Saturday, 28 December 2019

नीले गमछे वाला आदमी।



”मैं भटक गया हूँ।” के ख़याल के साथ आँखें खुलती हैं। खुद को एक घने जंगल के बीच पाता हूँ। पीठ के बल लेटा हुआ और आँखों पर चढ़े चश्मे से आसमान में बनती बादलों की आकृतियों को पढ़ता हुआ। कुछ पल बाद लेटे-लेटे ही गर्दन दाएं मोड़ता हूँ तो देखता हूँ कि पेड़ हैं, बहुत सारे पेड़। कीकर, शीशम, नीम और गुलमोहर के। “इतने पेड़ एक साथ मैंने कभी नहीं देखे।” मैं बुदबुदाता हूँ और कूल्हों के बल बैठ जाता हूँ। 

“इतने ही पेड़ों में शेर रहा करते होंगे। और कई और जंगली पशु-पक्षी भी।” मैं सोचता हूँ और गर्दन घुमाने लगता हूँ – चारों ओर। देखता हूँ कि मेरी नीली जींस पर मिट्टी लग गई है और हरी टी-शर्ट पर घांस। मैं खड़ा हो जाता हूँ और मिट्टी झाड़ने लगता हूँ मगर फिर ठहर जाता हूँ।

"इस घने, गहरे जंगल में, मेरे, इन पेड़ों के, पशुओं और पक्षियों के सिवा होगा ही कौन?" मैं कपड़े झाड़ना बंद कर देता हूँ और बाहर निकलने का रास्ता खोजने लगता हूँ। पेड़ों के बीच चलते-चलते बया पक्षी को अपना घौंसला बनाते हुए और नीलकंठ को सोते हुए देखता हूँ। मिट्ठुओं की पूरी बस्ती नज़र आती है और कई ऐसे खूबसूरत और हैरतंगेज़ पक्षी भी नज़र में आते हैं जिनका नाम मैंने अपनी इन्वायरमेंटल साइंस की किताबों में कभी नहीं पढ़ा था। 

पत्तियों, टहनियों, बारिश से बने चहबच्चों और जानवरों के मल से ढंका हुआ रास्ता धीरे-धीरे साफ़ होने लगता है और मैं एक ऐसे बिंदु पर आ कर रुक जाता हूँ, जहाँ से आगे तीन मुख़्तलिफ़ रास्ते खुलते थे। मैं बहुत विचार करता हूँ, खुद से कईं प्रश्न करता हूँ, वह मैनुअल्स दोहराता हूँ जिन्हें मैंने पढ़ा था और जिनमें लिखा हुआ था कि ऐसी स्थिति में कैसे अपना मार्ग तलाशा जा सकता है। मगर कुछ हासिल नहीं हो रहा था। अंत में हारकर मैंने अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बो का सहारा लिया और आगे बढ़ने के लिए बीच वाला रास्ता चुना। मोर की आवाज़ों और कोयल के गीतों से गूँज रहे उस रास्ते में से ताज़ा चाय की खुशबू आ रही थी। जैसे-जैसे जंगल का अंत निकट आ रहा था मेरी चाल तेज़ होती जा रही थी। मैं एक झरने के संगीत को साफ़-साफ़ सुन पा रहा था और चाय की महक मेरी नाक में घुल रही थी। उस वक़्त एक क्षण के लिए मुझे ऐसा महसूस हुआ मानों मैं कभी भटका ही नहीं था। “शायद, शायद भटक जाना ही मेरा रास्ता है।” मुझे विचार आया। और इस विचार के जाते ही आ गया जंगल का अंत। 

