Monday 3 April 2023

सपनों की Brand Ambassador || हिन्दी कहानी।



मैं उस से सालों बाद मिल रहा था। कोविड की दोनों लहरें गुज़र चुकी थीं। देश लॉकडाउन की गिरफ़्त से बाहर आ चुका था। और अपनों को खो देने के ग़म से, कुछ न कर पाने की बेबसी से बाहर आ रहा था।

मैं मुंबई लौट आया था। और उस से मिल रहा था। सालों बाद।

उस शाम मलाड के उस कैफ़े में कम ही लोग थे। वह मुंबई के सबसे व्यस्त चौराहों में से एक के कोने में बना कैफ़े था। छोटा और अंदर की ओर दबा हुआ। उसके सामने से रोज़ाना हज़ारों लोग आते-जाते, लेकिन कुछ दर्जन भर लोगों की ही नज़र उस तक जाती। जिसकी जाती वो आमंत्रित सा महसूस करता।

मैंने बस नंबर 622 की बड़ी से खिड़की से उसे देखा था। उस कैफ़े को। मैंने उसके गेट से देखी थी वो सीढ़ी जो ऊपर की तरफ़ जाती थी। और आँखों से ही उस पर चढ़कर ऊपर पहुँच गया था। वहाँ तीन विंडो टेबल थे। जिनके आमने-सामने कुर्सियाँ रखी थीं। मैं उसी वक़्त जानता था कि मैं उस से मिलूँगा। वह आमने होगी, और मैं सामने।

और एक शाम बस नंबर 622 की खिड़की से देखा ख़ाब पूरा हुआ। शाम अगस्त की थी और आसमान में बदली छाई हुई थी। सड़कें भीगी हुई थीं और तेज़ बारिश से कॉनक्रीट की कथित मज़बूत सड़कें उखड़ गई थीं। लगता था जैसे सड़क कोई गंदली और छिछली नदी है - जिसपर सीमेंट के काले टापू उभर आए हैं।

जैसा कि तय था मैं कैफ़े के पहले माले पर रखे तीन विंडो टेबलों में से एक के क़रीब खड़ा था। मैं खिड़की से बाहर उस ओर देख रहा था, जहां से उसका आना निश्चित था। वह कहीं से भी आ सकती थी। लेकिन मैं उस एक दिशा में इतनी देर से दिल गढ़ाए हुए था कि मुझे उसका आना सिर्फ़ वहीं से दिख रहा था।

बस, ऑटो, कोई बाइक या स्कूटी - मैं सबको बारी-बारी देख रहा था। कुछ छूट ना जाए। मैं उसका आना मिस ना कर दूँ। किसी किसी की आमद उनके आ जाने से अधिक, बहुत अधिक खूबसूरत होती है। उसकी भी थी। मैं घंटों उसे आता देख सकता था।

पिछले बीस मिनिट से मैं कैफ़े के एक विंडो टेबल पर हाथ रखे बाहर देख रहा था। एक क्षण को लगा जैसे वहाँ मौजूद हर टेबल पर कोई खड़ा था। और बाहर देख रहा था - किसी की राह।

सभी विंडो टेबल एक लाइन में रखे थे। लाइन - जिसका एक छोर नीचे जाती सीढ़ी से लगता था। और दूसरा कैफ़े के ऑर्डर एरिया से। एक बड़ा सा प्लेटफ़ार्म जिसपर कैफ़े के कुछ मेन्यू, पेमेंट क्यू आर कोड और ऑर्डर लेने वाली दो लड़कियों के हाथ रखे हुए थे। हाथों के पीछे दोनों लड़कियाँ थीं और उनके आसपास कैफ़े का तमाम सामान था। ऑर्डर एरिया के पीछे किचन होगा। वह हमेशा वहीं होता है। 

किचन से एक आदमी बाहर निकला, ऑर्डर एरिया में आया और वहाँ से विंडो टेबल्स की सीधी लाइन पर चलता हुआ मेरे क़रीब आ गया। उसके आते ही बाक़ी टेबलों पर हाथ रखे बाहर देख रहे लोग चले गए। सिर्फ़ मैं रह गया। कितनी भी कोशिश करें कल्पनाएँ चली ही जाती हैं, पीछे सिर्फ़ यथार्थ रह जाता है।

उसने अपने एक हाथ में ट्रे पकड़ी हुई थी। ट्रे पर पानी का एक जग और दो गिलास थे। उसके दूसरे हाथ में एक कपड़ा था जिसे वह ग़ालिबन टेबल साफ़ करने के लिए ले आया था। उसका तीसरा हाथ होता तो वह मेरे कंधे पर हाथ रख कर पूछता कि मुझे क्या चाहिए। लेकिन तीसरा हाथ नहीं था। उसने मेरे कंधे पर बस अपनी आवाज़ रखी। “सर! ऑर्डर।” उसने पूछा।

