Thursday, 4 February 2016

एक दीवाना था।



इतिहास
, वह शब्द जिसकी ध्वनि मात्र ही पूरे शरीर में एक अद्भुत भाव का संचार कर देती है,मन रोमांच से भर उठता है लगता है मानो कोई अनहद,अमाप समंदर हमे अपनी और बुला रहा हो,हमे आमंत्रित कर रहा हो के आओ और जानो मेरी गहराई को मेरी गहनता को। इतिहास का अध्ययन एक सुगम अनुभव है, अनुभव राजाओं के शौर्य का,अनुभव बुद्धिजीविओं के विवेक का,अनुभव इमारतों और किलों की भव्यता का,अनुभव क्रांतिकारियों की शहादत का,अनुभव तानाशाहों की क्रूरता का, अनुभव राजनीतिज्ञों की कूटनीति का।इतिहास उन सभी घटनाओं,प्रसंगों और लोगों का समावेश है जो अक्लान्त हैं और उनके चर्चे,उनकी बातें अनवरत चलती रहती हैं।इंदिरा गांधी को लिखे अपने अंतिम पत्र में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू स्पष्ट रूप से इतिहास को परिभाषित करते हैं,वो कहते हैं के-"हिस्ट्री इज नॉट ए मैजिक शो बट देअर इज प्लेंटी ऑफ मैजिक इन इट फॉर दोज़ हु हैव आइज़ टु सी" आज की स्थिति को देखने के उपरांत मैं सिर्फ इतना कहुंगा के आज के समय में इंसान अपने भविष्य को तलाशने में कुछ अधिक व्यस्त हैं वरना राज़ तो इतिहास के पास भी बहुत हैं। मेरा मानना है के लोगों के मन में इतिहास के प्रति एक बड़ी ही संकीर्ण धारणा है जिसका विस्तार करना अत्यधिक आवश्यक है। मुझे स्वयं तारीखों से कोई अधिक मोह नहीं मगर इसका मतलब ये तो नहीं के मैं इतिहास के सभी पहलुओं से मुँह मोड़ लूँ। तो आइये चलते हैं इतिहास के सफ़र पर जहां हर कदम पर रोमांच आपका इंतज़ार कर रहा है। वर्तमान समय में जब भी प्यार शब्द का इस्तेमाल होता है तो लोगों का मन सीधे एक लड़के और एक लड़की के बीच के संबंधो के विषय में सोचने लगता है परंतु असल में प्यार या प्रेम किसी लिंग का मोहताज नहीं होता प्यार प्रकृति से हो सकता है जैसा विलियम वर्ड्सवर्थ को हुआ था,प्यार आध्यात्म से हो सकता है जैसा स्वामी विवेकानंद को हुआ था,प्यार विज्ञान से हो सकता है जैसा एपीजे अब्दुल कलाम को हुआ था और प्यार अपने देश,अपनी मातृभूमि से भी हो सकता है जैसा वीर भगत सिंह को हुआ था. 
जी हाँ मेरे समझदार पाठकों आप सही समझे हम अपने सफ़र की शुरुआत उसी दीवाने को जानकार करेंगे जिसने अपने देश,अपनी मातृभूमि के लिए अपना सब कुछ त्याग दिया था।

भारत के वीर सपूत शहीद भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को नाहरसा गांव जारांवाला तहसील पंजाब में हुआ था आज ये जगह पाकिस्तान में स्थित है। उनके पिता का नाम किशन सिंह और उनकी माता का नाम विद्यावती कौर था। वो एक सिक्ख परिवार से थे और उनके पिता से लेकर उनके दादा तक सभी स्वतंत्रता सेनानी थे,अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह की भावना उन्हें विरासत में मिली थी।उनकी दादी ने उनका नाम भागा वाला रखा था जिसका अर्थ होता है अच्छे भाग्य वाला वास्तव में ये बच्चा आगे चलकर देश के लिए बड़ा भाग्यशाली सिद्ध हुआ,जिसने मात्र 23 साल के अपने जीवनकाल में ही पुरे देश में अपना अस्तित्व स्थापित कर अंग्रेज़ सरकार की नींद उड़ा दी थी। उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा दयानंद एंग्लो वैदिक स्कूल से पूरी की जो आर्य समाज की एक संस्था थी। 1919 में जब अमृतसर में जलियांवाला बाघ नरसहांर हुआ तब भगत मात्र 12 साल के थे और इस घटना ने उनके नाज़ुक से दिल को गहरी चोट पहुंचाई थी,विद्रोह का वो बीज जो आगे चलकर एक विशाल वृक्ष बनने वाला था बोया जा चुका था।

