Saturday 4 July 2020

दो वड़ा-पाव।



वह मुझे जून की सहमी हुई धूप में नज़र आया। दुपहरी की उदासीन सड़क पर एक लोडिंग वैन के पीछे से, यकायक वह मेरे ठीक सामने आ गया था। मैंने अपने हाथ में रखा वड़ा-पाव चबाते हुए उसे एक क्षण के लिए देखा और फिर गर्दन ऊपर बादलों की ओर उठा दी। "पानी आने से पहले वापस ऑफिस हो लेता हूँ" मैं सोच रहा था।  बादल अपना रंग  बदल रहे थे। क्या आपने कभी बादलों का कैरेक्टर स्केच लिखने के बारे में सोचा है? कौनसा शेड देंगे उसे - वाइट, ब्लेक या ग्रे?

मैंने गर्दन नीचे कर ली और वडा-पाव का एक और कौर मुँह में भर लिया। लोडिंग वैन के पीछे से अचानक निकल आया शख्स अब मेरे ठीक सामने खड़ा था। उसके माथे पर एक हरा धारीदार गमछा बंधा हुआ था।  गमछे में पसीना के धब्बे साफ़ दिखाई पड़ते थे। रुकिए, उन्हें तमगे कहना उचित रहेगा। काम की सफलता के निशान हैं वे, या शायद असफलता के। दरअसल पसीना मेहनत की अलामत है।  सफलता-असफलता मेहनत के बाद की चीज़ें हैं। बहरहाल, किसी भी सूरत में उन्हें धब्बा तो नहीं कहा जा सकता। 


उसके माथे पर गमछा था और नीचे चेहरे पर झुर्रियां लिपटी हुईं थी। उसकी भाग्य-रेखाएं उसकी शक्ल पर देखी जा सकती थीं। बूढ़े कंपकंपाते हुए हाथों को देखकर साफ़ समझ आता था कि उसके हाथ की भाग्य रेखाएं कब कि झड़ चुकी हैं। जो बची हैं, वे चेहरे पर हैं और शायद माथे पर भी।  पर माथे की रेखाएं गमछे के पीछे छिपी हुई हैं। कौनसा ज्योतिष शक्ल की रेखाएं पढ़ सकता है? 


एक लाल शर्ट जिसकी बटने खुली हुई थीं, उसने अपने शरीर पर डाली हुई थी। उसकी सुकड़ी हुई मासपेशियों से उसके सिकुड़े हुए जीवन का पता चलता था और उसके गुठने से अकड़े पैरों में, जिनके इर्द-गिर्द एक सफ़ेद धोती लिपटी हुई थी उसके जीवन की थकान घुली हुई थी।


वह बार-बार लोडिंग वैन के पीछे मौजूद किसी चीज़ को पलटकर देख रहा था। उसकी आंखों में प्रश्न थे जो संभवतः उस शख्स की ओर केंद्रित थे जो कि अब भी लोडिंग वैन के पीछे था।(हम हमेशा था क्यों लिख देते हैं?)


अब वह उस वडा-पाव की दुकान के बिल्कुल पास आ गया था जहाँ खड़ा होकर मैं अपना वडा-पाव चबा रहा था। उसने अपनी आँखें अब दुकान पर टिका दी थी। आँखों से प्रश्न अब खत्म हो चुके थे, या शायद ट्रांसफर हो गए थे - उस शख्स को जो अब भी लोडिंग वैन के पीछे था।(फिर था लिख रहा हूँ।) वह दुकान पर लगे रेट-बोर्ड को पढ़ने लगा। मेरे वडा-पाव चबाने की स्पीड बेहद कम हो गई थी।  बादल अपना रंग तेज़ी से बदल रहे थे। 


