Tuesday 27 December 2022

कौन थे उ जी? || हिन्दी कहानी।



मैं उन दिनों भोपाल में "वी जी" के यहाँ रह रहा था. एक सुबह हॉल में हो रही कुछ बहुत धीमी आवाज़ों से मेरी कच्ची नींद टूट गई. मैं बिस्तरे पर थोड़ा इधर-उधर हुआ, एक-दो बार करवटें बदलीं, लेकिन उठा नहीं. वहीँ पड़ा रहा और वापस सो जाने के प्रयास करने लगा. नींद गहरी हो या कच्ची – टूट जाने पर हम कभी भी बिस्तर नहीं छोड़ते. हम फिर से सो जाने की कोशिशें करने लगते हैं. आपकी नींद कई बार, सोने की आपकी पोज़ीशन पर निर्भर करती है, और इसलिए हर बार सोने के इरादे से अपने बिस्तर पर लेट जाने के बाद आप उस एक पोज़ीशन की तलाश में कई मिनिट देते हैं, जिसमें आप सबसे अधिक सहजता से सो सकें. मेरी नींद टूट गई थी और मैं अपने बिस्तरे पर उसी एक पोज़ीशन को ढूँढ रहा था. हॉल में अँधेरा था. और उसके एक कोने में कुछ खुसुर-फुसुर हो रही थी. मेरा बिस्तर हॉल के दूसरे कोने में था. और मुझे हो रही खुसुर-फुसुर में कोई दिलचस्पी नहीं थी.

मुझे अगली सुबह होशंगाबाद निकलना था और इसलिए मैं एक अच्छी-गहरी नींद सो लेना चाहता था. शायद कुछ पन्द्रह मिनिट की मशक्कत के बाद मुझे वो पोज़ीशन मिल गई जिसमें मैं चैन से सो सकता था. मैं ख़ाबों की दुनिया में दाख़िल होने ही वाला था, एक फैली-धुली सी सफ़ेद रौशनी मुझे नज़र आ ही रही थी कि बाहर, यानी हॉल में किसी ने सी.एफ़.एल बल्ब जला दिया. नींद आते-आते रह गई. आते-आते रह जाना – इस जीवन में मेरे हिस्से सबसे ज़्यादा अगर कोई कहावत आई है तो वह यही है. टूटी नींद, अब बिखर गई और मैं मिचमिचाते हुए अपनी आँखें खोलने लगा. अपनी लुपझुप होती आँखों से मैंने देखा कि वी जी ठीक मेरे बिस्तरे के बगल में खड़ी हुई हैं.

“सत्यम....सत्यम....उठ तो ज़रा.” वह बोलीं और पलंग से लगकर रखी कुर्सी पर बैठ गईं. मेरे उठने के इंतज़ार के बीच उन्होंने किसी को फ़ोन किया और बातें करने लगीं. मैं उठकर पलंग पर बैठ गया और घड़ी की ओर देखा. मुझे कुछ भी साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था, क्योंकि मेरा चश्मा दूसरे कमरे में रखा हुआ था. मुझे बिना चश्मे के कुछ भी साफ़ दिखाई नहीं देता. मैं देख ही नहीं सकता. बहुत से लोग बिना चश्मे के देख सकते हैं, बावजूद इसके उन्हें बहुत कुछ दिखाई नहीं देता.

मैंने पलंग छोड़ दिया और बिना एक भी शब्द कहे सीधा हॉल के आगे वाले कमरे में चला गया. वहां टेबल पर मैंने अपना चश्मा रखा हुआ था. मैंने चश्मा पहना और हॉल में लौट आया. मैंने दोबारा घड़ी की ओर देखा. रात जा चुकी थी, सुबह के साढ़े चार बज रहे थे. मैंने वी जी को फ़ोन पर बात करते देखा. वह कम बोल रही थीं. वह सुन ज़्यादा रहीं थीं. वह मेरी तरफ़ देखतीं, और फिर घड़ी की तरफ़. वह ऐसा बार-बार कर रहीं थीं. ज़्यादा देर तक कोई किसी को नहीं सुनना चाहता।

“मैं सब भैया लोगों को बता देती हूँ.....ठीक, ठीक है.....जय गणेश.” वी जी ने फ़ोन रख दिया. मैं अब तक उनके पास पलंग पर बैठ चुका था.

