Thursday 9 June 2022

जाना था बैंगलोर, पहुँच गए इंदौर || कॉलेज एडमिशन || हिन्दी कहानी।

 


कक्षा बाहरवी की बोर्ड परीक्षा के नतीजे आए हुए एक महीना हो चुका था. जहाँ एक तरफ़ मेरे कई दोस्त देशभर के आईआईटी, आईआईएम, और एम्स में दाख़िला पाने की तैय्यारी में जुट गए थे, मैं किसी अच्छे से पत्रकारिता महाविद्यालय(कॉलेज) की खोज में लग गया था। मुझे दसवी से ही मालूम था कि मुझे इंजीनियरिंग, डॉक्टरी, या बैंकिंग नहीं करनी है। जब बाहरवी के बाद ये सवाल मेरे सामने आया कि मैं अपनी आगे की पढ़ाई किस सब्जेक्ट, या किस फ़ील्ड में करूँगा तो मैंने अपने 12 साल के स्कूली जीवन को एक बार सरसरी तौर पर फ़्लैशबैक में देखा, और ये पाया कि शुरू से लेकर आख़िर तक मैंने स्कूल में लिखने, और बोलने से जुड़े बहुत सारे काम किये हैं। इन दो कौशल(स्किल) से मिलता जुलता जो एक काम मुझे समझ आया वो था – पत्रकारिता. सो मैंने पत्रकारिता के कॉलेज तलाशने शुरू कर दिए। उत्तर से लेकर दक्षिण तक, और पूर्व से लेकर पश्चिम तक मैंने लगभग पचास कॉलेज देखे और उनमें से लगभग दस की प्रवेश परीक्षा दी।

कॉलेज खोज के इसी समय के दौरान एक दिन जब मैं इंदौर स्थित देवी अहिल्या विश्वविद्यालय की भोपाल में आयोजित प्रवेश परीक्षा देकर लौटा तो माँ ने मुझे एक लेटर दिया, जो शायद! मेरे नाम से आया मेरी ज़िंदगी का सबसे पहला लेटर था. लेटर में मेरे सिलेक्शन की ख़बर थी. बैंगलोर के क्रिस्टू जयंती कॉलेज के इंग्लिश जर्नलिज़्म  प्रोग्राम के लिए मुझे चुन लिया गया था. और अगले 10 दिन में मुझे कॉलेज कैम्पस पहुंचकर इंटरव्यू देना था. 

मैं भोपाल से शाम को लौट आया था. पिता जी अपने काम से रात में लौटे. खाने के टेबल पर बैठे हुए मैंने उन्हें पूरी कहानी बताई. पिता जी ने बड़ी मशक्कत करके अपने काम से 3 दिन की छुट्टी ली और हमने होशंगाबाद से बैंगलोर का रिज़र्वेशन करवा लिया. पिता जी एक प्राइवेट जॉब करते हैं, और उन्हें संडे की छुट्टी भी नहीं मिलती. उन्हें छुट्टी के लिए परेशान होता देख एक पल के लिए मुझे लगा कि – शायद! मुझे भी सरकारी नौकरी की तैय्यारी करनी चाहिए।

बहरहाल, ठीक सात दिन बाद हम उत्तरप्रदेश से कर्नाटक जाने वाली गोरखपुर-यशवंतपुर एक्सप्रेस का इंतज़ार इटारसी ज्न्ग्शन पर कर रहे थे. हमारा रिज़र्वेशन होशंगाबाद से था, लेकिन ये ट्रेन वहां रुकती ही नहीं थी, इसलिए अपने शहर से 17 किलोमीटर दूर इटारसी ज्न्ग्शन से हमें ट्रेन पकड़नी थी. ट्रेन का नाम गोरखपुर-यशवंतपुर था, लेकिन उसका आखिरी स्टेशन बैंगलोर ज्न्ग्शन था, और हमें वहीँ पहुंचना था. रात के दस-साढ़े-दस बजे के आसपास गोरखपुर-यशवंतपुर एक्सप्रेस इटारसी ज्न्ग्शन के प्लेटफ़ॉर्म नम्बर तीन पर आ कर रुकी. वहां ट्रेन रुकी, और यहाँ हमें मालूम चला कि हम तो प्लेटफ़ॉर्म नम्बर 2 पर खड़े हुए हैं. जीवन में कई बार कुछ मौके ऐसे ही बिना बताए वहां आ जाते हैं, जहाँ हम नहीं होते. हालाँकि, हम वक़्त रहते प्लेटफ़ॉर्म नम्बर तीन पर पहुँच गए और भागते हुए एस-12 डब्बे में घुस गए. हांफते हुए हमने सोचा कि चलो अब अपनी बर्थ पर बैठकर कुछ आराम करेंगे. लेकिन हमारी सोच की धज्जियाँ तब उड़ गई, जब हमने देखा कि हमारी रिज़र्व्ड बर्थ पर पहले से ही लोग सो रहे हैं. बर्थ पर, बर्थ के नीचे, दो बर्थ के बीच में, ऊपर-नीचे हर जगह, लोग ही लोग थे. बेसुध, निढ़ाल, सोते हुए , खर्राटे मारते, आड़े-तिरछे पड़े हुए लोग.

