Saturday, 3 December 2022

बैंडस्टैंड की बेंच पर || अनैटमी ऑफ़ अकेलापन।


अकेलेपन की एक तसल्ली है कि हमारे पास सिवाय अपने के और कुछ नहीं।

-निर्मल वर्मा।


वो नवंबर की एक शाम थी। उस शाम आसमान कुछ बैंगनी था। मैं बैंडस्टैंड के शांत शोर के बीच एक बेंच पर बैठे हुए, समंदर से आती हवाओं को अपने चेहरे पर महसूस कर रहा था। हवा मद्धम थी। हल्की और धीमी। मुझे लगता था जैसे मुझ अकेले को, अकेली हवा छू रही है। क्या हवा कभी समूह में बह सकती है? हवा सिंगुलर है या प्लूरल? - (ये ख़्याल मुझे वहाँ बेंच पर नहीं आया था। तब नहीं आया था जब मेरा बैंडस्टैंड की एक बेंच पर होने का दृश्य घट रहा था। ये ख़्याल मुझे अब आया है, जब मैं "घट चुके" को लिख रहा हूँ।)

हम अक्सर अपने "घट रहे।" में अपने हर "घट चुके।" को सोचते रहते हैं। और इसलिए "घट रहे।" पर गौर नहीं कर पाते। उसे हमने सदा से "घटेगा।" पर टाल रखा है।

मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ वहाँ पहुंचा था। वो लोग आगे कहीं किसी पार्क में जाने के लिए समंदर से सटी सड़क पर बढ़ निकले थे और मैं उनसे "तुम चलो, मैं आता हूँ।" कहकर वहीँ ठहर गया था। मेरे आसपास मौजूद सभी लोग किसी न किसी के साथ थे। वे या तो जोड़ी में थे, या फिर समूह में। ठीक सड़क और समंदर के बीच पड़े त्रिकोण पत्थरों की तरह। पहले पहल मुझे यही लगा कि यहाँ मेरे सिवा कोई दूसरा अकेला नहीं है। लेकिन अपने सामने बने चलायमान और सतत बदलते लैंडस्केप को बारीकी से टटोलने पर मुझे दिखाई दिया - दूर सागर की लहरों से टकराता हुआ एक तन्हा पत्थर। एक अकेला पत्थर जिसके चारों तरफ़ जोड़ियों और समूहों में पत्थर ही पत्थर थे। वो पत्थर मुझे अपना सा लगा, लेकिन एक झटके में ही मैंने उससे अपनी नज़रें फेर लीं। और फिर जैसे कोई भी भाव अचानक आता है। मुझे रोना आ गया।

रोना - रहस्यमयी है। कभी बहुत दुःख होने पर नहीं आता, कभी दुःख न होने पर आ जाता है। कभी कारण के बावजूद आँसू नहीं आते, कभी अकारण ग़म बह जाता है।

उस शाम, उस बेंच पर मुझे जो रुलाई आई। वो नई नहीं थी। होशंगाबाद में अपने घर की छत से ऊपर देखने पर काले, घुप्प आकाश में एक तन्हा तारे को अपलक निहारने पर भी मुझे ऐसी ही रुलाई आई थी। ट्रेन और बस की अनेक यात्राओं के दौरान रास्ते में पड़ते रेतीले, निर्जन और घाट सरीखे इलाकों में अकेले पेड़ों को देख कर भी मैं ऐसे ही रोया था। जयपुर के अल्बर्ट हॉल के बाहर - गोलाई में फैले बग़ीचे के बीचों बीच रखी एक बेंच पर जनवरी की ठिठुरती ठंड में अपने हाथों को आपस में मलते हुए मैं बार-बार आकाश की ओर देख रहा था। नीली नदी से अम्बर पर, सफ़ेद झाग से बादल तेज़ी से तैर रहे थे। एक तरह की रेस लगी हुई थी। मैं दौड़ में पीछे रह गए, अपने जैसों से छिटके एक नन्हे छूटे हुए बादल को देखकर रो पड़ा था।

सालों पुरानी उस जनवरी की रोज़ के मेरे आँसू, जो अल्बर्ट हॉल, जयपुर के बग़ीचे में गिरे थे, वैसे ही थे जैसे कि हालिया नवंबर की शाम बैंडस्टैंड, मुंबई में गिरे मेरे आँसू।

आज उन सभी दृश्यों को याद करते हुए मुझे अपने रोने का जो कारण समझ आता है वो ये है कि  - बादल, पेड़, तारे और पत्थर में से किसी ने भी अपना अकेला होना तय नहीं किया था। वे बस अकेले छोड़ दिये गए थे। और वे इस बारे में कुछ कर भी नहीं सकते। लेकिन मैंने? मैंने हर वक़्त, हर समय, हर मौक़े पर अपना अकेला होना ख़ुद तय किया। "चीज़ें तय नहीं कर सकतीं कुछ भी अपने बारे में, लोग कर सकते हैं।" - पंक्तियाँ नरेश सक्सेना की कविता से हैं।

