"स्वामी विवेकानंद", जन्म बारह जनवरी 1863. अंत, हुआ ही नहीं, ना कभी होगा.
- स्वयं
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता के बारह जनवरी 1863 की उस रोज़ कलकत्ता में अनेक बालकों एवं बालिकाओं का जन्म हुआ होगा मगर आज ये लेख सिर्फ स्वामीजी पर लिखा जा रहा है. क्यों?, सबसे साधारण एवं स्पष्ट उत्तर तो ये होगा के "क्योंकि कोई अन्य उनकी तरह लोकप्रिय एवं विवेकशील हुआ ही नहीं था", मगर इस उत्तर से मैं संतोष कर पाऊं इससे पहले ही एक और "क्यों?" मेरे समक्ष आकर खड़ा हो जाता है. सवालों का ये चक्रव्यूह बड़ा ही गहन एवं प्रगाड़ है और शायद अनवरत भी. बहरहाल आज का हमारा चर्चा का विषय ये नहीं.
स्वामीजी के विशाल, अमाप सागर समान साहित्य को पढ़कर एवं उनसे जुड़ी कहानियों को जानकर अक्सर यह अनुमान लगाया जाता है के वे जन्म से ही सन्यासियों के समान शांत एवं गंभीर रहे होंगे. परन्तु यह अनुमान मात्र अनुमान के सिवा और कुछ नहीं. स्वामीजी बचपन के दिनों में इतने शैतान हुआ करते थे उनकी माँ स्वयं उन्हें शैतान कहकर पुकारती थीं, वे एक जगह स्थिर नहीं रह पाते थे. सदेव उधम मचाना उनका शौक था हालाँकि उनकी इन हरकतों से यह स्पष्ट था के उनके भीतर असीम ऊर्जा का एक ऐसा महाबवंडर था जिसकी शक्ति का शंखनाद समस्त विश्व में बजना था. बचपन में नरेन् एवं बिले नाम से उत्पात मचाने वाले नरेन्द्रनाथ दत्त आगे चलकर स्वामी विवेकानंद कहलाए. उनके विवेकानंद कहलाने के पीछे भी एक कथा निहित है जिसपर से पर्दा हम इस लेख में ही कहीं गिराएंगे.
गौरतलब है के अपने जीवन के शुरुआती कालखंड में ही स्वामीजी में साधू-महात्माओं के प्रति लगाव को उनके परिचितों ने महसूस कर लिया था. कथाएँ बतलाती हैं के किस तरह महात्माओं के घर पधारने पर नन्हा बिले हाथ में आई कोई भी कीमती चीज़ उठाकर उन्हें दे दिया करता था. भारतीय इतिहास, भूगोल, साहित्य एवं धर्म और हिंदू देवी-देवताओं से जुड़ी बातों में उनकी गहरी रुचि थी. इन सभी विषयों का अध्ययन करते हुए ही स्वामीजी के ज़हन में इश्वर प्राप्ति की तीव्र उत्कंठा जागृत हुई होगी. इश्वर तक पहुँचने के लिए स्वामीजी ने कई साधु,महात्माओं, गुरुओं एवं सन्यासियों से मिलना-जुलना आरम्भ कर दिया मगर जल्द उन्हें इस बात का आभास हुआ के जिन लोगों के माध्यम से वे उस अलोकिक ऊर्जा के दर्शन करना चाहते हैं वे स्वयं ही अंधे हैं.
When he was a Teenager |
स्वामीजी के विशाल, अमाप सागर समान साहित्य को पढ़कर एवं उनसे जुड़ी कहानियों को जानकर अक्सर यह अनुमान लगाया जाता है के वे जन्म से ही सन्यासियों के समान शांत एवं गंभीर रहे होंगे. परन्तु यह अनुमान मात्र अनुमान के सिवा और कुछ नहीं. स्वामीजी बचपन के दिनों में इतने शैतान हुआ करते थे उनकी माँ स्वयं उन्हें शैतान कहकर पुकारती थीं, वे एक जगह स्थिर नहीं रह पाते थे. सदेव उधम मचाना उनका शौक था हालाँकि उनकी इन हरकतों से यह स्पष्ट था के उनके भीतर असीम ऊर्जा का एक ऐसा महाबवंडर था जिसकी शक्ति का शंखनाद समस्त विश्व में बजना था. बचपन में नरेन् एवं बिले नाम से उत्पात मचाने वाले नरेन्द्रनाथ दत्त आगे चलकर स्वामी विवेकानंद कहलाए. उनके विवेकानंद कहलाने के पीछे भी एक कथा निहित है जिसपर से पर्दा हम इस लेख में ही कहीं गिराएंगे.
