Wednesday, 20 January 2016

वन डे मातरम।



गणतंत्र है, स्वतंत्र है,
है देश यह सबका।
आते इसमें धर्म सारे,
हर जाती, हर तबका।।

मुल्क-परस्ती, देश-भक्ति।
हम सभी में है।
फिर ना-जाने क्यों यह देश,
आवारगी में है?

सिर्फ दो तारिख क्यों,
देश-प्रेम का सबब बनीं?
एक है पंद्रह अगस्त।
और दूजा छब्बीस जनवरी?

रोज़ ही रोता है देश,
फ़िर एक दिन क्यों आँखें नम,
दिल से बोलो, सारे बोलो,
वन डे- वन डे मातरम।।

एक दिन की ये नज़्म है।
एक दिन की बातें हैं।
आज हैं बस यहाँ उजाले,
कल से फ़िर वही रातें हैं।।

गौर से गर सोच लें,
हम सारे धोखेबाज़ हैं।
क्या यही "हम लोग" रहेंगे।
दिख रहे जो आज हैं।।

छोड़ो कसमें-वसमें खाना,
खा लो थोड़ी सी शर्म।
दिल से बोलो, सारे बोलो
वन डे, वन डे मातरम।।

राष्ट्र-ध्वज के तीन रंग,
देते हैं चंद हिदायतें।
यह भी हैं उतनी ज़रूरी,
जितनी प्रार्थना और आयतें।।

सफ़ेद कहता अम्न रखो और
साथ दो सच्चाई का।
पर सारे झूठे हैं मज़े में,
सच्चा मोहताज पाई-पाई का।

केसरिया करता है बात,
हिम्मत की, कुर्बानी की।
ये बातें सारी लद चुकी हैं,
उम्र हो चुकी "जवानी" की।।

हरा निशानी समृद्धि का।
देता विविधता का ज्ञान है,
पर हमको इससे क्या फर्क,
हम तो हिन्दू-मुसलमान हैं।।

लहरा रहे यह रंग हवा में,
इन्हें मन में अब फहरा लें हम।
दिल से बोलें, सारे बोलें,
वन डे-वन डे मातरम।।

हर मसाइब, हर अज़ाब ओ,
हर ज़ख्म का मरहम है।
हम निहत्थे हैं मगर,
इन हाथों में कलम है।।

रूढ़िवादी खंजरों पर,
चल जाने दें अब यह कलम।
दिल से बोलें, सारे बोलें,
वन डे-वन डे मातरम।।

दूसरों की राह तको क्यों?
ख़ुद ही करदो ना पहल।
क्या बन सका एक दिन में,
घर, इमारत या महल।।

देश ही है धर्म अपना,
मान लें यह बात हम।
चलो राष्ट्र-निर्माण में बढ़ाएं,
छोटे छोटे से कदम।

दिल से बोलें, सारे बोलें,
वन डे-वन डे मातरम...


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