Thursday, 28 July 2022

अपर बर्थ || हिन्दी कहानी।

 


बहुत पानी गिर चुका था. शाम की सुस्त, सुनसान सड़क इस बात की गवाही दे रही थी. जुलाई के आख़िरी दिन
 चल रहे थे, और बरसात इस बात को ख़ूब समझती थी – कि जाओ तो ऐसे जाओ, कि लोग तुम्हारे लौटने की राह तकें. पानी गिर चुका था. और उसके गिर चुकने के बाद मैं घर से रेलवे-स्टेशन के लिए निकला. बदली छट चुकी थी, आसमान कुछ अधिक नीला और साफ़ था, शहर पर झीनी धूप उतर आई थी, और सड़कों पर भरे पानी के कई डबरों में, कई छोटे-छोटे सूरज तैर रहे थे. “A Sun, per pond.”

होशंगाबाद, जिसका नाम राज्य सरकार की अनुशंसा पर केंद्र सरकार ने “नर्मदापुरम” कर दिया था, के रेलवे स्टेशन पर खड़ा मैं उस ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था, जिसके होशंगाबाद से लेकर छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस तक के सारे स्टॉपेज मुझे मुंह-जुबानी याद हो चुके थे – पंजाब मेल एक्सप्रेस.

मैं पिछले कुछ सालों में कई बार होशंगाबाद से दादर और दादर से होशंगाबाद की यात्रा कर चुका था, और हर एक यात्रा में मेरे साथ रही थी पंजाब मेल एक्सप्रेस की कोई न कोई अपर बर्थ. वो अपर बर्थ जहाँ पहुंचकर आप एक तरह से नीचे बैठे लोगों से अलग-थलग हो जाते हैं. आप बाकी यात्रियों से कट जाते हैं, जब आप अपर बर्थ से सट जाते हैं. न कोई आपसे बातचीत करता है, न सवाल-जवाब करता है, न कोई पूछता है कि - आप कहाँ से चढ़े, और न कोई पूछता है कि – आप कहाँ उतरेंगे. टिकट चेकर के अलावा कोई दूसरा आपका नाम तक नहीं पूछता. और ये सब कुछ दोगुना हो जाता है – जब आपकी यात्रा स्लीपर में नहीं, बल्कि ट्रेन के ऐ.सी. थर्ड टायर कोच में हो रही हो.

“अपने में रहना, किसी से कुछ न कहना, और अकेले अपनी यात्रा में आगे बढ़ते रहना.” – मेरी जीवनशैली कुछ ऐसी ही है, और इसलिए किसी भी रेल-सफ़र के दौरान मेरी पहली पसंद होती है – अपर बर्थ. मैं जब भी ऑनलाइन रिज़र्वेशन करता, या किसी से करवाता तो बर्थ प्रिफ़रेंस में हमेशा अपर बर्थ होती, और इसलिए अपनी हर यात्रा में मुझे वही मिलती. मैं उसे किसी के साथ बदल नहीं सकता, और न उसे किसी के साथ बाँट सकता हूँ. अपर बर्थ की मेरी ज़रूरत और उससे मेरे रिश्ते के आगे “मोरल साइंस” के तमाम पाठ, सीख और सिद्धांत भी गौण हैं, शून्य हैं. अपर बर्थ के साथ कोई समझौता नहीं, कोई कॉमप्रोमाईज़ नहीं.

उस रोज़ पंजाब मेल के कोच बी-4 की बर्थ नंबर 51 मुझे अलॉट हुई थी. प्लेटफ़ॉर्म नंबर 2 की फ़र्श पर जड़े लाल-पीले टाइल्स पर चलते हुए, मैं वहां पहुँच जाना चाहता था जहाँ मेरे हिसाब से ट्रेन का कोच बी-4 आता. ट्रेन के आने का अनाउंसमेंट नहीं हुआ था, और इसलिए मैं धीरे-धीरे चल रहा था. ऊपर आसमान में बादल भी धीरे-धीरे चल रहे थे और धीरे-धीरे ही शायद धूप को चलता कर देना चाह रहे थे.

मैं स्टेशन पर बनी टीन की उन छोटी-छोटी छतों में से एक के नीचे जाकर खड़ा हो गया, जिनके नीचे रेलवे की वो पारंपरिक लाल-सफ़ेद, पत्थर की बनी बेंच रखी रहती हैं. “लाल और सफ़ेद” पता नहीं क्यों हमेशा से ही मुझे सरकारी रंग लगते हैं, सरकार के रंग लगते हैं – लाल और सफ़ेद.