हमारे देश में लोगों से ज़्यादा, लोगों से जुड़ी समस्याएँ हैं. और उन सभी में से एक ये है  - कि यहाँ लोगों को अपनी ही जगह के लिए संघर्ष करना पड़ता है. जो जगह औपचारिक, सैद्धांतिक और नैतिक रूप से जिसकी है, उसे उसी के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है, लड़ना पड़ता है. सो हमें भी करना पड़ा – अपनी बर्थ के लिए संघर्ष.

पिता जी ने पहले समझाकर, फिर कुछ चड़कर और आख़िर में गुस्से में आकर हमारी बर्थ पर सो रहे लोगों को नीचे उतार दिया. इतने सब के बाद भी वे बड़े आराम से नीचे उतरे, बर्थ के नीचे सो रहे आदमी के नीचे से अपनी चप्पलें निकालीं, पहनीं और फिर ये कहते हुए ट्रेन की भीतरी मद्धम रौशनी में विलीन हो गए कि –

“एक सीट बुक कर लिए, सोचते हैं ट्रेन खरीद लिया.......”

पिता जी और मैं अपनी-अपनी बर्थ पर चादर बिछाकर सो गए. इतनी गर्मी थी कि जो चादर हम ओड़ने के इरादे से लाए थे, उसे ही बिछाकर सो गए. 32 घंटे की ट्रेन यात्रा के बाद हम यशवंतपुर पहुंचे. सुबह-सुबह कोई छह बजे के आसपास मेरी नींद खुली और मैंने देखा कि ट्रेन एक बड़े लम्बे-चौड़े स्टेशन पर रुकी हुई है. “वेयर इज माय ट्रेन.” नाम के मोबाइल एपलिकेशन के अनुसार सुबह 5:50 पर ट्रेन को बैंगलोर पहुंचना था. अपनी हाथ-घड़ी में जैसे ही मैंने देखा कि छह बज गए हैं, मैंने झट से अपना हाथ चादर के नीचे कहीं दबे पड़े मोबाइल की ओर बढ़ा दिया. मैं देखना चाहता था कि कहीं ट्रेन "राईट टाइम" तो नहीं चल रही, और कहीं हम बैंगलोर स्टेशन पहुँच तो नहीं गए. मैंने मोबाइल उठाया और अपनी आँखें मसलते हुए उसकी पॉवर बटन दबाई. मोबाइल चालु नहीं हुआ. उस दिन, उस समय, उस क्षण मुझे उस दुकानदार पर बड़ी खीज, बड़ी किसमिसाहट आई जिसने मुझे ये मोबाइल बेचते हुए कहा था – "48 घंटे चलेगा. 48 घंटे माने, पूरे 2 दिन. बस एक बार 100 परसेंट चार्ज कर लो, और चलाओ 2 दिन तक मस्त." उस दुकानदार ने अपने गुटके वाले लाल दांतों में मुस्कुराते हुए कहा था – मस्त! और यहाँ सुबह के छह बजे गोरखपुर-यशवंतपुर एक्सप्रेस में बंद मोबाइल की वजह से मैं हो चुका था - पस्त! 32 घंटे की यात्रा ने हमें आधा, और मोबाइल को पूरा बंद कर दिया था.

मैंने अंदाज़ा लगाया और पिता जी को उठा दिया. हमने फटाफट अपने बैग लिए और ट्रेन से उतर गए. स्टेशन के बाहर निकलकर जब अंगडाई लेते हुए मैं स्टेशन की तरफ़ पलटा तो मैंने अपनी अध-जगी आँखों से देखा – “यशवंतपुर ज्न्ग्शन.” हम एक स्टेशन पहले उतर गए थे. और ट्रेन बैंगलोर स्टेशन के लिए निकल गई थी.