मैं उसकी ओर मुड़ा। “विल हैव सम वॉटर।” मैंने कहा। और कुर्सी पर बैठ गया। मैं सामने बैठा। और आमने को उसके लिए ख़ाली रखा।

वेटर ने टेबल साफ़ की। उस पर दो ग्लास रखे और उन दोनों को पानी से भर दिया। मैंने अपना फ़ोन देखा। उसका व्हाट्सएप मेसेज था - “ऑन माय वे।”

वेटर लौट गया। उस ने मुझ से नहीं पूछा कि मैं पानी के आगे क्या लूँगा। उसने नहीं पूछा कि क्या मैं वहाँ अकेला आया हूँ? उसने सवाल नहीं किया कि क्या मैं किसी का इंतज़ार कर रहा हूँ? फिर भी वह पानी के दो ग्लास रख गया।

मुझे तब कुछ देर के लिए लगा कि इस दुनिया के सभी वेटर “वेटिंग।” की कैफ़ियत को बहुत अच्छी तरह समझते हैं।

उस कैफ़े के उस विंडो टेबल पर किसी का इंतज़ार करने वाला मैं कोई पहला शख़्स नहीं था। और न ही आख़िरी होने वाला था।

कैफ़े नब्बे फ़ीसदी ख़ाली था। ऑर्डर एरिया के उल्टे हाथ तरफ़ एक लड़का अपने लैपटॉप में व्यस्त था। उसकी कॉफ़ी मेरे आने के पहले से वहाँ रखी थी। वह कैफ़े में कॉफ़ी पीने नहीं आया था। जो करने आया था, वो कर रहा था।

उसके बग़ल में एक टेबल छोड़कर वो दोनों बैठे थे जो न जाने कब भीतर चले आए थे। मैंने उन्हें आते नहीं देखा था। वे एक दूसरे में व्यस्त थे। उन्हें आपस में हंसते-मुस्कुराते देख मैं समझ गया कि वो एक कपल हैं। उनके हाथ एक-दूजे में गुँथे हुए थे। आँखें चमक रही थीं, चेहरे दमक रहे थे। उनकी चाय जो उन दोनों के बीच रखी थी - ज़रा सी भी पी नहीं गई थी। दोनों कप ऊपर तक भरे हुए थे। वे दोनों वहाँ चाय पीने नहीं आए थे। जो करने आए थे, वो कर रहे थे - प्रेम।

उन्हें चंद मिनट देख कर मैं ने अपनी निगाहें अपने फ़ोन पर गिरा दीं। वह टेबल पर रखा हुआ था। मैंने उसे ऑन किया और उसका वही मेसेज फिर पड़ा - “ऑन माय वे।” मैंने फ़ोन ऑफ़ कर दिया। और उसमें अपने ही शिथिल पड़ती शक्ल देखने लगा। मैं अपनी बायीं ओर मुड़कर उस कपल को फिर से देखना चाहता था। मुझे प्रेम में डूबे लोगों को देखना पसंद है। मैं उन्हें वैसे देखता हूँ जैसे मैं मछलियों को खाना खाते देखता हूँ। एकदम चुपचाप, मोशनलेस होकर।

मगर मैंने नहीं देखा। मैंने अपनी गर्दन दायीं ओर मोड़ दी और खिड़की के बाहर देखने लगा। कैफ़े में अब हम तीन थे - जो किसी के इंतज़ार में थे। कॉफ़ी, चाय, और मैं।

तेज़ बारिश होने लगी थी। सड़क पर गाड़ियों की चाल भी तेज़ हो गई थी। सब वहाँ जल्द से जल्द पहुँच जाना चाहते थे, जहां के लिये वे निकले थे। वो जहां कहीं भी थी शायद! यही सोच रही थी। सड़क के दोनों किनारे बनी फ़ुटपाथ ख़ाली हो गईं। लोग किनारों पर बनीं दुकानों की बाहर निकलती छतों के नीचे छिप गए। वे जिनके पास छाते थे वे भी। छाते हमें हर बारिश से नहीं बचा सकते। कुछ बारिशें ऐसी होती हैं कि या तो कहीं किसी ओट के नीचे रुक कर उनसे बचा जा सकता है, या उनमें भीगते हुए आगे बढ़ा जा सकता है।

पूरी सड़क पानी के डबरों से पटी पड़ी थी। छोटे-बड़े चहबच्चे मटमैले पानी से लबालब भर गए थे। और उन पर से छपाके मारते हुए गाड़ियाँ यहाँ-वहाँ जा रही थीं।