भगत सिंह गांधी जी की अहिंसावादी विचारधारा से बिलकुल सहमत नही थे,आज हमारे देश के कुछ बुद्धिजीवि जो बात कह रहे हैं वो इस वीर क्रान्तिकारी ने वर्षों पूर्व ही कह दी थी उनका मानना था के इस तरीके से हमे आज़ादी तो मिलेगी ये अत्याचारी तो चले जाएंगे मगर अत्याचार बना रहेगा ये नहीं तो कोई और इनकी जगह ले लेगा। हुआ यूँ था के गांधी जी ने 1920 में असहयोंग आंदोलन की शुरुआत की जिससे प्रभावित होकर भगत सिंह भी उनके साथ जुड़ गए मागर आंदोलन के दौरान चोरी-चौरा में  पुलिस और विद्रोहियों के बीच मुठभेड़ हो गई जिसमे 3 विद्रोहियों और 22 पुलिस वालों कि जाने चली गई गांधी जी को लगा के इस घटना से उनकी अहिंसावादी विचारधारा का विनाश हो जाएगा इसीलिए1922 में उन्होंने इस आंदोलन को बंद कर दिया गांधी जी का ये फैसला भगत को रास नहीं आया और वे हताश हो गए। इस घटना के बाद से हमारे स्वतंत्रता सेनानी दो भागों में बट गए मकसद एक था मगर मार्ग अलग-अलग,सोच अलग-अलग बस उस वक़्त संविधान न होने के कारण अभिव्यक्ति का अधिकार कुछ ही लोगों के पास था वो लोग कौन थे ये आप जैसे समझदार समझ चुके होंगे।

भगत ने मार्च 1926 में "नौजवान भारत सभा" की स्थापना की और चंद्रशेखर आज़ाद,राम प्रसाद बिस्मिल और शहीद अशफ़ाक़ुल्लाह खान के नेतृत्व वाले संगठन "हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन" के साथ भी जुड़ गए। परिवार द्वारा रचाई गई उनकी शादी से बचने के लिए 1927 में वे घर से भाग गए और कानपुर चले गए।
परिवार को लिखे अपने पत्र में उन्होंने कहा था के -

"मुझे अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य साफ़ नज़र आ रहा है वो है अपनी मातृभूमि को आज़ाद कराना और ये आज़ादी ही मेरी दुल्हन है इसके अलावा और कोई विचार न मेरे मन में आता है और न ही कोई पैदा कर सकता है।"

भगत सिंह हिंदी,अंग्रेज़ी और पंजाबी के अलावा उर्दू और बंगाली भी जानते थे उन्होने कीर्ति नामक एक अखबार के लिए बहुत समय तक लिखा,"कीर्ति" कीर्ति किसान पार्टी(workers and peasants party) का एक जाना-माना अखबार था। उन्होंने कई बार "वीर अर्जुन" नामक एक अखबार के लिए भी लिखा। अपने लेखों के साथ वे अक्सर नकली नामो का इस्तेमाल किया करते थे जैसे- रणजीत,बलवंत और विद्रोही। लेखक होने के साथ-साथ वे एक अच्छे कवी भी थे। फांसी से पूर्व 3 मार्च 1931 को अपने भाई कुलतार को उन्होंने एक जोशीला और रोंटे खड़े कर देना वाला पत्र लिखा जिसमे लिखा था-