मैंने हताश होकर ये बात पिता जी को बताई, जो नाश्ते की कोई दुकान ढूँढ रहे थे.

“अरे! तभी मैं सोचूं कि "राईट टाइम" कैसे आ गई ये गाड़ी....चलो अब क्या कर सकते हैं...नाश्ता करते हैं.” उन्होंने कहा. विडंबना है कि भारतीय रेल की किसी ट्रेन का देरी से आना नहीं, समय पर आ जाना लोगों को हैरान कर देता है.

नाश्ते की दुकान पर चाय पीते हुए मैं इस बात से परेशान था कि अब यहाँ से बैंगलोर पहुँचते-पहुँचते हम कहीं इतने लेट न हो जाएँ कि कॉलेज में एडमिशन के समय तक पहुँच ही न पाएं. वैसे भी हम एडमिशन इंटरव्यू के आख़िरी दिन बैंगलोर पहुंचे थे. परेशानी बड़ी थी, लेकिन पिता जी के लिए कुछ छोटी थी. समस्या के बीच में शांत रहना, और उससे बाहर निकलने के हल खोजना, पिता जी की कई ख़ूबियों में से एक है.

‘जो होता है, अच्छे के लिए होता है...” उन्होंने कहा. और नाश्ते और चाय के पैसे देने के लिए वो दुकान में अन्दर चले गए. सुबह के साथ बज चुके थे और हमें दस बजे तक क्रीस्टू जयंती कॉलेज पहुंचना था.

यशवंतपुर पहुंचते ही भारत की भाषाई विविधता से हमारी भेंट हुई. एक ऑटो वाला नाश्ते की दुकान से ही हमारे पीछे हो लिया. मुझे पूरा यकीन है कि भारत के सभी शहरों के ऑटो वालों को ये वरदान, ये शक्ति प्राप्त है - कि वो किसी का सिर्फ़ चेहरा देखकर ये जान जाते हैं कि सामने वाला व्यक्ति उनके शहर का है या नहीं. यशवंतपुर स्टेशन के बाहर मिले इस ऑटो वाले ने भी हमारे माथे की शिकन को पढ़ लिया, और हमारे पास आ कर बोला –

Where sir? Come in auto?”

हमने उसे कुछ देर नज़र-अंदाज़ किया लेकिन फिर समय की कमी को देखते हुए पिता जी ने उससे कहा –

“क्रिस्टू चलना है...”

“Yes Christ Yes....Sit, Sit...”

हमें लगा कि हर सवारी को अपने ऑटो में बैठाने से पहले वो अपने इश्वर को याद करता होगा इसलिए क्राइस्ट, क्राइस्ट कह रहा है. हम ऑटो में बैठ गए. रास्ते में अंग्रेज़ी-हिन्दी के जोड़-तोड़ से बनी एक अलग ही ज़बान में बात करते हुए ऑटो वाले ने हमें बताया कि हम ने यशवंतपुर स्टेशन उतरकर ठीक किया, क्योंकि बैंगलोर से वो जगह बहुत दूर थी जहाँ हमें पहुंचना था.

हम साढ़े सात बजे ऑटो में बैठे थे. डेढ़ घंटे बाद, यानी 9 बजे ऑटो एक बड़े से कैंपस के सामने आ कर खड़ा हो गया. हमने सोचा कि अगर यशवंतपुर स्टेशन से ही यह जगह डेढ़ घंटा दूर है, तो फिर बैंगलोर स्टेशन से न जाने कितनी दूर होती. हम झटपट ऑटो से नीचे उतरे और कैंपस की ओर मुड़े. मैंने देखा कि हम “क्राइस्ट यूनिवर्सिटी” पहुँच गए हैं. मेरा दिमाग हिल गया.

You have brought us to a wrong place.....” मैंने ऑटो वाले से कहा.

“No, this is right...this is Christ University.” ऑटो वाला ऑटो से बाहर निकल आया.

“We want to go to Kristu Jayanti college, not Christ University....” मैंने झल्लाते हुए कहा.

“Oh! big confusion happened....” ऑटो वाला हँस दिया.