सड़क के उस तरफ़। कैफ़े के एकदम अपोज़िट वाली ख़ाली फ़ुटपाथ यकायक उस वक़्त झूम उठी जब छोटे-छोटे बच्चों की एक टोली वहाँ आ गई और भीगते हुए उछल-कूद करने लगी। एक बच्ची जो कुछ दस साल की रही होगी फुटपाथ के एकदम कोने पर खड़ी हो गई और झुक कर, पीछे से आ रही एक कार को देखने लगी। कुछ देर देखकर वह झट से पीछे हो गई। कार उसके बहुत क़रीब से एक पानी के डबरे से होकर गुज़र गई। और डबरे का पानी उछलकर लड़की के ऊपर जा गिरा। वह भीग गई और हंसते हुए वापस टोली में शामिल हो गई। उसके बाद एक-एक करके तीन और बच्चों ने ऐसा किया। चौथा आगे बढ़ता उससे पहले ही वहाँ एक हवलदार आ पहुँचा और उसने बच्चों को वहाँ से भागा दिया। वे सब दौड़ गए। और आगे से मुड़कर किसी दूसरी सड़क पर चले गए। किसी और फुटपाथ के झूमाने।

तेज़ बारिश हल्की झापुट में बदल गई। और छाता लिए लोग फिर से फुटपाथों पर चलने लगे। कुछ खड़े होकर बसों का इंतज़ार करने लगे, तो कुछ हाथ आगे बढ़ा बढ़ाकर ऑटो रोकने लगे।

हाथ बहुत थे। लेकिन एक भी ऑटो नहीं रुक रहा था। लोग हाथ बदल बदल कर अपने छातों को सम्भाल रहे थे। तभी कई लोगों के बीच एक ऑटो रुका। सभी हाथ नीचे हो गए। और सभी पैर उस एक ऑटो की तरफ़ बढ़े। लोगों की एक छोटी भीड़ सी लग गई। उनके मुँह शायद अपने-अपने गंतव्य के एड्रेस बता रहे थे। उन सब में से किसको उस ऑटो की सवारी नसीब होगी मैं ये सोच रहा था। एक तरह की रिडल थी। जिसे मैं सॉल्व करना चाहता था। तभी ऑटो में से वह बाहर निकल कर आई। उसके पास कोई छाता नहीं था। उसने अपनी आँखें उठाईं और कैफ़े की तरफ़ देखा। उसने मुझे नहीं देखा। मैंने उसे देखा। उसने फुटपाथ से नीचे अपना पहला क़दम रखा। और फिर रुकी नहीं। वह गंदले पानी से भरी सड़क पर उभर आए कॉनक्रीट के टापुओं पर से होते हुए कैफ़े के सामने आ पहुँची। उसने आती-जाती गाड़ियों को आसानी से डॉज कर दिया। और सड़क ऐसे पार कर ली जैसे स्किपिंग स्टोंस का खेल खेल रही हो।

वह आ चुकी थी। मैंने उसे आते देखा था। मन ख़ुश था। और अब मैं खिड़की से बाहर देखना बंद कर चुका था। मैं उस रिडल को पूरी तरह भूल गया था जिसमें मुझे ये पता लगाना था कि आख़िर वो ऑटो वाला इतने सारे लोगों में से किस को उसकी मंज़िल तक ले जाएगा।

मेरे पास सॉल्व करने के लिए अब एक दूसरी और ज़रूरी रिडल थी। - वह।

मैं अपनी कुर्सी से उठ गया। वह मेरे पीछे सीढ़ियों से ऊपर आई और अपना पर्स टेबल पर रखते हुए मुस्कुराई। उसके बाल कुछ गीले हो गए थे। और कंधों पर पानी की बूँदें ठहरी हुईं मालूम होती थीं। वह सफ़ेद और गुलाबी कपड़ों में थी। मैं उसे देख कुछ देर निश्चल खड़ा रहा।

“हाए दोस्त।” उसने कहा और वह मेरी ओर बढ़ी। हम गले लगे और फिर टेबल पर बैठ गए। विंडो टेबल पर।

वो आमने बैठी और मैं उसके सामने। उसने अपने भीगे वालों को पीछे बांध लिया। और एक गहरी साँस लेकर अपने दोनों हाथों को टेबल पर रख दिया। उसके ऐसा करते ही कंधे पर ठहरी बूँदें नीचे गिर गईं। और मिट गईं। उससे दूर रहना - मिट जाना है। मैंने सोचा।

मैं काफ़ी वक़्त से उसके इंतज़ार में था। तीस-चालीस मिनट से नहीं। बीते दो सालों से। इंतज़ार के दौरान मैंने अनगिनत चीज़ें सोची थीं जो मुझे उसे बतानी थीं। मेरे ज़हन में उन बातों की पूरी फ़ेहरिस्त थी जिन्हें उससे कहा जाना था। लेकिन उसके सामने आते ही सबकुछ शून्य में सिमट गया था। उसके आगे एक शब्द भी कहना मेरे लिये मुश्किल हो रहा था। होंठ पत्थर जान पड़ रहे थे। मैं उसके चेहरे के जादूई ठहराव में ठहर गया था। और सिर्फ़ उसे देखे जा रहा था। इंतज़ार जब ख़त्म होता है - तो आपको कुछ वक़्त के लिये चुप कर देता है। मैं चुप था।