"उन्हें ये फ़िक्र है हरदम,नई तर्ज़ ऐ ज़फ़ा क्या है
हमे ये शोक है देखें सितम की इंतहा क्या है
दहर से क्यों खफा रहें,चर्ख का क्या गिला करें
सारा शहर अदु सही,आओ मुकाबला करें"

भगत के असल विद्रोह की शुरुआत 1928 से हुई इसी वर्ष "साइमन कमिशन" भारत आया जिसका काम था भारत में हो रही राजनैतिक गतिविधियों की जांच करना व उसे इंग्लैंड प्रशासन तक पहुँचाना कुछ भारतीय राजनैतिक दलों ने इसका जमकर विरोध किया क्योंकि इसमें एक भी भारतीय अधिकारी नही था। जब ये कमिशन 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर पहुँचा तो वहां लाला लाजपत राय के नेतृत्व में लोगों ने इसका भारी विरोध किया। जब विरोधी काबु में नहीं आए तो पुलिस सुपरिटेंडेंट जेम्स ऐ स्कॉट ने लाठीचार्ज के आदेश दे दिए। इस लाठीचार्ज के दौरान लाला लाजपत राय बुरि तरह घायल हो गए और 17 नवंबर 1928 को दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई। "एच एस आर ऐ" ने लाला की मौत का बदला लेने का फैसला किया। भगत सिंह,शिवराम राजगुरु,सुखदेव थापर और चंद्रशेखर आज़ाद ने स्कॉट को मार गिराने का षड्यंत्र रचा मगर भूलवश स्कॉट की जगह उन्होंने 17 दिसंबर 1928 को लाहौर में पुलिस सुपरिटेंडेंट जॉन पि सॉन्डर्स की हत्या कर दी। इस घटना के बाद एच एस आर आर की तरफ से एक पेम्पलेट जारी की गई जिस पर बलदेव(चंद्रशेखर आज़ाद का नकली नाम) का साइन था जिसमे लिखा था के -

"जॉन पि सॉण्डर्स की हत्या कर दी गई और लाला की मौत का बदला ले लिया गया ये सबूत है उन सभी के लिए जो सोचते है के हिंदुस्तानी कमज़ोर हैं वो लोग याद रखें के हम युवाओं का खून अब भी गरम है,ठंडा नहीं पड़ गया है जो भी हम भारतियों की हिम्मत की परीक्षा लेगा उसे इसी रूप में जवाब मिलेगा"

जहां एक और ब्रिटिश पुलिस भगत और उनके बाकि साथियों को पकड़ने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा रही थी वहीं दूसरी और भगत और उनके साथी अगले हमले की योजना बना रहे थे। भगत ने एक फ्रेंच विद्रोही "ऑगस्ट वैलांट" के कारनामे से प्रभावित हो कर "सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली" में बम धमाके करने की योजना बनाई।
एसा करके वे "पब्लिक सेफ्टी बिल" और "ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट" के खिलाफ अपना विद्रोह दर्ज़ कराना चाहते थे। इसके अलावा इस हमले का मकसद पूरे देश में विद्रोह की आग को भड़का देना था। सब कुछ तय होने के बाद 8 अप्रैल 1929 को भगत ने बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर चलती संसद में 2 बम फैंके। धमाके के बाद उठा धुंआ इतना घना था के वो आराम से भाग सकते थे मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया और वहीं खड़े रह कर ज़ोर ज़ोर से नारे लगाने लगे "इंकलाब ज़िंदाबाद,इंकलाब ज़िंदाबाद"(long live the revolution) क्योंकि दुनिया ये भले न पूछे के आप जीते या हारे मगर ये ज़रूर पूछेगी के आपने गोली पीठ पर खाई थी या सीने पर,आख़िरकार ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया,गिरफ्तारी के बाद उन्हें दिल्ली जेल में बंद कर दिया गया।