दो बातें थीं जिसकी वजह से उस दिन मैंने उस ऑटो वाले से लड़ाई नहीं की – पहला कारण तो ये कि बहस का समय नहीं था, और दूसरा ये कि जहाँ मैं खड़ा था, वो ना ही मेरा शहर था, और ना मेरा स्टेट. वहां पर मेरे सोर्स, मेरे कॉन्टेक्ट्स - ज़ीरो थे. हम जिस तेज़ी से ऑटो से उतरे थे, उसी तेज़ी से ऑटो में वापस बैठ गए, और इस बार सही मंज़िल की ओर बढ़ चले. मैं सर झुका कर बैठा रहा, और बस पिता जी की कही वही बात सोचता रहा – “जो होता है, अच्छे के लिए होता है...”

क़रीब सवा नौ(9:15) बजे हम क्राइस्ट यूनिवर्सिटी के सामने से क्रिस्टू जयंती कॉलेज के लिए रवाना हुए. इंटरव्यू शुरू होने में सिर्फ़ 45 मिनिट बचे थे, और ऑटो वाले के हिसाब से हम कॉलेज से 30 मिनिट दूर थे. सुबह का वक़्त था सो शहर में कहीं पर किसी तरह का ट्रेफ़िक जाम नहीं मिला और हम ऑटो की रफ़्तार से कॉलेज की ओर बढ़ते रहे. मैं सुबह छह बजे का उठा था, सो हवा के झोंकों से मेरी आँख लग गई. और कुछ समय बाद “We want justice, we want justice....” के नारों से खुल भी गई. मैंने देखा कि हमारे ऑटो के आगे हर तरफ़ से बहुत से लोग चले आ रहे थे, उन सभी ने सफ़ेद कपड़े पहन रखे थे, और कुछ के हाथों या माथे पर काली पट्टी बंधी हुई थी. वे सब चीख-चीख कर, हाथ हवा में लहरा लहरा कर, काले झंडे फेहरा फेहरा कर कह रहे थे – “We want justice...”  हमारे देश में इतने लोग, इतनी जगहों पर, इतनी तरह से न्याय मांग रहे हैं कि कभी-कभी मैं ये सोचने पर मजबूर हो जाता हूँ - कि इस देश का सारा न्याय आख़िर जा कहाँ रहा है? क्योंकि अदालतों से कुछ न कुछ तो निकल ही रहा होगा? और जो निकलता है, वो कहीं न कहीं तो पहुँचता ही है.

न्याय मांग रही उस भीड़ से मैं कैसे कहता कि अगर मैं समय पर कॉलेज नहीं पहुंचा तो मेरे साथ घोर अन्याय हो जाएगा. और फिर मैं कहाँ मांगने जाऊँगा – जस्टिस!

खैर! इंतज़ार करने के सिवाय हमारे बस में कुछ नहीं था, सो हम न्याय के पीछे पागल उस भीड़ के निकल जाने के बाद वहां से आगे बढ़ सके, जहाँ हम रुक गए थे. कॉलेज पहुँचते-पहुँचते, ऑटो वाले के पैसे देते-देते, और कॉलेज के गेटकीपर को हमारे लोअर-टीशर्ट में आने के पीछे के कारण समझाते-समझाते साढ़े दस बज गया. और केवल आधे घंटे की देरी की वजह से इंग्लिश जर्नलिज़्म की तमाम सीट्स भर गयीं. मेरा नाम “एब्सेंट” की लिस्ट में चढ़ा दिया गया और हमसे कहा गया कि हम मदद के लिए कॉलेज के शीर्ष व्यक्ति – फ़ादर “शीर्ष” से बात कर लें.

हम जितनी फुर्ती में फ़ादर शीर्ष के कैबिन में घुसे थे, उतनी ही फुर्ती से उन्होंने हमें बाहर का रास्ता दिखा दिया. हमारे मुंह पर उनके कैबिन का दरवाज़ा पड़ा, जिसपर लिखा हुआ था – “Discipline is all at Kristu Jayanti.”

लेकिन ये कथन तो क्रिस्टू जयंती कॉलेज का था, पिता जी का तो अब भी कहना यही था - कि जो होता है अच्छे के लिए होता है. हालाँकि पिता जी इस बात को मुझसे बेहतर तरीके से जानते थे कि उस दिन की हमारी आधे घंटे की देरी से कहीं मेरे कॉलेज एडमिशन में एक साल की देरी ना हो जाए.