वहां पहुँचकर मैंने देखी एक गहरी खाई और उस खाई से सटकर एक छोटी सी चाय की गुमठी। भीगी हुई घांस के छप्पर और गीली लकड़ियों से बुनी उस गुमठी के पीछे था वह विशाल और मोटा झरना जिसके संगीत ने मुझे वहां पहुँचाया था। वह अपने दूधिया पानी, अपने संगीत और अपनी धुंध समेत पूरा का पूरा सीधे नीचे खाई में गिर रहा था। खूब गौर करने पर भी पता लगाना ना-मुमकिन था की आखिर खाई है कितनी गहरी। एक हद्द के बाद नीचे का कुछ नज़र ही नहीं आता था। पूरी गर्दन उठाकर ऊपर देखने पर भी मालूम नहीं होता था की झरना आ कहाँ से रहा है। वह बहुत ऊंचा था। और ऊंचा था उसका उद्गम - आसमान तक ऊंचा। कुछ एक बादल तो मानो उस झरने की धुंध में खोकर खुद पानी बन रहे थे।

मैं यह सब देख कर बोरा गया, मेरी नसों में खून ज़्यादा तेज़ी से दौड़ने लगा। मैं हैरान और हतप्रभ था। अचम्भित था। मेरे कानों ने इतनी अलहदा आवाज़ें कभी एक साथ नहीं सुनी थीं और मेरी आँखों ने इतने बा-ज़र्फ़ और पुर-जमाल रंग एक साथ, एक ही जगह पहले कभी नहीं देखे थे। खाई किनारे लगे हुए स्ट्रॉबेरी, चीकू, स्योफल, बादाम और आलू बुखारे के पौधे मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। यह सब वह फल थे जिन्हें मैं कभी तोड़कर नहीं खा सका था। मैं उन सब पौधों से एक-एक फल चाहता था और इसलिए झरने से ध्यान हटा मैं उनकी तरफ जाने लगा। लेकिन अचानक एक गिलहरी मेरे सामने आ गई और उछल-कूद मचाने लगी, उसके पीछे आ गए दो मोर जिनके स्वर ने मुझे इस रास्ते पर बुलाया था। मैंने कभी गिलहरी नहीं पकड़ी थी। मैं उसकी उन धारियों को छूना चाहता था जो उसे भगवान राम ने दी थीं। मैं मोर से उसके रंगों का राज़ पूछना चाहता था। मुझे उससे पूछना था कि क्या वाकई वह बारिश में ख़ुशी से नाचता है? या वह अपने काले पैरों को देखकर परेशान हो जाता है? मैं रोमांचित हो उठता हूँ और उनकी तरफ बढ़ता हूँ लेकिन मुझे देखते ही वे चाय की दुकान के अंदर भाग जाते हैं। मैं उनके पीछे दुकान में दाख़िल होता हूँ पर वे मुझे दिखाई नहीं देते, दिखाई देता है एक आदमी। अपनी गर्दन पर एक नीला गमछा लपेटे और घुंघराले बालों को अपने सर पर सजाए एक 40-42 साल का आदमी, जिसका चेहरा इतना चमकदार था कि लग रहा था जैसे सूरज की शुआएं उस पर नहीं बल्कि उसकी शुआएं सूरज पर गिर रही हों। उसने एक सफ़ेद पजामा पहन रखा था और उसकी गर्दन पर एक नीला गमछा टंगा हुआ था।

“आपने देखा उन्हें?” मैंने हाँफते हुए पूछा।

“किन्हें दोस्त?” उस आदमी ने सागोन की लकड़ी से बना एक तुक्कस चूल्हे पर चढ़ा दिया।

“अरे! वो गिलहरी और वो मोर। यही आए थे वे” मैंने कहा।

“चले गए होंगे कहीं और, एक जगह नहीं ठहरते वे। तुम बैठो। हड़बड़ाओ नहीं।” वह मुस्कुराया।

मैंने कुछ देर यहाँ-वहां गर्दन घुमाई और फिर दोनों हाथों को अपनी कमर के इर्द-गिर्द रखकर वहां रखी एक बेंच पर बैठ गया।

“चाय पिओगे?” आदमी ने मुझसे सवाल किया।

“जी। मगर ये लकड़ी का तुक्क्स?” मैं हँस पड़ा।

“हाँ। लकड़ी का ही है। क्यों क्या हुआ?” वे एक दूसरा तुक्क्स हाथ में लिए झरने की ओर बढ़ गए।

“लकड़ी के तुक्क्स में चाय कैसे बनेगी काका? तुक्क्स जल जाएगा ना” मैं उठ कर उनके पीछे झरने तक चला।