सभी ओर से चलकर आ रहे बादल अब होशंगाबाद स्टेशन के ऊपर घिर आए थे, और दिल्ली की ओर से आने वाली पंजाब मेल एक्सप्रेस होशंगाबाद स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म नंबर 2 पर आ कर रुक गई थी. शाम के छह बज चुके थे, और आस-पास हल्का कुहासा फैलने लगा था.

मेरी उम्मीद के अनुरूप कोच बी-4 ठीक मेरे सामने आकर लगा, और मैं उसके अंदर दाख़िल हो गया.  मैंने ऐ.सी. कम्पार्टमेंट का दरवाज़ा खोला और अपने माथे पर ठंडी हवा को महसूस करते हुए भीतर की ओर अग्रसर हो गया. बर्थ नंबर 1 से लेकर 45 तक को पीछे छोड़ते हुए मैं वहां पहुँच गया, जहाँ तय था कि मैं पहुंचूंगा. हम बस अपना निकलना तय कर सकते हैं, पहुंचना तो पहले से ही तय है.

बर्थ नंबर 51 के क़रीब पहुंचकर मैंने लोअर बर्थ के नीचे अपने जूते सरका दिए. बैग को ऊपर अपनी बर्थ पर जमा दिया, और अलग-अलग बर्थ पर बैठे अपने हम-सफ़र राहगीरों को लगभग न देखते हुए ऊपर चढ़ गया. बैग को बर्थ के एक कोने में खोंस दिया, और फिर उसमें से पानी की बोतल निकाल कर  उसे उस एलुमिनियम के खांचे में रख दिया, जो बोतल रखने के लिए हर बर्थ के साइड में दिया जाता है. वहीँ साइड में मैंने अपने बैग से निकाली कहानियों की एक किताब भी रख दी. बैग के आगे मैंने तकिया रख दिया, बर्थ के ऊपर चादर बिछाई, और पैर पर कम्बल डालते हुए, ख़ुद को पीठ के बल तकिये पर डाल दिया. इस पूरी प्रक्रिया को पूरा करने में मुझे उतना ही वक़्त लगा, जितना वक़्त ट्रेन को स्टेशन छोड़ने के लिए लगा. “लेखक हूँ.” का भ्रम या “लेखक होना चाहता हूँ.” का सपना अपने अंदरूं में पाले बैठा हर व्यक्ति, अपनी हर यात्रा में अपने साथ कुछ किताबें अवश्य रखता है. यात्रा के बीच उन्हें पढ़ना एकदम अलग मसला है, लेकिन किताबें अपने साथ रखता ज़रूर है.

मैं पाँव हिलाते हुए उस समय तक कुछ बे-चैन लेटा रहा, जब तक कि टिकट चेकर नहीं आ गया. हर बार अपनी बर्थ पर बैठ जाने के बाद मैं इंतज़ार करता सफ़ेद शर्ट और उस पर लाल टाई लटकाए उस टिकट चेकर का जो अपने हाथ में कई पन्नों के लम्बे चार्ट लेकर आता है और हर बर्थ पर हाथ मारते हुए पूछता है – “हाँ! आपका बताइए.....” और जवाब में हर यात्री उसे बस अपनी बर्थ का नम्बर और अपना नाम बता देता है. लाल और सफ़ेद हमेशा से ही मुझे सरकारी रंग लगे हैं, सरकार के रंग लगे हैं – लाल और सफ़ेद.

टिकट चेकर की इस टिकट चेकिंग प्रक्रिया में हमेशा बाधा डालने के लिए, हर कोच में एक ऐसा आदमी होता ही है जो अपनी बर्थ पर नहीं होता. वो किसी और की बर्थ पर आ कर बैठा रहता है और बदले में अपनी बर्थ किसी और को दे चुका होता है. मामले की जांच करने के लिए टिकट चेकर उस आदमी को अपने साथ उस बर्थ तक लेकर जाता है, जो रेलवे ने उसे अलॉट करी है. कुछ मिनिट बाद वो आदमी तो लौटकर आ जाता है, लेकिन टिकट चेकर फिर कभी उस कोच में वापस नहीं आता.

खैर टिकेट चेकर आया, और आते ही उसने पूछा – “आपका बताइए.......”

“फ़िफ्टी वन, प्रद्युम्न.....” मैंने लेटे-लेटे कहा और फिर अपने बैग की तरफ़ मुड़कर अपने इयर-फ़ोंस निकाल लिए. मुंबई का मेरा सफ़र शुरू हो चुका था.