अपनी मायूसी और बे-बसी समेटकर हम वापस यशवंतपुर स्टेशन के लिए चल पड़े. दोपहर चार बजे हमारी घर-वापसी की ट्रेन – संपर्क क्रान्ति एक्सप्रेस हमें वहीँ से मिलने वाली थी. लगभग 2 दिन के समय में मेरे मन की हालत फ़िल्म इकबाल के गीत - “आशाएं खिलें दिल की, उम्मीदें हँसें दिल की....” से, फ़िल्म खोसला का घोसला के गीत - “अब क्या करेंगे भैया, अब कहाँ जाएँगे भैया....” तक गिर गई थी. दिमाग सुन्न था, और दिल सुनसान. और तब यशवंतपुर स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म नम्बर एक के वेटिंग रूम में मेरे पिता जी ने मुझे एक किस्सा सुनाया. वो हम दोनों का फ़ोन वेटिंग एरिया के ही एक कोने में चार्जिंग पर लगाकर आए और मेरे बगल वाली ग़ैर-आरामदायक कुर्सी पर बैठकर कहने लगे -

“भारत के राष्ट्रपति रहे अब्दुल कलाम एक पायलट बनना चाहते थे और पायलट की नौकरी के इंटरव्यू के लिए उन्हें देहरादून बुलाया गया था. पर वहां उनका सिलेक्शन नहीं हुआ. वो बहुत निराश और दुखी हुए, लेकिन वापसी में वो दिल्ली में एक और इंटरव्यू देने पहुंचे और वहां उन्हें चुन लिया गया. वो दूसरा इंटरव्यू – डी.आर.डी.ओ. - डिफेन्स रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गनाइज़ेशन का था, जहाँ काम करते हुए, और जहाँ से आगे बढ़ते हुए ही एक दिन अब्दुल कलाम मिसाइल मैन ऑफ़ इंडिया बने, और फिर भारत के राष्ट्रपति. उन्हें तो पायलट बनना था, लेकिन इश्वर को उन्हें वैज्ञानिक और एक देश का राष्ट्रपति बनाना था.”

“जो होता है, अच्छे के लिए होता है.” पिता जी ने कहा और आँख बंद करके सो गए. पिता जी के इस कथन की आवाज़ स्टेशन के शोर, वेटिंग रूम की खटर-पटर और लगभग मर चुके पंखे की कण-कण से ऊपर उठकर मेरे कानों में पड़ी. और कुछ देर बाद मैं भी नींद के आगोश में चला गया. दोपहर चार बजे यशवंतपुर रेलवे स्टेशन से संपर्क क्रान्ति एक्सप्रेस के S-1 डब्बे में चढ़ते हुए मेरे दिमाग में बस यही बात चल रही थी कि अगर अगले 1-2 महीने में किसी कॉलेज में एडमिशन नहीं लिया तो पूरा एक साल फ़िज़ूल चला जाएगा, बर्बाद हो जाएगा. पिता जी के दिमाग में भी शायद यही सब चल रहा था. 

अपने समय से बीस मिनिट देरी से सम्पर्क क्रांति एक्सप्रेस ने यशवंतपुर स्टेशन छोड़ दिया, और हम एडमिशन की जगह एम्बेरेसमेंट लेकर वापस मध्यप्रदेश की ओर आने लगे. घर तक का आधा रास्ता कट जाने के बाद पहली बार मेरे और पिता जी के बीच बातचीत उस वक़्त शुरू हुई जब मेरे स्कूली दोस्त अद्वेत ने मुझे व्हाट्सएप मैसेज करके बताया कि इंदौर के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के एंट्रेंस एग्ज़ाम का रिज़ल्ट आ गया है. ये वही एग्ज़ाम था जिसे देकर घर आने के बाद मुझे क्रिस्टू जयंती कॉलेज का सिलेक्शन लेटर मिला था, और मैं दिए हुए एग्ज़ाम के बारे में सबकुछ भूल गया था.

“इसमें तेरा हो जाएगा.....देख लेना...” पिता जी ने अपनी आशावादी विचारधारा का परिचय एक और बार दिया.

मैं रिज़ल्ट चेक करने के लिए देवी अहिल्या यूनिवर्सिटी की वेबसाइट खोल ही रहा था कि मुझे याद आया – “एडमिट कार्ड तो घर पर है, और रोल नम्बर मुझे याद नहीं.” अब एक और नए तरह के इंतज़ार ने मुझे घेर लिया. और मैं अपनी याद्दाश्त पर ज़ोर दे देकर वो रोल नम्बर याद करने की कोशिश लगा जिसे मैं भूल गया था. संपर्क क्रान्ति एक्सप्रेस बढ़ती चली जा रही थी, और उसके साथ बढ़ती जा रही थी मेरे मन की चिंता – कि रिज़ल्ट क्या आया होगा?