“वो नहीं रहे.” उन्होंने एक लंबी उबासी ली.

“वो नहीं रहे.” में कितने ही लोग चले गए का विचार आया. वो सब लोग जो कभी भी जा सकते हैं, उन सब का ख़याल एक एक कर आया. मेरा दिल बैठ गया.

“उ जी” नहीं रहे.” उन्होंने कहा.

मैं चुप रहा और पलंग से लटकते अपने पैरों पर नजरें टिका दीं. मैं उ जी को बहुत कम जानता था. मैं उनसे मिला ही शायद कुल एक-दो बार था. उ जी चौरे थे, जैसे मैं चौरे हूँ. उ जी मेरे परिवार के थे – लेकिन एक्सटेंडेड परिवार के. हम सब किसी न किसी बड़े परिवार का हिस्सा ज़रूर हैं, लेकिन हम सब के छोटे-छोटे परिवार होते हैं. हमारा सरोकार अधिकाँश रूप से इन छोटे परिवारों से ही होता है. मगर कुछ मौकों पर ये सभी छोटे-छोटे परिवार साथ आकर – एक बड़ा परिवार बनाते हैं. मृत्यु - इन्हीं कुछ मौकों में से एक है।

वी जी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और उठ खड़ी हुईं. उनकी उबासियाँ बंद नहीं हो रही थीं. मुझे समझ नहीं आया कि मेरे कंधे पर रखा गया उनका हाथ सांत्वना का था या फिर सहारे का. वो उठ कर मेरे सामने से होते हुए आगे हॉल में चली गईं और फिर वहां से एक परदे के पीछे से होते हुए घर के उस रास्ते पर, जहाँ से दो कमरे खुलते थे. वे किसी भी कमरे में जा सकती थीं. मुझे मालूम नहीं हुआ कि वो कौनसे कमरे में गईं और न ही मुझे मालूम करना था. मेरा अनुमान था कि या तो वो फिर से सोने चली गई हैं, या फिर परिवार के दूसरे लोगों को फ़ोन करके उन्हें उ जी के देहांत की ख़बर देने।

मैं हॉल में अकेला हो गया था. मुझे सी.एफ़.एल. के जलने की आवाज़ सुनाई दे रही थी. मैं दिमाग़ पर ज़ोर देकर उन दिनों की याद कर रहा था जिनके कुछ घंटों में मैं उ जी के साथ था. मैंने उ जी के साथ कभी कोई पूरा दिन नहीं बिताया था. मैं और वो इतने दूर के रिश्तेदार थे. मेरे दादा कुल चार भाई थे, जिनमें मेरे दादा सबसे छोटे थे. उन चार भाइयों में से सबसे बड़े या शायद दूसरे सबसे बड़े भाई के बच्चों में से एक थे उ जी. उ जी भी भोपाल में ही रहा करते थे. उनकी मृत्यु भोपाल में हो गई थी. मुझे लगता है कि मृत्यु के समय उनकी उम्र कोई सत्तर-पछत्तर साल रही होगी. मुझे उनके साथ के कुछ दृश्य ही अस्पष्ट रूप से याद आते हैं. तब के जब वे शायद साठ साल के रहे होंगे और मैं ख़ुद पंद्रह साल का. “मैं दृश्यों में सोचता हूँ.” मुझे कवि विनोद कुमार शुक्ल रोज़ के किसी काम की तरह याद हो आते है.

मैं घड़ी पर नज़रें टिकाए ये सब सोच रहा था कि हठात ही एक आवाज़ हुई. बाहर कुछ हलचल हो रही थी. लग रहा था कि किसी ने घर का मैन गेट खोला है और वो पोर्च की ओर बढ़ रहा है. मैंने अपनी जाँघों पर अपने दोनों हाथों से ज़ोर दिया और पलंग से उठ खड़ा हुआ. खिड़की का पर्दा हटाकर देखा तो बाहर दो लोग थे – एक पोर्च में रखे डस्टबिन को उठा कर बाहर ले जा रहा था, और दूसरा वहीँ पोर्च में खड़ी स्कूटी पर टंगी एक थैली में दूध के पैकेट डाल रहा था. वे दोनों अपना काम कर रहे थे – रोज़ की तरह. एक-दूसरे से एक शब्द भी नहीं कह रहे थे – शायद! रोज़ की तरह.