“कैसे हो?” उसने पूछा।

“ठीक।” मैं ने पीछे ऑर्डर एरिया में खड़े वेटर को देखते हुए कहा।

“और तुम?” मैं ने उसे देखा।

“आई एम गुड।” उसने कहा जैसे ख़ुद से कह रही हो। - “यू आर गुड।”

“आज कल क्या कर रही हो?” मैं ने पूछा।

“कुछ ऐडवर्टिज़मेंट हैं। बस वही कर रही हूँ। और अगले महीने एक नाटक है, उसकी रिहर्सल।”

“बाक़ी ऑडिशंस, जिमिंग, और रोज़मर्रा के दूसरे काम तो चलते ही रहते हैं। - रोज़ाना।”

“तुम कहो।” उसने एक लंबा जवाब दे दिया था। और अब मेरी बारी थी।

वह एक ऐक्ट्रेस थी। गुजरात से मुंबई आई थी और सालों से यहाँ रह रही थी। बहुत हुनरमंद और मेहनती। उससे हर मुलाक़ात एक प्रेरणा होती - लगातार, बिना रुके काम करने की। अपने सपनों की बातें करते हुए उसकी आँखों में जो चमक आती वह ऐसी लगती जैसे नदी में सूरज की हल्की किरणें पड़ रही हों। और उन सपनों के बीच आ रही रुकावटों का ज़िक्र करते हुए उसके माथे पर ऐसी शिकन आने लगती, जैसे किसी कपड़े पर ख़ुद ब ख़ुद सल पड़ने लगे हों। वह अपने काम, अपने लक्ष्य और गुजरात में रह रहे अपने परिवार के सिवा और किसी के बारे में नहीं सोचती थी। मैं उसके ख़यालों की इस छोटी से फ़ेहरिस्त का हिस्सा होना चाहता था। लेकिन मैं जानता था/हूँ कि ऐसा होना ना-मुमकिन है।

“हेलो! कहाँ हो दोस्त?” उसने मेरे सामने चुटकियाँ बजाईं।

“तुम्हारे जादू में।” मैं कहना चाहता था।

“मुझे चुटकी बजाना नहीं आता।” मैंने कहा।

सोचा कितना सुंदर और स्पष्ट लगता है। और किया कितना भौंडा और भ्रमित।

“अरे! आजकल क्या कर रहे हो?” वह मेरे अजीब बर्ताव से कुछ हैरान हुई।

वेटर वहाँ आ गया। उसने पहले से रखे पानी के दोनों ग्लास अपनी ट्रे में रख लिये। और दो दूसरे ग्लास टेबल पर रख कर उनमें पानी भर दिया। वह दो मेन्यू भी रख गया।

“आजकल वही कर रहा हूँ जो कल कर रहा था। ऐसा कुछ बहुत नया तो नहीं कर रहा।” मैं मेन्यू पढ़ने लगा। ये जानते हुए कि मुझे अंततः चाय ही मंगानी है।

“अच्छा। सच?” उसने पूछा।

“हाँ! मतलब पिछले दिनों एक पॉडकास्ट बनाया है। कुछ ब्लॉग्स, कहानियाँ और कविताएँ लिखी हैं। एक किताब लिख रहा हूँ। एक ई-बुक एक्चुअली।” मैं ख़ुद को अपने किए हुए काम गिनवा रहा था - उसके सामने।

“वाह!” उसने अपने सामने रखा मेन्यू उठा लिया।

वाह!, अच्छा। और अंग्रेज़ी का एल. ओ. एल.(लॉफ आउट लाउड।) - वह इनका इस्तेमाल सबसे अधिक करती थी। मेरे साथ। मुझे नहीं पता कि दूसरों के साथ उसके सबसे अधिक इस्तेमाल किए शब्द कौन से होते होंगे। मैं उसके हर शब्द को सुनने की ख्वाहिश रखता हूँ।

मैं ने चाय ऑर्डर की, उसने ब्लैक कॉफ़ी। ये घटना सुनने में क्लीशे लगती है। - लड़के का चाय ऑर्डर करना, और लड़की का कॉफ़ी। लेकिन क्लीशेज़ से बचने के लिए मैं कहानी का सत्य तो बदल नहीं सकता। हमारे आसपास ऐसे अनगिनत लोग हैं जिनका पूरा जीवन ही एक क्लीशे है। जीवन कोई फ़िक्शन तो नहीं, कि जहां जो मन किया जोड़ दिया, जहां से जो चाहा मिटा दिया।