ज़िन्दगी में जब किसी समस्या से बाहर निकलने के सभी दरवाज़े बंद हो जाते हैं, तब शायद! कभी-कभी भगवान भी कॉनफ्लिक्ट रेज़ करने के इरादे से एक-आध खिड़की खोलने की जगह, खिड़की पर टंगे परदे भी गिरा देता है. जिस तरह गोरखपुर-यशवंतपुर एक्सप्रेस मेरे शहर होशंगाबाद न रुक कर 17 किलोमीटर दूर इटारसी स्टेशन पर आती थी, उससे एक कदम आगे जाकर संपर्क क्रांति एक्सप्रेस न होशंगाबाद रुकती थी, और न इटारसी – वो रुकती थी सीधे भोपाल. हमारी आँखों के सामने से होशंगाबाद स्टेशन गुज़र गया और हम रात के 11 बजे भोपाल ज्न्ग्शन पर उतरे. वहां से रात के 11:15 बजे हम नर्मदा एक्सप्रेस में बैठे और देर रात, या कहूँ कि अल-सुबह 12:15 बजे होशंगाबाद पहुंचे. होशंगाबाद रेलवे स्टेशन वो जगह है जहाँ आपको भरी दुपहरी में भी ऑटो, रिक्शा जैसा कोई वाहन दिखाई नहीं देगा, तो फिर ये तो देर रात का वक़्त था. उस रात हम पैदल ही घर की तरफ़ चल पड़े.

घर पर मेरे छोटे भाई ने अध-खुली आँखों से दरवाज़ा खोला और पीछे सोफ़े पर लेटी हुई माँ ने सवाल करना शुरू कर दिया. समय कोई भी हो, बेटे के घर आते ही माँ के सवाल शुरू हो जाते हैं. मुझे माँ का कोई सवाल सुनाई नहीं दिया, मैंने अपना बैग कुर्सी पर पटका, ऊपर वाले कमरे की चाबी ली और सीढ़ियों पर दौड़ गया. पत्थरों वाली अपनी किताबों की अलमारी में से मैंने आर.डी. शर्मा नाम की किताब निकाली और उसमें रखा एडमिट कार्ड अपने सामने रखकर रोल नम्बर देखा. और फिर अपना रिज़ल्ट चेक किया. देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर के सी.इ.टी. - कॉमन एंट्रेंस टेस्ट में मेरे 104 नम्बर आए, मेरी रैंक 123 थी. इतने में मुझे पूरी यूनिवर्सिटी का कोई भी कॉलेज मिल सकता था. उस रात मैं चैन की नींद सोया. भगवान ने मेरी ज़िन्दगी में आए कॉनफ्लिक्ट को अच्छा ख़ासा रेज़ करके resolve कर दिया था. वो जिसे हम - भगवान, अल्लाह, नानक, क्राइस्ट कहते हैं – ग़ज़ब का कहानीकार है.

बाद में मेरा एडमिशन देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग, यानी कि Journalism and Mass Communication Department में हो गया. घर से दूर बैंगलोर कि जगह मेरा दाख़िला घर के पास इंदौर शहर के एक कॉलेज में हुआ. जहाँ एक ओर क्रिस्टू जयंती एक प्राइवेट कॉलेज था, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय एक सरकारी यूनिवर्सिटी थी. अगर मेरा एडमिशन मेरी इच्छा अनुसार, मेरी ख्वाहिश के हिसाब से बैंगलोर के उस कॉलेज में हो गया होता तो आज मैं ये कहानी हिन्दी में नहीं, शायद! अंग्रेज़ी में लिख रहा होता.

“यूँ होता तो क्या होता....” पर तो बार-बार, लगातार, बड़ी लम्बी बहस हो सकती हैं, मगर अपने कॉलेज-एडमिशन के मामले में मैं आज तक यही मानकर चल रहा हूँ – कि जो हुआ, अच्छे के लिए हुआ।

Keep Visiting!

No comments:

Post a Comment

पूरे चाँद की Admirer || हिन्दी कहानी।

हम दोनों पहली बार मिल रहे थे। इससे पहले तक व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम पर बातचीत होती रही थी। हमारे बीच हुआ हर ऑनलाइन संवाद किसी न किसी मक़सद स...