होशंगाबाद स्टेशन से ट्रेन में बैठने से लेकर, दादर स्टेशन पर उतरने तक – बीच के कुछ स्टेशनों पर मुझे क्या करना है – मुझे अच्छी तरह से मालूम था. एक तरह का इवेंट-फ्लो था, जिसे मैं अपनी हर मुंबई यात्रा के दौरान निभाता था. इटारसी स्टेशन पर चाय के लिए उतरना, और फिर खंडवा स्टेशन पर कुछ खाने के लिए. और इसके बाद बुरहानपुर स्टेशन पर यूँही टहलने के लिए कुछ देर अपनी रेल-बोगी से उतर जाना. मैं अपने हर सफ़र के दरमियाँ यही सब करता और फिर बुरहानपुर के बाद ऐसे सोता, कि मेरी नींद सुबह सीधे कल्याण स्टेशन आ जाने पर, या उसके कुछ पहले खुलती.

उस रोज़ भी मैंने यही सब किया और जैसा की इवेंट-फ्लो में लिखा था – ट्रेन के बुरहानपुर स्टेशन छोड़ने के कुछ ही समय बाद मैं सो गया. कोच बी-4 के अंदर की सभी लाइटें बंद कर दी गईं, और भीतर मौजूद हर शख्स अपनी-अपनी बर्थ पर कम्बल तानकर सो गया.

रात के क़रीब साढ़े ग्यारह बजे कुछ ऐसा घटा – जिसका ज़िक्र मेरे इवेंट-फ्लो में नहीं था. किसी अंग्रेज़ी लेखक का कथन है कि – “जब मनुष्य अपने जीवन के लिए कोई योजना बना रहा होता है, तब ईश्वर उसे देख मुस्कुरा रहा होता है.” मेरे इवेंट-फ्लो के अनुसार तो मेरी नींद सीधे सुबह कल्याण स्टेशन पहुंचकर खुलनी थी. लेकिन मेरी आँखें रात ही में क़रीब साढ़े ग्यारह बजे उस समय खुल गई, जब एक बुज़ुर्ग व्यक्ति ने मेरे पैरों पर हाथ रखते हुए हल्के स्वर में आवाज़ दी – “सर....सर.....”

मैं हड़बड़ा कर उठा और सबसे पहले अपनी जींस में रखे पर्स की शिनाख्त की, उसके बाद मेरा हाथ बगल में रखे अपने मोबाइल पर गया, फिर अपने चश्मे और इयर-फ़ोंस पर और फिर आख़िर में किताब पर. बैग तो सर के नीचे जस का तस रखा ही हुआ था.

मैंने आँखें मलते हुए नीचे देखा तो बस इतना समझ सका कि वहां 2 आदमी खड़े हुए हैं – एक बुज़ुर्ग है, और दूसरा अधेड़. अधेड़ आदमी के हाथ में पन्नों जैसा कुछ देखकर मुझे अंदाज़ा हो गया कि वो टिकट चेकर है. लेकिन बुज़ुर्ग आदमी के बारे में मैं कोई अंदाज़ा नहीं लगा पा रहा था. ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी हुई थी, जो शायद भुसावल स्टेशन था. स्टेशन की मद्धिम रौशनी ट्रेन की खिड़की से होते हुए उन दो आदमियों की पीठ पर गिर रही थी. ब-ग़ैर चश्मे के मेरे लिए कुछ भी समझ पाना मुमकिन नहीं था. लेकिन इससे पहले कि मैं चश्मा लगाता, बुज़ुर्ग ने अपनी खर्राती हुई आवाज़ में कहा –

“सर.....हम दो लोग हैं और मेरी एक बर्थ बी-2 में है....आप बर्थ बदल सकते हैं क्या?”

बुज़ुर्ग की गर्दन ऊपर थी मेरी ओर, और टिकट चेकर की भी.

“आप अकेले हैं, और ये दो लोग हैं......इनकी एक लोअर बर्थ बी-2 में है......अगर आप ओके हैं तो मैं आपको बी-2 में इनकी बर्थ अलॉट कर सकता हूँ.....” टिकट चेकर ने अपने हाथ में रखा चार्ट देखते हुए कहा.

“प्लीज़ सर....बदल लेंगे क्या बर्थ.....” बुज़ुर्ग का चश्मा पीछे से आती रौशनी से चमक जाता था.

“सॉरी....मैं नहीं बदल पाऊंगा.......” मैंने बहुत कम वक़्त में अपना जवाब दे दिया. ट्रेन चल पड़ी, और टिकट चेकर भी बिना कुछ कहे आगे बढ़ गया.

बुज़ुर्ग के पीठ पर गिर रही रौशनी ओझल हो गई. और घुप्प अँधेरे में मैंने उनकी आवाज़ सुनी –

“कोई बात नहीं सर....थैंक यू....”

मैं कम्बल डालकर, तकिये पर सर रखकर वापस लेट गया, लेकिन पूरी रात ठीक से सोया नहीं. सारी रात मुझे अपने पेट, पीठ और सीने में एक तरह का अपराध-बोध महसूस होता रहा. गिल्ट-ट्रिप.