"ये क्या पढ़ रहा है?" मैंने खुद से प्रश्न किया (हम सर पर गमछा लपेटे और पैर में धोती पहने को अनपढ़ ही मान कर चलते हैं। पूर्वाग्रह से पीड़ित हम लोगों ने ना-जाने कब अपनी परम्पराओं को पिछड़ेपन से जोड़कर देखना शुरू कर दिया। ) आखिर मैंने अपना वड़ा-पाव खत्म कर दिया। "चाय देना।" मैंने दुकान के भीतर खड़े अधेड़ से कहा। "2 वडा पाव" गमछे वाले शख्स ने अपने थरथराते हाथों को अपनी शर्ट की ऊपरी जेब में डालते हुए कहा। "20 रुपए" अधेड़ ने कागज़ में लपटे दो वड़ा-पाव उसकी ओर बढ़ाए। उसके हाथ जेब में ही कुछ देर के लिए ठिठक गए। कुछ देर बाद उसने जेब से पैसे निकाले और उन्हें अधेड़ की ओर बढ़ाते हुए कहा - 4 पाव। "हां ये लो।" अधेड़ ने फिर वही कागज़ उसकी ओर बढ़ाया जिसमें 2 वड़ा-पाव थे। "नहीं सिर्फ पाव दो।" उसने अधेड़ के हाथों में दस रूपए का एक सिक्का रख दिया। 


 "दो या चार, कितने पाव चाहिए? क्या कहना चाहते हो?" अधेड़ सब समझकर भी फ़िज़ूल की बातों में पढ़ रहा था। मैंने उसे चाय के पैसे दिए और अपने रास्ते हो लिया। मेरा रास्ता गमछे वाले से ठीक उलटा था। मैंने एक बार उसे मुड़कर देखा - वह पाव लिए दुकान से बाहर आ रहा था। उसे देखने के चक्कर में, मैं एक हाथगाड़ी से भिड़ गया और अपना हाथ ज़ख्मी कर बैठा। एक महिला जिसकी उम्र ठीक जून की सहमी हुई धूप की तरह थी ने मुझे संभाला। मैंने हाथ की ओर एक नज़र की और फिर उसे देखा, उस गमछे वाले को। अब वह अकेला नहीं था, मुझे संभालने वाली महिला अब उसके साथ थी। लोडिंग वैन के पीछे वही थी, जिसे वह देख रहा था। यह वही थी जिसपर उसकी आँखों के प्रश्न ट्रासंफर हुए थे।(जिसके लिए मैं "था" सोचता रहा था वह असल में "थी" थी।) 


वह हाथगाड़ी जिससे मैं टकराया था, उनकी थी।  मैंने उन दोनों को उस हाथगाड़ी के नीचे से एक पानी की बोतल निकालते देखा। उन्होंने बोतल के पानी से अपने हाथ धोए, और कुछ छीटे अपने मुँह पर मारे। उन्होंने पाव को कागज़ से अलग किया और हाथगाड़ी पर बैठकर उन्हें खाने लगे। वे दोनों एक दूसरे को नहीं देख रहे थे।  उन दोनों की नज़र वहां से आगे की उदासीन सड़क पर थी जहाँ वे थे, जहाँ उनकी हाथगाड़ी थी।


मैं उन्हें तब तक देखता रहा जब तक की मेरे ज़ख़्मी हाथ ने तड़कना शुरू नहीं कर दिया। उसका रंग अब लाल से नीला हो चुका था।  बादल अब सफ़ेद से पूरी तरह काले हो चुके थे। सहमी हुई धूप अब भागने लगी थी और जून की बाली, खिलखिलाती बारिश बस होने को थी। मैं ऑफिस की ओर भाग खड़ा हुआ। और वे दोनों अपने पाव खत्म कर हाथगाड़ी को आगे ढ़ोने लगे।  वे और मैं एक-दूसरे के अपोजिट, अपने-अपने रास्तों पर चल पड़े और बीच में छूटी हुई उदासीन सड़क पर बारिश गिरने लगी। 


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