उन दोनों के चले जाने के बाद मैंने खिड़की पर दोबारा पर्दों को ऐसे गिरा दिया जैसे वे कभी उठे ही नहीं थे. मैं मुतासिर था सुबह-सुबह घर की चौखट पर आने वाले इन लोगों के काम करने के तरीके से, जो इतना साफ़ और सधा हुआ होता है कि उनके कहीं से चले जाने के बाद उनके वहां होने का कोई निशान हमें नहीं मिलता. वे अपनी उपस्थिति को बस अपने किये काम में छोड़ जाते हैं. मैं दरवाज़ा खोलकर बाहर चला आया. और मैन गेट से अपने शरीर को टिका दिया. बाहर सूनी सड़क पर सिर्फ़ ध्वनियाँ चल रहीं थीं. ये ध्वनियों का समय था. वातावरण में हवा का ह भी नहीं था. सामने एक डुप्लेक्स घर के पीछे नारंगी आसमान दिखाई दे रहा था. घरों की छतों पर धूप बहुत धीरे क़दम बढ़ा रही थी. एक एक ऊँगली से वह छतों की पालों को छू रही थी. जैसे पानी से घबराया हुआ कोई बच्चा नदी में ऊँगली-ऊँगली क़दम बढ़ाता है. अँधेरा घरों की बाहरी दीवारों से चिपक कर बह रहा था. कुछ देर में उसे सड़क पर आकर छिप जाना था, रात के इंतज़ार में.

घरों के बगीचों से चिड़ियों की चहलकदमी सुनाई दे रही थी, दूध और डबल रोटी वालों की साइकलों की घंटियाँ फ़ज़ा में हवा सी बह रही थीं. हवा नहीं थी. उसकी खाली जगह को इन्हीं आवाज़ों ने भर दिया था. स्कूल जाने के लिए ज़बरदस्ती उठाए गए बच्चों की रुलाई, उनका हठ, उनकी ज़िद, और उनके बहाने भी सड़क पर चल रही ध्वनियों में थे।

हर आवाज़ अपने पैरों पर चलकर मेरे सामने से गुज़र रही थी और मैं मैन गेट पर अपनी ठुड्डी रखे हुए उन्हें सुन रहा था. मैं सबकुछ ध्वनियों में देख रहा था कि अचानक मेरे कान के बहुत क़रीब से कुछ गुज़रा. वह रोल किया हुआ एक अखबार था. मेरे कानों के ठीक बगल से होता हुआ वो मेरे पीछे पोर्च में गिर गया. मैंने पलट कर उसे देखा और फिर यकायक अपनी आँखें वापस सामने कर दीं. सामने अखबार वाला था, अपनी साइकिल पर. मैंने उसे देखा, और उसने मुझे. सड़क पर चल रही सारी आवाज़ें नौ दो ग्यारह हो गईं. मैं फिरसे दृश्यों में देखने लगा।

अखबार वाले ने मुझे देखकर भी नहीं देखा, लगा जैसे वो मेरे पीछे पड़े अखबार को देख रहा है. वह दो क्षण वहां रुका और अपनी साइकिल की घंटी बजाता हुआ सड़क पर आगे निकल गया. अखबार वाला घरों में इतनी सुबह अखबार देकर चला जाता है कि उसे घरों के बाहर किसी को भी न देखने की आदत है. इसलिए जब एक सुबह अचानक उसे कोई दिखा तो उसे लगा ही नहीं कि कोई दिखा है. वह और उसकी साइकिल मेरे सामने से ऐसे चले गए जैसे कभी आए ही नहीं थे. एक गहरा चुप उसके पीछे सड़क पर छूट गया. ऐसा चुप जो मेरे भीतर कुछ लिख देने के बाद छाता है. और कुछ देर रहता है।