अपने कम्बल को थोड़ा सा उघाड़ कर मैंने नीचे देखा तो उसी बुज़ुर्ग की एक आकृति, एक छवि नज़र आई. वो अब भी वहीँ खड़ा था, जहाँ से उसने मुझे आवाज़ दी थी – “सर.....सर....” वो निश्चल था, एकदम निस्तब्ध. और लोअर बर्थ पर सोये या बैठे किसी दूसरे व्यक्ति से कह रहा था –

“जलगाँव में देखते हैं....शायद! कोई बर्थ बदल ले....”

वहां नीचे लोअर बर्थ पर कोई भी हो सकता था, जो उस बुज़ुर्ग के साथ था. उसकी बुज़ुर्ग पत्नी, बुज़ुर्ग भाई, जवान बेटा या बेटी, बीमार बेटा या बेटी, पोता या पोती – कोई भी. मेरी कल्पना पहले से ही उस बुज़ुर्ग आदमी की तस्वीर गढ़ने में लगी हुई थी, जिसे मैंने लगभग अँधेरे में ही देखा और सुना था. और अब उस पर एक अनजान व्यक्ति का चित्र बनाने का भी भार आ गया था, जिसके बारे में मुझे सिर्फ़ इतना मालूम था – कि वो एक इंसान है. बस!

बहुत सोचने के बाद मेरे ज़हन ने उस बुज़ुर्ग आदमी को, मेरी ही स्मृतियों में से निकालकर, किसी ऐसे बुज़ुर्ग रिश्तेदार की शक्ल दे दी – जिससे मैं सालों से नहीं मिला था. और उस एक अनजान व्यक्ति को शक्ल मिली उसी बुज़ुर्ग रिश्तेदार की पत्नी की. लेखक रूसो का कथन है – “स्मृति, कल्पना का अभाव है.”

और मुझे लगा जैसे मैंने अपनों को ही नकार दिया. मैंने अपनों की ही दरख्वास्त नहीं सुनी. मैंने अपनों को ही अकेले उनके हाल पर छोड़ दिया. ये सब सोचते हुए, विचारों की गहराई में कहीं पर मुझे कुछ नींद मिल गई, और मैं गहरी नींद सो गया.

सुबह जब ट्रेन कल्याण स्टेशन से थोड़ा आगे कहीं पर एकदम से रुकी, तो मेरी नींद टूट गई.

“आगे ट्रैक पर पानी भर गया है, इसलिए गाड़ी रुक गई है.” आगे या पीछे की किसी बर्थ से आवाज़ आई. मैं उठा और चश्मे और पर्स को छोड़ कर अपने बाकी के सामान को वापस बैग में डाल दिया. नीचे उतरकर मैंने उस लोअर बर्थ को खाली पाया, जिस पर पिछली रात उस बुज़ुर्ग आदमी के साथ आया व्यक्ति लेटा था. बर्थ के एक कोने में घड़ी किया हुआ कम्बल और चादर रखी हुई थी, और उनके ऊपर ही बहुत करीने से तकिया जमा था. मैं उसी लोअर बर्थ पर खिड़की के पास जाकर बैठ गया. भारी बारिश हो रही थी, और ट्रेन की खिड़कियों पर नमी की पतली सी दरी बिछ गई थी. बाहर रेल की पटरियों से सटकर छोटे-छोटे जंगली झुरमुट उगे हुए थे और मेरी नज़र उन्हीं झुरमुटों में खोई हुई थी.

“वो दोनों शायद इगतपुरी उतर गए होंगे, या शायद नासिक. या फिर शायद! बस कुछ ही देर पहले कल्याण में उतरे हों....” मैं सोच रहा था. अचानक एक दचके के साथ ट्रेन चल पड़ी, और मेरा ध्यान बाहर से वापस ट्रेन के अन्दर आ गया.

“सर....सर....” कहीं पास से आवाज़ आई. मैंने अपनी गर्दन बायीं ओर मोड़ दी.

“गरम नाश्ता....इडली, पोहा, उपमा?” पैंट्री वाले ने पूछा.

मैंने न में सर हिला दिया. ट्रेन धीरे-धीरे दादर स्टेशन की ओर चलने लगी.

मेरा एक और सफ़र लगभग खत्म हो गया, और फिर एक बार मैंने – अपर बर्थ से कोई समझौता नहीं किया.


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3 comments:

  1. "... जैसे अपनो को ही नकार दिया" ये वाक्य कहानी खत्म होने के बाद भी साथ है. बहुत सुन्दर 👍🏻

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  2. हम बस अपना निकलना तय कर सकते हैं, पहुचना तो पहले से ही तय हैं
    बड़ी बड़ी दार्शनिक बातों को इतने हल्के से कह देना लेखक का निराला अंदाज हैं🙏

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