गौरतलब है के अपने जीवन के शुरुआती कालखंड में ही स्वामीजी में साधू-महात्माओं के प्रति लगाव को उनके परिचितों ने महसूस कर लिया था. कथाएँ बतलाती हैं के किस तरह महात्माओं के घर पधारने पर नन्हा बिले हाथ में आई कोई भी कीमती चीज़ उठाकर उन्हें दे दिया करता था. भारतीय इतिहास, भूगोल, साहित्य एवं धर्म और हिंदू देवी-देवताओं से जुड़ी बातों में उनकी गहरी रुचि थी. इन सभी विषयों का अध्ययन करते हुए ही स्वामीजी के ज़हन में इश्वर प्राप्ति की तीव्र उत्कंठा जागृत हुई होगी. इश्वर तक पहुँचने के लिए स्वामीजी ने कई साधु,महात्माओं, गुरुओं एवं सन्यासियों से मिलना-जुलना आरम्भ कर दिया मगर जल्द उन्हें इस बात का आभास हुआ के जिन लोगों के माध्यम से वे उस अलोकिक ऊर्जा के दर्शन करना चाहते हैं वे स्वयं ही अंधे हैं.
Ramkrishna paramhansa |
इश्वर प्राप्ति को व्याकुल नरेन् को सार्थक मार्ग प्रदान करने का काम रामकृष्ण परमहंस ने किया. हुआ यूँ के एक प्रखर गायक एवं संगीत प्रेमी होने के कारण स्वामीजी के एक परिचित ने उन्हें अपने घर पर भजन गाने का निमंत्रण दिया. विवेकानंद जब वहाँ पहुंचे और अपने मधुर कंठ से भजन गाना आरम्भ किया तो श्रोताओं में बैठे एक पुरुष की आँखों से आकास्मत ही अश्रु छलक उठे. इश्वर के एक अंश ने दूसरे को एक नज़र में ही पहचान लिया. भजन खत्म होने के पश्चात् गुरु परमहंस ने स्वामीजी को दक्षिणेश्वर के कालि मंदिर आने का निमंत्रण दिया जिसे स्वामीजी ने स्वीकार किया. पहली दफा जब स्वामीजी काली मंदिर पहुंचे तो उन्होंने परमहंस जी से सवाल किया "क्या आपने इश्वर को देखा है?" परमहंस जी ने तुरंत हाँ में उत्तर दिया . स्वामीजी को परमहंस की बातों पर विश्वास न हुआ. ये अविश्वास का दौर बहुत समय तक चलता रहा मगर बहुत जल्द स्वामीजी ने परमहंस जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया. सामान्यतः एक गुरु अपने शिष्य की परीक्षा लेता है मगर यहाँ एक शिष्य ने अपने गुरु की परीक्षा ली थी, स्वामीजी किसी भी बात को तब तक स्वीकार नहीं करते थे जब तक वे उसपर खुद विचार कर उसकी सार्थकता का आभास न कर लें, वे तथ्य को तर्क की कसौटी पर कसते थे एवं इसी प्रक्रिया को अनुभूति कहते थे. यही कारण था जिसके चलते परमहंस जी ने नरेन् को स्वामी विवेकानंद की उपाधि दी.
इस सन्दर्भ में और भी कई कहानियां पढ़ने एवं सुनने को मिलती हैं. एक कथा के अनुसार एक बार स्वामीजी अपने कुछ मित्रों के साथ आम के वृक्ष से आम तोड़कर खा रहे थे के तभी बाग़ का मालिक वहाँ आ गया उसने सभी बच्चों को फटकार लगाई और चेतावनी दी के अगर वे सब फिरसे वृक्ष पर चड़े तो उस वृक्ष का दानव उन्हें खा जाएगा. माली की इस चेतावनी से सभी बच्चे दर गए मगर स्वामीजी फिरसे पेड़ की डाली पर जाकर बैठ गए और उछल-कूद मचाने लगे. कुछ पल बाद उन्होंने अपने सहमे हुए मित्रों को समझाया के देखो कोई दानव नहीं है. तुम सब मूर्ख हो बिना जांच किये उस माली की बातों में आगए. स्वामीजी इसी तरह हर बात को परखा करते थे.