मैं बहुत सवेरों के बाद किसी सुबह को इतने गौर से देख रहा था. और उ जी के साथ गुज़री एक सुबह मुझे अस्पष्ट रूप से याद आ रही थी।

“सत्यम...चाय पी ले...दूध के पैकेट निकाल ला...” वी जी घर के अन्दर से मुझे बुला रहीं थीं।

मैं मुड़ा और स्कूटी पर टंगी थैली में रखे दूध के पैकेट उठा लिए. दरवाज़े की ओर जाते हुए मुझे वहीँ पड़ा अखबार याद आ गया. मैंने उसे भी उठा लिया. दूध और अखबार वाले की उपस्थिति लेकर मैं घर के अन्दर चला गया. और चुप वहीँ बाहर सड़क पर रुका रहा. कितनी देर? मैं नहीं जानता.

अन्दर हॉल के अंत पर जहाँ से दो कमरों का रास्ता खुलता था – एक कोने में डाइनिंग टेबल पर वी जी बैठी हुई थीं. उनके हाथ में चाय का कप था और वो चाय पीते हुए मेरी ही राह देख रही थीं. मैं वहां पहुंचा और एक कुर्सी पर बैठ गया. मैंने दूध के पैकेट डाइनिंग टेबल के एक कोने में रख दिए और अखबार को वी जी के सामने टेबल पर ही सरका दिया. मेरी चाय भी वहीँ रखी हुई थी. मैंने एक छोटा घूँट लिया।

“सूतक रहेगा तेरह दिन का और क्या?” मैंने पूछा।

“नहीं....तीन दिन का कर लेना तुम लोग...बहुत है.” वी जी अखबार के पन्ने पलट रहीं थीं।

“तो मैं निकल जाता हूँ होशंगाबाद...घर से कोई आ रहा है क्या?” मुझे जल्द से जल्द होशंगाबाद पहुंचना था. पिछले एक हफ़्ते से मैं भोपाल में था और कुछ ही दिनों में मुझे मुंबई लौटना था। मैं कुछ दिन अपने शहर में रहना चाहता था।

“उनकी बेटी तो यहीं है भोपाल में, बेटा ही आएगा बैंगलोर से शायद!” वी जी बोलीं

“नहीं नहीं. अपने घर से कोई आएगा क्या? मम्मी, पापा, चाचा, चाची, ताऊजी, ताईजी?” मेरा सवाल यह था, लेकिन मेरा ध्यान वी जी के पिछले जवाब पर था – “बेटा ही आएगा बैंगलोर से शायद!” शायद?

“घर से कोई नहीं आ रहा.....मैं शायद चली जाऊं.....तू निकल जा होशंगाबाद, नाश्ता करके.” वी जी की चाय खत्म हो गई थी. सुबह के लगभग सात बज गए थे।

“कुछ हुआ था क्या उन्हें?” मैंने पूछा।

“ज़्यादा पता नहीं अपने को.....तबियत नरम-गरम ही रहती थी उनकी, और उम्र भी शायद अस्सी के लगभग हो गई थी....” उ जी के बारे में मैं किसी से पहली बार बात कर रहा था. उनके देहांत के पहले मैंने कभी किसी से उनसे जुड़ी कोई बात नहीं की थी. कोई बात थी ही नहीं शायद।

वो हमेशा सबसे दूर-दूर रहे....उन्होंने किसी को कभी पूछा ही नहीं..... - उ जी के पीछे उनकी बाबत ऐसी ही बातें मुझे सुनने को मिलीं. मेरे अपने पास उनके साथ के सिर्फ़ कुछ धुंधले दृश्य ही थे. मेरी चाय भी ख़त्म हो गई. वी जी डाइनिंग टेबल से उठकर किचन में चली गईं. उन्होंने हम दोनों के कप उठा लिए.