बाहर अंधेरा घिर आया था। आसमान गाढ़ा सियाह था। सड़क के दोनों किनारे लगे लैंप पोस्ट जल उठे थे और पानी के डबरों में झाँक अपना अक्स निहार रहे थे। हर लैंप पोस्ट के पास अपना एक डबरा, अपना एक आईना था। गाड़ियाँ गुज़रतीं जा रही थीं। और बीच-बीच में किसी ना किसी लैंप पोस्ट का चेहरा बिगड़ जाता था।

उसे किसी का कॉल आ गया था। वह जब तक बात कर रही थी। मैं तब तक बाहर सड़क, आसमान, लैंप पोस्ट, फ़ुटपाथ, गाड़ियाँ देख रहा था। वह अगर उगती शाम की जगह अभी ढलती शाम में आती। और ऑटो से उतरकर सड़क पार करती तो कैसी लगती - मैं सोच रहा था। मैं उसे बहुत से दृश्यों में, बहुत से हालात, बहुत सी सिचुएशन में सोच चुका था। वह हर जगह मेरे क़रीब आ रही थी। वह कहीं भी आई नहीं थी।

उसकी बात ख़त्म हो गई। वेटर हमारी चाय और कॉफ़ी रख कर लौट गया। उसने जाते-जाते उन टेबलों पर रखे चाय और कॉफ़ी के कप भी उठा लिए जहां कुछ देर पहले तक एक कपल और अपने लैपटॉप में व्यस्त एक लड़का बैठा हुआ था। उन लोगों का जाना वैसे ही पता नहीं चला, जैसे उनका आना मालूम नहीं पड़ा था।

“कौन था?” मैं अपनी चाय में शक्कर डाल रहा था। मुझे लगा कि मैंने कौन थी? क्यों नहीं पूछा।

“एक ऑडिशन का रिज़ल्ट।” वह ख़ुश थी।

“काँग्रेट्स!” मैंने उससे हाथ मिलाया।

“रिज़ल्ट सुनो तो पहले।” वह अपनी कॉफ़ी को चम्मच से गोल गोल घुमा रही थी।

“तुम मुस्कुरा रही हो तो पॉज़िटिव ही होगा ना रिज़ल्ट।” मैंने कहा।

“नैगेटिव रिज़ल्ट पर भी तो मुस्कुराया जा सकता है। कुछ नैगेटिव, हमारे लिए पॉज़िटिव भी हो सकते हैं। नहीं?” मुझे उससे ऐसी फ़िलोसॉफी की उम्मीद नहीं थी। और मैं ने उससे कहा भी यही।

“हैप्पी रियलाईज़ेशन फ़ॉर यू।” उसने कॉफ़ी का एक घूँट लिया।

“मगर रिज़ल्ट क्या रहा?” मैंने पहली बार उस भाव का अनुभव किया जो किसी शख़्स के मन में तब आता होगा जब मैं उसके सीधे से सवाल का जवाब उसे दर्शन(फ़िलोसॉफ़ी) से देता होऊँगा।

“आई एम फ़िट फ़ॉर दी रोल।” उसका चेहरा कुछ फीका पड़ गया।

“ये पॉज़िटिव तुम्हारे चेहरे पर नेगेटिव दिख रहा है।” दर्शन मैं भी जानता था।

“आई एम फ़िट फ़ॉर दी रोल बट आई डोंट वाँट टू डू इट।” उसने मुझे देखते हुए कहा।

“तो जाने दो। मैं जानता हूँ कि तुम्हें ऐसे कई ऑफ़र रोज़ आते होंगे।” कैफ़े की मद्धी पीली रौशनी ने उसके सफ़ेद टॉप को हल्का पीले रंग दे दिया था। उसके बाल सूख गए थे। उसके जवाब के इंतज़ार में मैं उसमें दोबारा खो गया था। और वह शायद मेरी इस बात में खो गई थी कि उसे तो एक्टिंग के कई ऑफ़र रोज़ आते होंगे।

“आई ड्रीम ऑफ़ बींग इन फ़िल्म्स।” उसने अचानक कहा।

“यू विल बी यार। जस्ट लुक ऐट यॉरसेल्फ़।” मैं इस वाक्य के आगे जोड़ना चाहता था - “दी वे आई डू।” मैंने नहीं जोड़ा।

“आई नो आई एम डूइंग गुड बट आई वाँट बेटर। एंड समडे दी बेस्ट।” उसकी कॉफ़ी ख़त्म हो चुकी थी। उसने कुछ वेब-सीरीज़, कुछ फ़िल्में, और दर्जनों एडवरटिज़मेंट किए थे। लेकिन हर दिन बेहतर करने की उसकी भूख कमाल की थी। उसे देख कभी-कभी मुझे ख़ुद पर बे-यक़ीनी होने लगती। “मैं कुछ नहीं कर रहा।” का वाक्य मुझे सुबह-शाम सताता। उसके सपने सुन कर मेरे सामने प्रश्न उठता कि - आख़िर मेरा सपना क्या है? और कोई उत्तर नहीं मिलता।