भगत और दत्त जेल में थे इसी बीच 15 अप्रैल 1929 को ब्रिटिश पुलिस ने "एच एस आर ऐ" द्वारा स्थापित की गई लाहौर बम फैक्टरी को खोज निकाला जिसके फलस्वरूप सुखदेव,किशोरीलाल,राजगुरु और जय गोपाल को भी हिरासत में ले लिया गया। सिंह को कुछ ही दिनों में दिल्ली जेल से निकालकर सेंट्रल जेल,मैनवाली भेज दिया गया वहां उन्होंने देखा के जेल में बंद भारतीय कैदियों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। जेल प्रशासन की इस क्रूरता से निज़ात पाने के लिए इस विद्रोही ने एक और विरोध का ऐलान कर दिया इस बार सिंह बाकि कैदियों के साथ भूख हड़ताल पर बैठ गए। हड़ताल तुड़वाने के लिए जेल प्रशासन ने बहुत सारे हतकंडे अपनाए मगर आज़ादी के भूखे इन क्रांतिकारियों की हिम्मत को नहीं तोड़ सके।

इस हड़ताल की प्रसिद्धि को देखते हुए तत्कालीन वाइसराय लार्ड इरविन ने सॉन्डर्स हत्याकांड मामले की सुनवाई को जल्द से जल्द शुरू करने के आदेश दे दिए। सिंह को लाहौर की बारस्टाल जेल भेज दिया गया और 10 जुलाई 1929 को अदालत की कार्यवाही शुरू हो गई। भगत का वजन भूख हड़ताल के कारण 60 किलो से 53 किलो हो गया था वे इस कदर कमज़ोर पड़ चुके थे की उन्हें स्ट्रेचर पर कोर्ट में ले जाया गया।

कांग्रेस के एक प्रस्ताव पर ध्यान देते हुए और अपने पिता की दरखवास्त पर उन्होंने पुरे 116 दिन के बाद 5 अक्टूबर 1929 को अपनी भूख हड़ताल तोड़ दी। 7 अक्टूबर 1930 को न्यायलय ने अपना 300 पेज के फैसला सुनाया जिसके तहत भगत सिंह,राजगुरु थापर और शिवराम राजगुरु को फांसी की सज़ा सुनाई गई।

उनकी फांसी रुकवाने के लिए विभिन्न संस्थाओं व् विभिन्न व्यक्तियों द्वारा कई अपीलें की गई मगर फांसी नहीं रुकी,अंग्रेज़ो की नज़र में ये सब कुछ उनके अनुसार हो रहा था मगर वो नासमझ उस वीर क्रांतिकारी की क्रान्तिपूर्ण और गहरी सोच को नहीं समझ सके असल में असेंबली में बम फोड़े जाने से लेकर फांसी का फैसला आने तक का सारा काम भगत की योजना के अनुसार हुआ था। उन्होंने अपनी फांसी माफ़ करवाने के लिए कोई अपील नहीं की क्योंकि वे,राजगुरु और सुखदेव चाहते थे की उनकी मौत से पुरे देश के युवाओं में विद्रोह की लहरें उठने लगेंगी और उस युवा लहर का सामना करना अंग्रेजों के लिए असंभव हो जाएगा। भगत और उनके साथियों को 24 मार्च 1931 को फांसी दी जानी थी मगर विद्रोह के भय से 11 घंटे पेहले यानि 23 मार्च 1931 को शाम 7:30 बजे लाहौर जेल में भगत सिंह,राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गई कहा जाता है के कोई भी मजिस्ट्रेट फांसी के दौरान मौजूद नही था जो कानून के खिलाफ है। तीनो की मृत्यु हो जाने के बाद जेल प्रशासन और पुलिस ने रात के अँधेरे में किसी को बिना कुछ बताय फिरोज़पुर से 10 किलोमीटर दूर स्थित गंडासिंहवाला गांव में उनका दाह संस्कार कर दिया और उनकी अस्थियां सतलुज नदी में डाल दीं। मौके पर मौजूद लोगों के अनुसार फांसी के लिए जाते वक़्त तीनो के चेहरे पर एक चमक थी तीनो हँसते हुए गा रहे थे- "मेरा रंग दे बसंती चोला मेरा रंग दे बसंती चोला" वास्तव में इस घटना का वर्णन करते वक़्त मेरे रोंटे खड़े हो गए थे,मेरी आँखों में आंसू थे और मेरा मन ग्लानि से भर चुका था ,इन महान क्रांतिवीरों के चरणों में मैं नतमस्तक हो चुका था। सिंह जा चुके थे मगर जैसा की वे कहा करते थे वो भले ही नही थे मगर उनके विचार ज़िंदा थे। भगत सिंह ने अपने आखिरी पत्र में लिखा था -