मैं कुछ देर वहीँ बैठा रहा. मेरे सामने की कुर्सी पर जहाँ पहले वी जी थीं, अब उ जी से सम्बंधित झीनी स्मृतियाँ बैठती जा रहीं थीं. मेरे पास उनके लिए समय नहीं था. मैं वहां से तुरंत उठा और बाथरूम में चला गया. उ जी की स्मृतियाँ वहीँ कुर्सी पर रुकी रहीं. कितनी देर? मैं नहीं जानता।

नहाकर मैंने नाश्ता किया और वी जी से विदा ली. कुछ दो किलोमीटर दूर मुख्य सड़क थी – जो कि भोपाल में होशंगाबाद रोड के नाम से ही जानी-पहचानी जाती है. उसी सड़क से मुझे होशंगाबाद के लिए बस मिलनी थी. सो मैं पैदल ही वहां के लिए चल पड़ा. डाइनिंग टेबल की एक कुर्सी पर बैठी उ जी की स्मृतियाँ मेरे साथ ही हो लीं थीं. ये बात मुझे कुछ मीटर चल चुकने के बाद मालूम हुई. अजीब इत्तेफ़ाक है कि उ जी के साथ बीती मेरी जो एक सुबह मुझे याद है - वह भी किसी के देहांत की ही सुबह थी।

उस सुबह मैं अपनी मम्मी और चाची के साथ “बी जी” के घर पहुंचा था। हम अलसुबह वहां पहुँच गए थे. उस वक़्त मेरी उम्र कोई पन्द्रह साल थी और मैं अपना स्कूल छोड़कर बी जी के यहाँ गया था. मम्मी ने मेरे ऑटो वाले(जो मुझे रोज़ स्कूल छोड़ता और वहां से वापस लाता था) को मेरे नाम से एक एप्लीकेशन दे दी थी. ऑटो वाले को उसे मेरी क्लास-टीचर को देने को कहा गया था. एप्लीकेशन का सब्जेक्ट था – “एप्लीकेशन फ़ॉर वन डे लीव ड्यू टू ए डेथ इन माय फ़ैमिली.”

बी जी गुज़िश्ता रात सोईं और फिर उठी नहीं. वो भी शायद मेरी दूर की ही रिश्तेदार थीं. लेकिन चूँकि वो मेरे ही शहर में रहती थीं, इसलिए वो उ जी से ज़्यादा पास की रिश्तेदार थीं. होशंगाबाद से भोपाल सत्तर किलोमीटर दूर है, तो शायद बी जी, उ जी से सत्तर किलोमीटर पास की रिश्तेदार थीं मेरी।

बी जी का घर शहर के बाहर की एक कॉलोनी में था और इसलिए कॉलोनी के गेट से ही हमें रोने की आवाज़ें सुनाई देने लगी थीं. हम बी जी के यहाँ पहुंचे और पहुँचते ही मेरी मम्मी और चाची भीतर चली गईं. उनके वहां पहुँचते ही रोने की आवाज़ें कुछ तेज़ हो गईं. मुझ से कोई बात नहीं कर रहा था. वहां घर के बाहर आँगन में बहुत से जाने-पहचाने चेहरे बैठे थे, लेकिन उनमें से किसी ने भी मुझसे कुछ कहा नहीं, कुछ पूछा नहीं. मैं जब भी बी जी के यहाँ जाता, तो उनकी छत पर ही खेलता. इसलिए मैं अकेला छत पर चला गया. चारों तरफ़ फैली, बड़ी सी छत थी. मोटे-मोटे लेकिन छोटे सीमेंट के खम्बों की रेलिंग थी. छत की फ़र्श सफ़ेद चूने से पुती हुई थी. छत को आने वाली सीढ़ी जहाँ थी, उसकी ठीक विपरीत दिशा में कोने पर एक चूल्हा जल रहा था. उससे उठता धुंआ ऊपर बादलों तक एक पारदर्शी रास्ता बना रहा था. कुछ गोरैया थीं जो वहीँ चूल्हे के आसपास फुदक रहीं थीं. छत के बीचों बीच, सीढ़ी और चूल्हे के मरकज़ में एक पलंग था. मैं उसी पर लेट गया. और आसमान में गुम गया।