“सब अच्छा होगा दोस्त। यू आर दी बेस्ट फ़ॉर मी एट लीस्ट। और कम से कम तुम्हारे सपने तो हैं। मुझे देखो - मेरे पास अपने सपने ही नहीं।” मैं मुस्कुरा रहा था। लेकिन भीतर निराशा से भर चुका था।

उम्र के इस पड़ाव पे आकर भी मैं साफ़ नहीं समझ सका था कि मुझे अपनी ज़िंदगी के साथ करना क्या है। वो सब कुछ जो मैं कर रहा हूँ, उसमें से किसी को भी लेकर मुझे ये भरोसा नहीं था कि मैं इसी काम को करूँगा, इसी में आगे बढ़ूँगा, और इसकी ही दिशा में खोजूँगा - अपना लक्ष्य, अपना सपना। बहुत कनफ़्यूज़न था। सब धुंधला था। उतना जितना मेरे सामने का सब कुछ होता है, जब मैं अपना चश्मा उतार देता हूँ।

“तो सोचो दोस्त। फ़िगर इट आउट।” उसने ज़ोर देकर कहा। वह टेबल पर आगे झुक आई थी। मुझे उसकी आँखों में वही चमक दिखी, जो अपने सपनों के बारे में बात करते हुए उसकी आँखों में आती थी। वह सपनों की ब्रांड एम्बेसेडर थी - शायद!

मुझे हमेशा से लगता है कि जिन लोगों के पास अपने कुछ सपने हैं, वे लोग मानसिक रूप से अमीर हैं। और सदा रहेंगे। बिना ख़ाब का जीवन, दिहाड़ी मज़दूर का जीवन है।

मेरी चाय भी ख़त्म हो गई।

“लेट्स गो टू माउंट मैरी चर्च।” वह उठ खड़ी हुई, जैसे सिर्फ़ मेरी चाय ख़त्म होने की राह देख रही हो।

“क्यूँ?” वेटर आ गया। उसने बिल रखा। और चाय-कॉफ़ी के कप के साथ पानी के गिलास भी उठा ले गया।

“आई लव दी वाइब ऑफ़ दी प्लेस। बहुत पॉज़िटिव है। और मुझे प्रे भी करना है। कुछ माँगना है।” वह बोल नहीं रही थी, चहक रही थी।

“मैं क्या माँगूँगा लेकिन?” मैंने बिल देखा।

“तुम सपना माँग लेना।” उसने अपनी कुर्सी छोड़ दी।

हमने बिल भरा और नीचे उतरकर कैफ़े से बाहर आ गए।

बारिश फिर से शुरू हो गई थी। धीमी मगर पल भर में तर कर देने वाली बारिश थी। आसमान में देख कर उसकी गति का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता था। लेकिन लैंप पोस्ट की रौशनी में बारिश का पैटर्न दिख रहा था।

सड़क गाड़ियों से लदी पड़ी थी। फ़ुटपाथ पर तरह तरह के छाते चलते नज़र आ रहे थे। एक-दूसरे से टकराते, हवा में लहराते, कटे-फटे, छोटे-बड़े, हर रंग के छाते थे। आसमान था, आसमान के नीचे बारिश थी, बारिश के नाचे छाते थे और छातों के नीचे लोग।

हम छातों के नीचे नहीं थे। हमारे पास वो थे ही नहीं। एक के पास भी होता तो दोनों उसमें आ सकते थे। मैं लगभग पूरा मानसून बिना छाते के निकाल चुका था। लेकिन उस शाम मुझे उसकी सख़्त ज़रूरत मालूम हो रही थी।

हम दोनों कैफ़े की बाहरी शेड के नीचे दुबके हुए थे। मैं सोच रहा था की आगे बढ़कर ऑटो रोकूँ। लेकिन जितनी दूर हमें जाना था, उतनी दूर जाने के लिए कोई भी ऑटो वाला तैयार होगा - मुझे इस बात का अंदेशा था।

“कोई ऑटो तो माउंट मैरी तक नहीं जाने वाले।” मैं ने सड़क पर दौड़ते ऑटो को देखते हुए कहा।

“चल लेट्स कॉल अ कैब देन।” उसने सवाल नहीं किया था। मुझे बताया था।

वह अपने हाथ बांधे खड़ी थी। उसकी आँखें सड़क पर नहीं, उसके पार थीं। शायद उस तरफ़ की फुटपाथ पर। वह वहीं देख रही थी जहां ऊगती शाम को मैंने बच्चों की एक टोली को बारिश में नाचते देखा था। वह संभवतः अपने सपनों को सच होता देख रही थी।