"मुझे एक जंग लड़ते हुए गिरफ्तार किया गया है,मुझे अपने कामो का कोई पछतावा नहीं है,मुझे तौब से उड़ा दिया जाए" उनके इस आखिरी पत्र में साफ देखा जा सकता है के वो अपनी मातृभूमि से इस कदर प्यार करते थे के उन्हें ज़रा सा भी भय नही था।

अपनी धरती के लिए अपने प्रेम को वे कुछ इस तरह पेश करते थे -

"ये देश ही तो है जो मुझे कुछ कर जाने के ख्वाब दिखाता है।
और इस कदर वाखिफ है मेरी कलम मुझसे
के में इश्क़ भी लिखना चाहूँ तो इंकलाब लिखा जाता है।।"

उनकी इस वीरता को पुरे देश ने सराहा आज भी उनके सम्मान में कई सारे स्मारक और स्तम्भ देश भर में स्थापित हैं,उनका पुश्तैनी घर  खत्कर कालन जिला नवांशहर में है जिसका नाम शहीद भगत सिंह नगर रख दिया गया है। आज ये जगह पंजाब में स्थित है। जब कभी भी किसी युवा के मन में किसी गलत कृत्य के प्रति विद्रोह का भाव उत्पन्न होता है या देश के लिए कुछ कर दिखाने का जज्बा पैदा होता है तो उसके मन में शहीद भगत सिंह का नाम अवश्य आता है,भगत का नाम केवल इतिहास के पन्नों में ही नहीं बल्कि लोगों के दिल में भी सुनहरे अक्षरों में मौजूद है। माना के दुनिया ओपनर से ज़्यादा तबज्जो फिनिशर को देती है मगर स्मरण रहे "मेन ऑफ़ दी मैच" का अवार्ड उसे नहीं मिलता जो लंबा खेलता है अपितु उसे मिलता है जो कम समय तक ही सही मगर गज़ब खेलता है और टीम के लिए कुछ कर जाता है।



समझने की उम्र में
,बहुत कुछ समझा गया। 
धमकने की उम्र में बहुतों को धमका गया।। नायक थाविद्रोही था।वीरबहादुर वो ही था।। क्रांति उसकी घोड़ी थी। सर पर हिम्मत रुपी सेहरा था।। मातृभूमि दुल्हन थी उसकी। और मन में प्यार गहरा था।। घर बार को वो भूल गया। सबकुछ अपना लुटा गया।। और शांत पड़े युवाओं में वो। इंकलाब की लहरें उठा गया।। सोचता हूँ जब उनके शरीर में  आखिरी हरकत हो रही होगी, तो घुट-घुट कर धरती माँ भी अपने बेटों के लिए रो रही होगी।। क्रांतिकारी वीर सपूत था। जिसका नाम जाना माना था।। राँझा नही था,मजनू नही था। मगर हाँ, एक शूरवीर दीवाना था।।
ये लेख राइज़िंग लिटेरा ग्रुप की मासिक पत्रिका रेसुरगम के जून 2016 अंक में एक कॉलम के रूप में प्राकाशित किया गया। इस लिंक पर उपलब्ध - https://www.smashwords.com/books/view/646619

Keep Visiting!

3 comments:

पूरे चाँद की Admirer || हिन्दी कहानी।

हम दोनों पहली बार मिल रहे थे। इससे पहले तक व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम पर बातचीत होती रही थी। हमारे बीच हुआ हर ऑनलाइन संवाद किसी न किसी मक़सद स...