मैं अकेला हूँ, क्योंकि मैं अकेले रहना चाहता हूँ। - मैं इस बात को जानते हुए भी, कभी मान नहीं पाया और इसलिए जब कभी यह सच्चाई अचानक मेरे सामने आकर खड़ी हुई है - मैं रोया हूँ, ख़ूब रोया हूँ। और रोकर ही हर बार मैंने उसे टाल दिया है - किसी और वक़्त के लिए। किसी और रुलाई के लिए। निर्मल वर्मा का कथन कुछ-कुछ यूं ही है कि - "जब हम किसी उदासी से लड़ नहीं पाते, उसे स्वीकार नहीं कर पाते तो हम उसे कल पर छोड़ देते हैं।" कल - जो कभी नहीं आता।

मैं लाख कहूँ कि मेरी चाहत किसी को पाने की है, किसी के साथ, किसी की सोहबत की है। लेकिन मेरे भीतर की दबी हुई मंशा इससे नहीं बदलती। और अक्सर यही उहापोह मुझे खाती रहती है, चुभती रहती है। एक टीस, एक ख़लिश देती है। शायद! मेरे बहुत अंदर छिपा मेरा स्वार्थ, ख़ुद में रहने की मेरी आदत, मुझे किसी दूसरे का होने नहीं देती। मेरे चाहते हुए भी। इससे अधिक त्रासदेय और क्या होगा? 

"मुझे दुःख नहीं कि मैं किसी का नहीं हुआ। मुझे दुःख है कि मैंने सारा समय हर एक का होने की कोशिश की।" - पंक्तियाँ श्रीकांत वर्मा की कविता से हैं। इसके उलट सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का कहना है कि - "मैंने कब कहा कोई मेरे साथ चले। चाहा ज़रूर।"

ये सब इतना भ्रमित करने वाला है कि मुझे कुछ समझ नहीं आता। मैं अपने आप से विमर्श करते हुए उलझता चला जाता हूँ और प्रकाश की खोज में होकर भी अंधकार ही पाता हूँ। अंधकार जो कभी अकेला नहीं होता - वो इस दुनिया के सभी अकेलों के साथ रहता है। और वो सब जिन्होंने अपना तन्हा रहना ख़ुद तय किया है - वे अंधेरे के साथ रहते हैं। अकेलों का कोई नहीं, अँधेरे के अलावा।

बैंडस्टैंड के हिस्से का आकाश अब बैंगनी से सियाह होने लगा था। शाम ने एक धक्के से रात को उठा दिया था और अब ख़ुद सोने जा रही थी। कुछ क्षण के लिए ही सही लेकिन शाम और रात दोनों एक साथ जगे रहे। शाम के साथ रात, रात के साथ शाम। और फिर रात अकेली हो गई - पत्थर, तारे, पेड़ और बादल की तरह। अकेली हवा जो मुझपर शाम से ही महरबान थी - अब तक मेरे गाल सहला रही थी। मेरे बाल सँवार रही थी। बिखरे बालों के लिए हवा से बेहतर कोई और कंघी नहीं। मेरे आँसू सूख चुके थे। और मेरे दोस्त जिनसे अलग होना मैंने ही तय किया था - अब तक वापस नहीं लौटे थे।

अकेली रात, अकेली हवा, अकेली बेंच और अकेला मैं। ख़्याल आया कि अपने अब तक जीवन में मैंने कितने ही लोगों से मुलाक़ातें की हैं, कितनी महफ़िलों में गया हूँ, कितनी यात्राएं की हैं। कितनी जगहों पर कितने ही लोगों के साथ काम किया है, मंच साझा किया है, खुशियाँ मनाई हैं, ग़म बांटा है। बहुतेरे दोस्त बने हैं, जान-पहचान वाले बढ़े हैं। कितनी ही बार मैं अलग-अलग लोगों के सर्किल में दाख़िल हुआ हूँ। लेकिन कभी किसी सर्किल में बना नहीं रहा। कभी न कभी, किसी न किसी वक़्त पर मैंने अपने आप को उस सर्किल से अलग कर ही लिया है। "कह दे रहे हैं ये बात अभी से // होएंगे रुख़सत राफ़ता सभी से।" मेरा ही शेर है।

किसी सर्किल के सरकम्फेरेंस पर एक ही तरह के पॉइंट्स से बार- बार गुज़रते हुए, एक ही एक्सिस(धुरी) पर घूमते रहने के बरक्स मैं उस विस्तृत, अमाप और अनहद स्पेस में घूमना चुनता हूँ जहाँ लाख़ों दूसरे सर्किल विचर रहे हैं, घूम रहे हैं। मैं कभी किसी सर्किल से लगे किसी टैंजेंट पर चलते हुए बस उससे टकराकर गुज़र जाता हूँ, तो कभी-कबार लंबे वक्त तक "पॉइंट ऑन दी सर्किल" बनकर रहता हूँ। "पॉइंट इनसाइड दी सर्किल" बन पाना मेरे लिए ना-मुमकिन है। मुझे लगभग हर रोज़ एक बार ये विचार आता है कि मैं उन नॉबल गैसेस की तरह हूँ जो किसी के साथ बॉन्ड नहीं करतीं। क़ुदरत ने उन्हें ऐसा बनाया है कि उन्हें अपने आप में ही रहना है। एलिमेंट्स के पीरियॉडिक टेबल में उनका एक विशेष स्थान है। वे अपनी संपूर्णता में अकेली हैं, और मैं भी।