उन्होंने झरने के किनारे पर तुक्कस रख दिया और मुझसे मुख़ातिब हो कर बोले –

“तुमने कभी बनाई है लकड़ी के तुक्क्स में चाय?” मैंने उन्हें दिन की खुली रौशनी में पहली दफ़े देखा और देखते ही थम गया। उनके चेहरे में ग़ज़ब का ठहराव और अजब आकर्षण था। होंठों पर तबस्सुम खिली हुई थी और उसमें से प्रकृति की खुशबू आ रही थी। उनके सामने खड़ा हो मैं हवा को ऐसे महसूस कर रहा था जैसे कि वह उनके घुंघराले बालों से गुज़र कर नहीं बल्कि वहीँ से बन कर मुझ तक आ रही हो।

“नहीं। कभी नहीं।” मैंने कुछ देर रुकने के बाद कहा।

“तो फिर कैसे कह सकते ही की तुक्क्स जल जाएगा?” उन्होंने पूछा।

“अब इसमें एक्सपेरिमेंट क्या करना यह तो फैक्ट है, कोई मानी हुई बात थोड़ी है।” मैंने खीज कर कहा।

“अब फैक्ट तो यह भी है कि स्योफल, बादाम पेड़ पर उगते हैं।” वे हँसने लगे।

अब तक तुक्क्स, जिसे उन्होंने झरने किनारे रख दिया था पानी से भर गया। उन्होंने उसे उठाया और गुमठी की तरफ चलने लगे।

“हाँ, हाँ यहाँ पर ये स्योफल के पौधे कैसे हैं? और और ये गिलहरियाँ, मोर कुछ ज़्यादा ही हिम्मत वाले नहीं हैं?  मतलब एकाएक इंसान के सामने इस तरह से आ जाते हैं। और फिर भाग जाते हैं। लकड़ी का तुक्क्स आग पर रखाएगा लेकिन जलेगा नहीं। कैसे? और आपको अंग्रेज़ी कैसे आती है? पहले पढ़ाते थे क्या? फिर मन ऊब गया तो यहाँ आ गए। शहर से दूर इस कुटिया में।” मैंने एक छोटी सी झोपड़ी जो कि गुमठी के ठीक उलटी तरफ थी की ओर इशारा किया।

उस ओर देखते ही मुझे एहसास हुआ कि वह रास्ता जिस पर होकर मैं यहाँ इस गुमठी के पास चला आया था 
गायब था। उसके स्थान पर अब दूर तक फैला क्षितिज था। मैं घबरा गया। "अब लौटूंगा कैसे?" का सवाल खौफ़ का रंग ओढ़े मेरे ज़हन में कौंध गया।

“और वह रास्ता कहाँ गायब हो गया? वह जंगल, कहाँ चला गया वह? कुछ बोलिए” मैंने सवालों की फ़ेहरिस्त में एक और सवाल जोड़ दिया।

“भीतर आ जाओ चाय बनाते हैं। सब ठीक होगा। हड़बड़ाओ नहीं।” उन्होंने कहा और गुमठी के अंदर चले गए।

मैं अर्श तक फैले हुए फर्श को देखते हुए अंदर घुसने लगा की तभी गहरे हरे मिट्ठुओं और दूध से सफ़ेद कबूतरों का एक झुण्ड मुझ से टकराकर मेरे ऊपर से उड़ गया। मैंने पलट कर देखा तो दूधिया कबूतर झरने के दूधिया पानी में कहीं गायब हो गए और मिट्ठू गुमठी के बगल में थोड़ी दूरी पर लगे हुए पेड़ों पर जाकर बैठ गए। मैं उन पेड़ों के कुछ पास गया तो जादूई रूप से वे मिट्ठू भी गायब हो गए। मैं अब हिल चुका था। यह जगह कुछ अजीब थी और अजीब क्यों थी का जवाब सिर्फ़ एक शख्स के पास था। मेरी हर उलझन को वही नीले गमछे वाला आदमी सुलझा सकता था।