मुझे याद है कि मैं काफ़ी वक़्त तक लेटा रहा था. लेकिन लेटे-लेटे मैं क्या सोच रहा था, ये मुझे याद नहीं. आसमान से अज्ञात(मेरे लिए) पक्षियों का एक रेला गुज़रा और मैं उसे गर्दन उठाकर देखने लगा. जैसे सिर्फ़ गर्दन उठा देने से पक्षी मेरे क़रीब आ रहे हों. पक्षियों को जाता देख मैंने लेटे-लेटे ही अपनी गर्दन को पलंग के साथ नाइनटी डिग्री के एंगल पर रख दिया. पक्षी मेरी आँखों से ओझल हो गए और उनके जाते ही सामने आए - उ जी।

वो चूल्हे के पास पालती मारकर बैठे हुए थे. सुबह की गुनगुनी धूप में उनके सर के सफ़ेद बाल चमक रहे थे. उन्होंने सिलेटी रंग की पैन्ट और एक झाग सी सफ़ेद शर्ट पहन रखी थी. वे वहां कब पहुंचे का जवाब मेरे पास नहीं था. शायद जब में आसमान में खोया हुआ था, वो नीचे से ऊपर आ गए थे. चूल्हे पर एक हांडी चढ़ी हुई थी और उसमें हल्की आंच पर पानी उबल रहा था. मैं झट से पलंग से उतरा और उनके पास जाकर बैठ गया. वो वहीँ पास पड़े लकड़ियों और कंडों के ढेर में से कुछ पतली लकड़ियाँ चूल्हे में डाल रहे थे. मैंने भी एक लकड़ी उठा ली और उनकी तरफ़ देखने लगा. उन्होंने चूल्हे में लकड़ियाँ डालना बंद कर एक बार मुझे देखा. वे कुछ हँसे और अपनी गर्दन चूल्हे की ओर मोड़ दी. मैंने मुस्कुराते हुए अपने हाथ में रखी लकड़ी को चूल्हे में फेंक दिया. इसके बाद मैंने कुछ और पतली लकड़ियाँ और कंडे के छोटे टुकड़े चूल्हे में डाले. और उ जी मुझे ऐसा करते देखते रहे. "हम दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे, चूल्हे में लकड़ियाँ डालने को जानते थे।" - विनोद कुमार शुक्ल, ये लिखते हुए याद आए।

मैं मज़े में आ गया, और एक बड़ी लकड़ी चूल्हे में डाल दी. आग बढ़ने की जगह कम हो गई. उसका रंग पीले और नारंगी से नीला सा हो गया. मैं डर गया. मैंने कुछ तो ग़लत कर दिया था. मैं खड़ा होकर उ जी के पीछे चला गया. उन्होंने उस बड़ी लकड़ी को चूल्हे से बाहर निकाला और फिर दर्जन भर छोटी लकड़ियों को उसमें डालकर बची हुई अंगार में फूँक मारने लगे. कुछ ही देर में आग का रंग वापस पीला और नारंगी हो गया।

उ जी ने पलटकर मुझे देखा और उठ खड़े हुए. वो पलंग पर जाकर बैठ गए. और वहीँ से मुझसे कहा –

“चूल्हे में आग छोटी-छोटी लकड़ियों से लगती है. धीरज के साथ, आराम-आराम से. समझे?”

मैंने मुंडी हाँ में हिला दी. मैं उस सुबह कुछ नहीं समझा था. लेकिन आज मुझे समझ आता है, कि निर्माण और विध्वंस की आग में बहुत बड़ा फ़र्क होता है. निर्माण की आग धैर्य और समझ मांगती है, और विध्वंस की आग अंधा पागलपन।

“तुम्हारा नाम क्या है?” उ जी ने मुझसे पूछा था. और मैं चुप रहा था।

“व्हाट इज़ योर नेम?” उन्होंने दोबारा पूछा था. और मैंने कहा था –

“माय नेम इस सत्यम.....नहीं, नहीं.....माय नेम इज़ प्रद्युम्न चौरे...”

