चादर ओढ़े होते हैं।
आफ़ताब के दर्शन को सबने,
वहाँ हाथ जोड़े होते हैं।
इस तरफ तो मानसिकता,
क्षीण हो रही है।
उस तरफ मैं सोचता हूँ,
विस्तार हो रहा होगा
एक कबीरा उस तरफ भी,
विचार कर रहा होगा।।
हाँ! फ़लक के उस तरफ भी
कुछ असरार तो होंगे..
कुछ अनोखा होगा।
एक कबीरा उस तरफ भी,
विचार कर रहा होगा।।
वो संसार मेरी कल्पना है।
ये भी किसी की होगा..
कोई उस तरफ से, इस तरफ का
दीदार कर रहा होगा।।
एक कबीरा उस तरफ भी,
विचार कर रहा होगा।
बहकर नदी में या तैर हवा में...
जाना है मुझको उस तरफ।
बादलों के साथ या फिर,
इंद्रधनुष को लांघकर,
जाना है मुझको उस तरफ।।
मैं कबीरा से मिलूंगा,
अपनी कल्पना से मिलूंगा।
कबीरा फिर मुझसे मिलेगा,
अपनी सर्जना से मिलेगा।।
जो दो तसव्वुर साथ आए,
तो क्या विचार होगा!,
क्या शाहकार होगा!
एक कबीरा उस तरफ़ भी,
विचार कर रहा होगा।।
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