“यू विल बी ए स्टार।” मैंने उसके सपनों को देखते हुए कहा।

“थैंक यू दोस्त।” उसका “यू” सामान्य से कुछ अधिक खिंचा हुआ था। उसने अपनी गर्दन मेरी ओर मोड़कर, उसे कुछ झुका कर ये कहा था।

मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था। अगर कहता तो शायद उसकी झुकी गर्दन के असर से मेरे शब्द झुके झुके ही निकलते।

कैब आ गई। और हम माउंट मैरी चर्च के लिये निकल गए। मैं ने कैब के पीछे वाले शीशे से उस कैफ़े को देखा और आमंत्रित महसूस किया। क्या मैं उसके बिना दोबारा वहाँ जाऊँगा? क्या मैं उसे फिर से वहाँ बुलाऊँगा?  - ये प्रश्न मेरे दिमाग़ में चल रहे कई दूसरे प्रश्नों के साथ जा मिले। कैब अपनी रफ़्तार से चल पड़ी।

उसने अपने बाल खोल लिए। और सर विंडो ग्लास से टिका लिया। मुझे उसकी आँखें बोझिल मालूम हुईं।

“सो रही हो?” मैंने पूछा।

“नहीं! बस कुछ सोच रही हूँ।” उसने अपना सर विंडो ग्लास से हटा लिया।

“मैंने एक ऑडिशन दिया है। इट्स फ़ॉर ए बिग ब्रांड। आई रियली वाँट इट। उसी के लिए चर्च जा रही हूँ। आई विश की वो ऐड मुझे मिल जाए।” वह अपनी चाहतों के बारे में सब को खुलकर बताती थी। उसे अपनी मेहनत पर बे-हद भरोसा था। और शायद इसलिए ही वह डेस्टिनी में ज़रा भी यक़ीन नहीं रखती थी। डेस्टिनी पर ख़र्च ना करके वह अपने विश्वास को मैनिफ़ेस्टेशन में इन्वेस्ट कर देती थी।

उसने ये सब मेरी ओर गर्दन झुका कर कहा था। मैं एक बार फिर कुछ भी कह पाने की हालत में नहीं था। मैं बस उसकी बातों पर अपना सर हिला रहा था।

सफ़र थोड़ा लंबा था सो कुछ देर के बाद हम दोनों ने आपस में बातें करना बंद कर दिया। हम चुपचाप अपने आप से बातचीत करने लगे। वह हक़ीक़त में मेरे साथ थी, मेरे पास नहीं थी।

“आई विश शी कुड बी विथ मी, नियर मी - ऑलवेज़।” मैंने कैब में सोचा। और चर्च में मदर मैरी की मूरत के सामने जस का तस कह दिया।

हम लगभग पैंतालीस मिनिट में, मुंबई के स्थायी ट्रैफ़िक से गुज़रते हुए माउंट मैरी चर्च पहुँचे थे। वह बैंडस्टैंड के क़रीब एक पहाड़-नुमा इलाक़े में स्थित चर्च था। भारत में बरतानिया हुक़ूमत के दौरान बना एक ऐतिहासिक चर्च। हमारी कैब नीचे से एक आर्क पर चलकर ऊपर पहुँची थी। सड़क चिपचिपी थी, और उस पर फैले पेड़ों के पत्ते भी भीगकर वज़नदार हो गए थे। वे सड़क पर जहां गिरते, वहीं ठहर जाते थे।

यहाँ कैब रुकी और वहाँ वह उससे उतरकर - पेड़ों की एक क़तार के नीचे मौजूद लंबी सी दुकान पर चली गई। उसे जो चाहिए था, बड़ी जल्दी चाहिए था। - मैंने कैब का बिल भरा और उसके पीछे उस दुकान तक गया, जो ईसाई पूजन सामग्री से लदी हुई थी।

वहाँ इंसानी जीवन की हर इच्छा, हर मनोकामना के लिए किसी न किसी तरह की कैंडल दिखाई दे जाती थी।

उसने दो कैंडल ख़रीदीं और एक मुझे थमा दी। हम दुकान की सीध में कुछ आगे चले। चर्च वहीं उसी दिशा में था। कुछ देर चल चुकने के बाद हमें किसी ने बताया की चर्च बंद हो चुका है। ईश्वर का दर - बंद था। सोचकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए।

चर्च बंद होने की बात सुनकर उसका चेहरा उतर गया। वह अपने दाँत किसमिसा रही थी। उसकी ख़ीज प्रत्यक्ष थी।

चर्च की विपरीत दिशा में। चिपचिपी सड़क के दूसरी तरफ़ तीन मीनारों वाली एक आसमानी नीली इमारत थी। जिसके दोनों ओर सीढ़ियाँ थीं।

सीढ़ियों के बीच में, इमारत के ठीक नीचे लोहे का एक लंबा चौड़ा प्लेटफ़ॉर्म था जिसपर दर्जनों कैंडल जल रही थीं।