मैं कुछ देर बाद गुमठी के भीतर गया तो मैंने देखा कि चूल्हा धीमी आंच पर जल रहा है और लकड़ी का तुक्क्स उसपर रखा है। तुक्क्स में डला झरने का पानी ही दूध की मानिंद खोल रहा था और उसकी आवाज़ झरने के गिरते पानी की आवाज़ को भी दबा रही थी। “क्या इस झरने के पानी में दूध है? या यह झरना ही दूध का है?” मैं पूछना चाहता था मगर मैंने खुद को रोक लिया और चुपचाप जाकर उस ही बेंच पर बैठ गया जहाँ मैं पहले बैठा था। मैं तेज़ साँसे ले रहा था और एकटक गुमठी के बाहर देख रहा था। मेरी नज़र बार-बार क्षितिज की ओर जा रही थी। वह उस रास्ते को खोज रही थी जो कुछ समय पहले तक वहां था, जहाँ अब नहीं है।

“बाहर तुमने उन कबूतरों और मिट्ठुओं को देखा?” उस आदमी ने चाय के तुक्कस में कलछी घुमाते हुए मुझसे प्रश्न किया।

“हाँ लेकिन सिर्फ कुछ क्षण के लिए। फिर वे गायब हो गए ठीक उन मोर और उस गिलहरी की तरह। ठीक उस 
रास्ते की तरह जिसपर चलकर मैं यहाँ आया था। सोचता हूँ अब लौटूंगा कैसे?” मेरे माथे पर शिकन आ गई। मैं उठ खड़ा हुआ और बाहर चला गया।

बाहर देखा कि तितलियों का एक समूह ज़मीन से थोड़ा ऊपर उड़ रहा है। ज़्यादा नहीं थोड़ा ऊपर। पीली, हरी, नीली, लाल, गुलाबी, भूरी, सिलेटी, नारंगी, बैंगनी, चितकबरी और धारीदार, यकरंगी और सतरंगी हर तरह की तितलियाँ एक साथ, एक ही समूह में उड़ रही थीं। इस समूह में उन रंगों की तितलियाँ भी थीं जिन रंगों का दीदार मेरी आँखों ने पहले कभी नहीं किया था। “यही वह समूह है जिससे इन्द्रधनुष निकलता है।” मैंने खुद से कहा। यह दृश्य देखकर मेरी चिंता कुछ कम हुई या यूँ कहूँ की शायद कुछ पल के लिए मेरा ध्यान मेरी चिंता पर से हट गया। यह कितना सुखद है कि जब हम किसी परेशानी के बारे सोचना बंद कर देते हैं तो हमें वह परेशानी, परेशानी लगना ही बंद हो जाती है।

मैं पलट कर वापस गुमठी के भीतर जाने लगता हूँ लेकिन यकायक रुक जाता हूँ। गुमठी के अंदर से कुछ आवाज़ें सुनाई पड़ती हैं। मैं ठहर कर प्रतीक्षा करने लगता हूँ और तभी देखता हूँ कि भीतर से वह दो मोर और वह गिलहरी आ रहे हैं। वह तीनों मेरे ठीक सामने आकर रुक जाते हैं और मैं वहीँ बिखर जाता हूँ। आँखों में पानी भर आता है और मैं अपने हाथ से अपने आंसुओं को पोंछता हूँ। आंसुओं से भीग चुके उस ही हाथ को फिर गिलहरी की पीठ पर फैरता हूँ और रुंधे हुए गले से मोर के साथ बात करने लगता हूँ। इस दौरान एक भूरी तितली मेरी नाक पर आ कर बैठ जाती है और तितली के आते ही मोर और गिलहरी चले जाते हैं। उस तितली को अपनी नाक पर लिये-लिये मैं वापस गुमठी के अंदर चला जाता हूँ और उस आदमी की तरफ देखकर मुस्कुराता हूँ। भूरी तितली उड़कर खौलते हुए दूधिया पानी से भरे तुक्कस में चली जाती है और मैं डर कर चिल्लाता हूँ –  “अरे! ये क्या। निकालिये उसे उसमें से।”

