Sunday, 3 April 2016

तू क्यूँ गंभीर है?


तेरी बस्ती में ज़िन्दगी
बसती तो है।
जीता नहीं तू तो
बस कटती ही है।।

तेरी हँसी पर कसी
क्यूँ ये ज़ंजीर है।
हर दम, हर पल
तू क्यूँ गंभीर है।।

नफरत को लेकर
क्यूँ चलता है तू।
गुस्से की आग
में क्यूँ जलता है तू।।

ये खुशियाँ ये मस्ती
तेरी जागीर हैं।
हर दम, हर पल
तू क्यूँ गंभीर है।।

ठंडी बारिश जो करदे
वो बादल तू बन।
कभी-कभी जीवन में
थोड़ा पागल तू बन।।

रंगों से भर देना इसे
ये जीवन रंगीन तस्वीर है।
हर दम, हर पल
तू क्यूँ गंभीर है।।

इस दुनिया में तू कुछ ऐसे बसा
मंज़िल को पाने की जल्दी
में दोस्त मुसाफिरी का मज़ा
तू ले न सका।

मील के पत्थर छोड़े थे तू ने
आज मंज़िल पे बेठा कच्चा मुसाफिर है।
हर पल, हर दम
तू क्यूँ गंभीर है।।

तेरी मंशाओं के कारण।
तू रंजिशों से घिर रहा।।
तेरी झूटी शान का मकान।
जर-जर हो कर गिर रहा।।

तेरी बेताब सी पलक।
देखें वो सूंदर सा फलक।।
जीवन की गोद में मुस्काता रह।
क्योंकि मौत सबका नसीब है।
हर पल,हर दम
तू क्यूँ गंभीर है।।

धीरे धीरे ही सही
तू अपनी राह चलता जा।
जीवंत इस शतरंज में
चालें अपनी चलता जा।।

आज तू प्यादा सही
पर कल का तू वज़ीर है।
हर पल,हर दम
तू क्यूँ गंभीर है।।

यह कविता रेसुरगम(राइज़िंग लिटेरा ग्रुप की मासिक पत्रिका) के अप्रैल 2016 अंक में प्रकाशित की गई।
इस लिंक पर मौजूद-

https://www.docdroid.net/QzEjkYW/resurgam-april-2016.pdf.html

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