दोनों सीढ़ियाँ ऊपर जाकर एक खुले पोर्च जैसे स्पेस पर ख़त्म होती थीं। जहां लोग अपने हाथों में कैंडल लिए खड़े थे। वे सब मदर मैरी की एक विशाल, आलोकिक और जीवंत मूरत के सामने खड़े थे। लगता था जैसे प्रेम, निष्ठा, और क्षमा की प्रतीक, दोनों हाथ जोड़कर सब स्वीकार करने की मुद्रा में खड़ीं मदर मैरी एक साथ उन सब से बात कर रही हैं। सबकी सुन रही हैं।

उसका चेहरा खिल गया। उसने लगभग दौड़कर सीढ़ियाँ चढ़ीं और अपने दोनों हाथों की उँगलियों को आपस में बाँधकर प्रार्थना करने लगी।

मैं उसके पीछे वहाँ पहुँचा और वहाँ के नितांत चुप को महसूस कर अभिभूत हो गया। वह पहाड़ की ऊँचाई और समंदर की गहराई वाला चुप था। वह समाधि वाला चुप था, घोर ध्यान वाला चुप था।

मुझे आज भी लगता है कि उस दिन वहाँ ऊपर पहुँचकर मैंने मदर मैरी की मूरत के सामने नहीं, उस अद्भुत शांति के सामने हाथ जोड़े थे। शांति जिसका सोर्स मदर मैरी थीं।

उसके और मेरे अलावा वहाँ और भी लोग थे जो अपनी-अपनी प्रार्थनाओं में लीन थे।

उसकी आँखें बंद थीं, दोनों हाथ आपस में गुँथे हुए थे, और सर सामने की ओर झुका था। वह माँगने में मसरूफ़ थी।

मुझे कभी माँगना नहीं आया। ईश्वर से भी नहीं। इसलिए मैं सिर्फ़ हाथ जोड़े और आँखें खोले मदर मैरी की बंद आँखों को देखता रहा।

बहुत सोचकर मैंने सिर्फ़ इतना कहा - “आई विश शी कुड बी विथ मी, नियर मी। - ऑलवेज़।”

हवा उसके बालों से होते हुए मेरे बालों तक आ रही थी। ठंडी हवा थी। वह शायद उसके और मेरे बीच खड़ी थी। हवा की प्रार्थना क्या होगी? मैं कुछ देर सोचता रहा था।

दूसरों को पूरे समर्पण और एकाग्रता से प्रार्थना करता देख मैं अपने आप को पराया महसूस कर रहा था। मैं सोच रहा था कि वहाँ जो लोग ईसाई हैं - वो मदर मैरी के सामने बाइबिल की कौनसी वर्स पढ़ रहे हैं? काश! मैं भी उसे पढ़ पाता।

मैं हर जगह स्वीकार कर लिया जाना चाहता हूँ। जहां जाता हूँ, वहाँ का होकर रहना चाहता हूँ। मुझे हमेशा उन माहौल में, उन लोगों में घुल-मिल जाने की इच्छा होती है - जिनके बीच में हूँ।

मैं मराठी के साथ मराठी होना चाहता हूँ, गुजराती के साथ गुजराती, बंगाली के साथ बंगाली, उड़िया के साथ उड़िया, तमिल के साथ तमिल। फ़्रेंच के साथ फ़्रेंच, जर्मन के साथ जर्मन, इंगलिश के साथ इंगलिश। धर्म और जातियों के मामले में भी मेरे ख़याल, मेरी इच्छाएँ कुछ ऐसी ही हैं।

अगर हम सबको समझ सकें। तो किसी को कुछ समझाने की ज़रूरत  नहीं पड़ेगी।

उसकी प्रेयर ख़त्म हो गई। उसने मुझे उसकी कोहनी से जगाया। मैं खुली आँखों से अपने मन में गहरे उतर गया था।

हम दोनों नीचे उतर आए। और सीढ़ियों के बीच बने प्लेटफ़ॉर्म पर कैंडल जला दीं। वह कुछ और देर हाथ जोड़े खड़ी रही।

“थैंक्स फ़ॉर कमिंग।” वह जगमगा रही थी।

“थैंक्स फ़ॉर ब्रिंगिंग मी।” मैं मुतमईन था।

“तुमने क्या माँगा?” उसने पूछा।

“सपना।” मैंने कहा।

बारिश की हल्की बौछार गिरने लगी, हवा तेज़ हो गई, चर्च की घंटियाँ बजने लगीं। और सड़क पर जमे पत्ते फिर से उड़ने लगे। पेड़ों के हरहराने की आवाज़ तेज़ हो गई। और दुकानें बंद होने लगीं।

मैंने उसके लिए एक ऑटो रुकवा लिया।

हम दोनों ने एक-दूसरे को गले लगाया और वह चली गई। - ऑन हर वे।

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