दक्षिणेश्वर में स्वामीजी ने वह सब कुछ पाया, जाना और सीखा जिसकी उत्कंठा उनके मन में वर्षों से व्याप्त थी. एक प्रसंग जो ध्यान में आता है वो यूँ है के. आश्रम में कुछ माह बिताने के बाद स्वामीजी ने जब अन्य सन्यासियों को तपस्या में लीन पाया तो वे विचलित हो उठे उन्होंने रामकृष्ण जी सवाल किया के मुझे इस तरह की अनुभूति क्यों नहीं होती?, तब परमहंस जी ने स्वामीजी को समझाते हुए कहा के - अगर किसी तालाब में हाथी उतर जाए तो समस्त तालाब में हलचल मच जाती है मगर यदि वही हाथी रत्नाकर में उतरे तो उससे सागर को कोई फर्क नहीं पड़ेगा. ये सभी तालाब के समान हैं थोड़े से भाव से अभिभूत हो जाते हैं, मगर तू, तू तो असीमित क्षमताओं का अमाप सागर है.
परमहंस जी से शिक्षा प्राप्त कर स्वामीजी ने अपने भीतर निहित ज्ञान को समस्त संसार में संप्रेषित करने का बेड़ा उठाया. नेपाल, तिब्बत, चीन, जापान, कनाडा आदि देशों में विचरण कर स्वामीजी ने अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाया उनकी आभा एवं ज्ञान से प्रभावित हो कई लोग उनके शिष्य बन गए और उन्ही के साथ विचरण करने लगे.
At Parliament Of World's Religions, Chicago,1893 |
अनगिनत किस्से, कहानियों के बावजूद आधा संसार उन्हें सिर्फ एक वाक्य से जानता है - "मेरे प्यारे भाइयों और बहनों" हालाँकि स्वामीजी ने इससे बड़कर अनेक कार्य किये और सभी मानव जीवन के हित में थे.
ग्यारह सितम्बर 1893 को शुरू हुई धर्म महासभा जो के सोलह दिनों तक चली में स्वामीजी ने कई भाषण दिए जिनमे शून्य एवं हिंदू धर्म पर दिए गए उनके वक्तव्य लोगों द्वारा खूब पसंद किये गए. कुछ हि दिनों में अमेरिकी खल्क में इस सन्यासी के चर्चे होने लगे. कई लोग साथ आए तो कुछ को जलन भी हुई. कुछ अमेरिकी पादरियों ने स्वामीजी की छवि को लोगों के समस्त कलुषित करने के कई प्रयास किये मगर मुट्ठी भर कूड़ा-कचरा डाल देनें से क्या समंदर पर कुछ फर्क पड़ा है?, धर्म महासभा में पहली बार बोलने के लिए जब स्वामीजी को बुलाया गया तो कुछ बहाने बना-बना कर वे अपने क्रम को पीछे धकेलते रहे, वे घबरा रहे थे, मगर जब उनकी बारी आई तो वे बोले और ऐसे बोले के शिकागो के आर्ट इंस्टिट्यूट में बैठे विभिन्न देशों एवं संप्रदाय के सात हजार से अधिक लोग झूम-झूम उठे, उस दिन के बाद से हर दिन स्वामीजी का वक्तव्य अंत में रखा जाता, ताकि लोग अपने स्थान पे टिके रहे. ग्यारह तारीख के बाद स्वामीजी ने पंद्रह, उन्नीस, बीस और छब्बीस सितम्बर को भी भाषण दिए.
अपने प्रथम वक्तव्य में सभी धर्मो को एक बताते हुए उन्होंने कहा था के जिस तरह प्रथक-प्रथक नदियों का जल अखीर में जाकर समुद्र में मिल जाता है उसी तरह भिन्न मनुष्य भिन्न-भिन्न मार्गों से होता हुआ अंततः मुझ तक ही पहुँचता है. एक तरफ जहाँ अन्य देशों एवं धर्म के प्रतिनिधियों ने अपने-अपने धर्म या पंथ का बखान किया, स्वामीजी ने अनेकता में एकता की बात कही. हर एक अपने धर्म का प्रतिनिधित्व कर रहा था मगर स्वामीजी, इश्वर के प्रतिनिधि बनकर उभरे, उन्हें साक्षात् सुनने वाले लोगों ने उनके हर शब्द में उस अलोकिक शक्ति को महसूस किया था.