फिर इसके बाद उन्होंने मुझसे परिवार और पढ़ाई-लिखाई से जुड़े बाक़ी के आम सवालात किये. मैं पलंग पर उनके बगल में बैठा रहा और जो कुछ मुझे मालूम था, बताता रहा. बहुत ज़ोर देने पर मुझे याद आता है कि उस सुबह उ जी ने मुझसे सामान्य ज्ञान के कुछ सवाल भी पूछे थे, और कुछ पहेलियाँ बूझने के लिए भी दी थीं. मुझे उनके साथ अच्छा लग रहा था. वे किसी दोस्त की तरह मेरे साथ छत पर थे, और नीचे हम दोनों के परिवार की एक सदस्य मृत लेटी हुई थीं।

“चलिए, सभी लोग निकल रहे हैं....” कोई नीचे से सबसे ऊपर वाली सीढ़ी पर आया और उ जी को बुला लिया।

वो मुझसे बिना कुछ कहे उठे और सीढ़ियों की तरफ़ चले गए. मैं उनके पीछे नहीं गया. मैं चूल्हे को देखने लगा. उसमें लगी आग और उसपर उबलते पानी को देखने लगा. उ जी सीढ़ियाँ उतर गए. और पन्द्रह साल का मैं उनकी उपस्थिति को उस चूल्हे की आग में देखने लगा, जिसे उन्होंने जलाया था।

भोपाल में बुआ के यहाँ सुबह-सुबह आए दूध वाले और अखबार वाले की ही तरह उ जी भी उस सुबह, अपने किये काम में अपनी उपस्थिति छोड़ गए थे।

मैं और मेरे साथ चल रही उ जी की स्मृति चलते-चलते वहां पहुँच गए जहाँ से हमें होशंगाबाद के लिए बस मिलनी थी. हम बस के इंतज़ार में थे. मैं उ जी की स्मृति की ओर मुड़ने ही वाला था कि किसी का फ़ोन आ गया. फ़ोन के उस तरफ़ मम्मी थीं।

“निकल गया?” कॉल की शुरुआत में हेलो बोलने की ऐतिहासिक प्रथा को मेरी मम्मी नहीं मानतीं।

“हाँ अभी बस आएगी फिर निकलूंगा.” मैंने जवाब दिया.

“चलो ठीक है....अब यहाँ से तो कोई नहीं जा रहा है उ जी के यहाँ....वी जी चली जाएंगी वहां से, और उ जी के घर वाले तो रहेंगे ही....” मम्मी ये बातें मुझे मेरे बिना पूछे बता रहीं थीं।

“देखो अब कितने लोग पहुँचते हैं भैया.....” मम्मी ने आगे कहा.

“हम्म, आज ही कर देंगे क्या उनका सब?” सब कर देने से मेरा मतलब उ जी के अंतिम संस्कार से था।

“हाँ देखो अब....एक्चुअली उ जी ने अपना देह दान कर दिया था....तो शायद आज-कल में उनको हॉस्पिटल ले जाया जाएगा...” मम्मी ने जवाब दिया।

“अच्छा....चलो मैं आता हूँ फिर....जय गणेश.” मैंने फ़ोन काट दिया।

मैंने उस सुबह को फिर से सोचा - जो मैंने उ जी के साथ चूल्हे में आग लगाते हुए, सवाल-जवाब करते हुए और पहेलियाँ बूझते हुए गुज़ारी थी. किसी के बुलाने पर उ जी सीढियां उतरते हुए नीचे चले गए थे. और फिर मुझे नहीं दिखे. उसी दृश्य को दोबारा सोचने पर मैंने देखा कि - उ जी बस दो-तीन सीढ़ी ही उतरे, और फिर उनका शरीर वहीँ बैठ गया. नीचे जाती सीढ़ी उ जी के शरीर के सामने से ऊपर की ओर उठ गई, और कुछ ही क्षण में वापस यथावत् हो गई।

एक बस धूल उड़ाती हुई आई और उसका पिछला दरवाज़ा ठीक मेरे सामने आकर रुका. मैं बस में चढ़ गया और फिर मुड़कर बाहर नहीं देखा. उ जी से जुड़े धुंधले दृश्य, और शिथिल स्मृतियाँ वहीँ सड़क के किनारे ठहरी रहीं। कितनी देर? मैं नहीं जानता।


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पूरे चाँद की Admirer || हिन्दी कहानी।

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