मेरा ही शेर है कि - "है हसरत के सब ही मिलें मुझसे // है चाहत के पास न आए कोई।" मैं किसी सर्किल का नहीं हूँ, और इसलिए संसार के स्पेस में एकदम अकेला हूँ।

रॉबर्ट डी नीरो की एक फ़िल्म "मीट दी पैरेंट्स।" में नीरो जिस किरदार की भूमिका निभाते हैं वो किरदार अपना एक सर्किल ऑफ़ ट्रस्ट बनाता है और उसमें अपने बेहद पास के सगे-सम्बंधियों को ही जगह देता है। मेरे सर्किल ऑफ़ ट्रस्ट में कोई नहीं है। कोई भी नहीं। ऐसा ही एक सर्किल बिग बैंग थ्योरी के शेल्डन कूपर का भी है। वो दरअसल एक को-सेंट्रिक सर्किल है जिसमें कई सर्कल्स का केंद्र बिंदु एक ही होता है। शेल्डन समझाता है कि कैसे और कौन उसके को-सेंट्रिक सर्किल में कहां पर आता है। हम पाते हैं कि उसके सबसे भीतरी सर्किल में ख़ुद उसके अलावा कोई दूसरा नहीं है। मेरी स्थिति मुझे लगता है कुछ ऐसी ही है। "अकेलेपन की अज़ीयत का अब गिला कैसे // फ़राज़ तुम ही हो गए थे अपनों से अलग।" शेर अहमद फ़राज़ का है।

आसमान के बाद अब समंदर भी काला पड़ने लगा था। लैंप पोस्ट जल उठे थे। और अब मेरे आसपास पीली रौशनी फैल गई थी। चाँद उग आया था और उसकी महीन सफ़ेदी पीली रौशनी पर गिर रही थी। हवा का रुख़ बदल गया था। अब वह मेरे चेहरे पर नहीं, मेरी पीठ पर गिर रही थी। उसका बहाव अब तेज़ था। मैं उसी के ज़ोर से उठ खड़ा हुआ और अपने दोनों हाथ आसमान की तरफ़ उठाकर स्ट्रेच कर दिए। एक गहरी साँस ली और फिर बेंच को अकेला छोड़कर मैं सड़क पर उस ओर चलने लगा, जिस ओर मेरे दोस्त बड़ी देर पहले चले थे।

बैंडस्टैंड पर बिखरने का वक़्त ख़त्म हो चुका था। ये सिमटने का समय था, और सभी अपने-अपने हिसाब से सिमट रहे थे। समूह में आए लोग हाथ में हाथ लिए टैक्सी रोक रहे थे, जोड़ी में आए लोग एक-दूसरे की बाहों से लिपट गए थे। और अकेले लोग अपने आप से सटकर, सिमटने की इस क्रिया को देख रहे थे।

"मैन इज़ आ सोश्यल एनीमल।" - सिविक्स का ये कथन मेरे दिमाग में चल रहा था कि तभी मैंने सामने से आते अपने दोस्तों को देखा। वे सब एक-दूसरे के कंधे में हाथ डाले टल्लाते हुए आ रहे थे। मैं उन्हें देख मुस्कुराया और उनमें शामिल हो गया। "पॉइंट ऑन ए स्ट्रेट लाइन" की तरह।

हम सब एक साथ आगे बढ़ने लगे। हवा भी समूह में हमारे आसपास बहने लगी। सियाह गगन में तारों की तादाद बढ़ने लगी, और रात को चमकते चाँद का साथ मिल गया। मैंने उस बेंच, जिसपर मैं अकेला बैठा था, को उसके आजू-बाजू रखी बेंचों के साथ देखा तो पाया कि वो कभी अकेली थी ही नहीं। मैं बहुत धीमे से हँसा। और निगाहें अपने दोस्तों की तरफ़ कर लीं। 

हम साथ चल रहे थे, और गा रहे थे - "दिल की यही ख़ता है, दिल को नहीं पता है - कि दिल चाहता है क्या.....नज़रें मिलाना, नज़रें चुराना - कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना।"

Keep Visiting!

3 comments:

  1. Jab bhi aapke lekh padhta hun bahut kuch naya sikh jata hun💖💖

    ReplyDelete
  2. हमेंशा की तरह बहुत उम्दा लेखन 🤟🏻👌🏻

    ReplyDelete

My Mother’s Love Language

A few months ago, I was in a meeting with comic and poet Rajat Sood. I wanted to bring him in for an event, and we were brainstorming what k...