धर्म-सभा समाप्त हो गई मगर स्वामीजी का असल कार्य अब आरम्भ हो चुका था. कुछ ही दिन में भारत से निकला ये भगवाधारी सन्यासी पूरे विश्व में प्रसिद्द हो गया और भारतीय संस्कृति का परचम विश्वपटल पर लहराने लगा. परमहंस जी से पाए ज्ञान को स्वामीजी ने मानव कल्याण के लिए उपयोग किया. सनातन या वेदांत धर्म की स्थापना अमेरिका से ही हुई और आज देश-विदेश में रामकृष्ण मिशन इस धर्म का प्रचार कर रहा है. वेदांत कहता है - "नर ही नारायण" अर्थात "treat human as god'.
Statue of Swami Vivekananda At Ramkrishna sevashram, Vrindaban |
स्वामीजी ने सदेव ही खुद पर, स्वयं पर भरोसा करने का उपदेश दिया वे कहते थे के सोचो के इस संसार में तुमसे बड़कर अन्य कोई नहीं, खुद पर विश्वास रखो, अपनी दुर्बलताओं का चिंतन मत करो वरन अपने भीतर निहित बल का स्मरण करो. वे स्वयं कहा करते थे के - "मैं अनंत चेतना का वह सागर हूँ, जिसकी ईसा, कृष्ण और बुद्ध लहरें मात्र हैं". अथर्व वेद में भी स्पष्ट लिखा है के - The Whole Earth Belongs to Him, The seas are his, The Whole Sky is his but it is That Small Pond where He Lies.
जुलाई 1902, अपने अवतरण के 39 वर्ष बाद स्वामीजी लौट गए,कहाँ?, मैं कैसे बता दूँ. किताबें कहती हैं के समाधी लेने के पांच या छे वर्ष पूर्व ही स्वामीजी ने अपने अगर्ज अभयनंद को सूचित कर दिया था के वे अधिक से अधिक छे वर्ष और रह पाएँगे, उनके अनुसार उनकी चेतना इस हद तक विस्तृत हो गई थी के उनका शरीर आत्मा को सँभालने में असमर्थ सिद्ध हो रहा था. जानता हूँ के यह बातें काल्पनिक एवं मिथ्या प्रतीत होती हैं मगर 39 वर्ष की उम्र में समस्त विश्व में अपनी छाप छोड़ जाना भी तो काल्पनिक सा लगता है मगर है तो नहीं, साक्ष कहते हैं, मैं नहीं. बहरहाल इस बारे में और गहन अध्ययन करने हेतु आपको वेदांत धर्म से जुड़ी कुछ किताबों की मदद लेनी होगी.
इस लेख में हमने स्वामीजी का आरंभ जाना, सिर्फ आरम्भ और वह भी सम्पूर्ण नहीं. उनका वर्णन तो किताबें नहीं कर सकी ये कुछ शब्द क्या कर सकते थे, फिर भी एक कोशिश की,जो की करनी ही होगी, स्वामीजी ही कहते थे - "आरम्भ करो, कल मर चुका है, कल का अभी जन्म नहीं हुआ, आज जीवंत है तो आज ही करो".
अब अंत होगा. किसका? इस लेख का. हाँ! बस इस लेख का, क्योंकि विवेक और विवेकानंद - दोनों का अंत लिखा नहीं जा सकता, क्योंकि हुआ ही नहीं है.
Vivekananda Rock Memorial, KanyaKumari |
यदि आप पढ़ते-पढ़ते यहाँ तक आ गए हैं तो आपको बधाई और शुभकामनाएँ. अब आप स्वामीजी को पढ़ना आरम्भ करेंगे.....समझे? नहीं? फिरसे पढ़िए.
Keep Visiting!
Good work dear . Keep it up
ReplyDeleteThanks Anu Bhaiya
ReplyDelete😊😊😊
Great ❤️
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