“वह उसकी जगह है।” वह आदमी कलछी को तेज़ी से तुक्कस में घुमाता है और देखते ही देखते दूधिया पानी का रंग हल्का भूरा हो जाता है। वह कुछ स्ट्रॉबेरी निचोड़कर उनका रस चाय की पतेली में डाल देता है। चाय तैयार हो जाती है और वह उसे एक पत्ती-नुमा प्याली में छान देता है। उसे चाय छानता देख अचानक मेरा ध्यान उसके गमछे पर जाता है जो कि अब सफ़ेद हो चुका है। मैं भौंचक्का रह जाता हूँ। और सवालों का एक ढ़ेला फिरसे उसकी ओर फेंकता हूँ।

“आपका नीला गमछा सफ़ेद कैसे हो गया? और वह तितली? उसके पानी में जाते ही पानी का रंग भूरा कैसे हो गया? और और मैं वापस कैसे जाऊंगा? इस सवाल का जवाब तो दिया ही नहीं आपने।” मैं हताश होकर लट्टू समान आगे-पीछे घूमने लगता हूँ।

“वह गिलहरी और मोर जो यहाँ इस जगह गायब हो गए थे। क्या वे तुम्हें मिले?” उन्होंने चाय की प्याली मेरी तरफ बढ़ाई।

“हाँ वे तो मुझे अभी ही बाहर मिले। अच्छी बातें हुईं उनसे। वे यहीं से बाहर आए थे। मुझे तो पहले से ही यकीन था
कि वे यहीं से कहीं गायब हुए हैं।” मैंने चाय अपने हाथ में ली और बेंच पर बैठ गया।

“तो फिर तुम्हारा रास्ता भी वहीँ आ जाएगा जहाँ से वह गायब हुआ है। आराम से चाय पियो। हड़बड़ाओ नहीं।” उन्होंने कहा और बेंच पर मेरे बगल में दूसरी ओर मुँह करके बैठ गए। उनका मुँह उस कुटिया की तरफ था जो बहुत छोटी मगर खूबसूरत थी।

“क्या वाकई वह रास्ता वापस आ जाएगा?” मैंने उनकी तरफ मुँह किया और अब बेंच के दोनों तरफ अपने पैर
 करके बैठ गया।

“तुम सवाल बहुत पूछते हो। कुछ है जो तुम तलाश रहे हो मगर हर बार “कुछ” के स्थान पर “थोड़ा कुछ” पाकर
 ही संतुष्ट हो जाते हो। और फिर कुछ वक़्त बाद फिर से असहज हो जाते हो। तुम्हारी तलाश फिर शुरू हो जाती है और तुम्हें लगता है कि यह चक्र कभी खत्म नहीं होगा। कोई संदेह नहीं कि तुम हमेशा परेशान रहते हो, उलझे और बिखरे हुए रहते हो।” उन्होंने मेरी तरफ देखा। अब हम दोनों एक दूसरे की आँखों में देख रहे थे। एकटक, बिना पलक झपकाए। मैंने कुछ लम्हों के लिए खुद को उनकी आँखों में घुलता महसूस किया लेकिन फिर एक झटके से वापस आ गया और अपनी चाय की प्याली उठा ली।

“वह रास्ता जिससे तुम यहाँ आए हो, जो तुम्हें यहाँ ले आया है वापस आ जाएगा। बस तुम्हें हड़बड़ाना नहीं 
है।” वे वापस कुटिया की तरफ देखने लगे।

“तुम अपनी चाय ख़त्म करो। उसके के बाद “मानव” तुम्हें तुम्हारा रास्ता दिखा देगा।” वे अपनी जगह से उठे 
और बाहर जाने लगे।

“मानव? वो कौन है?” मैंने प्याली में बची चाय को एक ही घूँट में खत्म कर दिया और यकदम बेंच से उठ कर 
उनके पीछे जा खड़ा हुआ। मैंने उनके हँसने की आवाज़ सुनी मगर उनका चेहरा नहीं देखा। वे अब भी उस कुटिया की तरफ देख रहे थे।

“वह भूरी तितली याद है तुम्हें? जो तुम्हारी नाक पर बैठकर गुमठी के भीतर चली आई थी?” वे चलकर थोड़ा 
आगे निकल गए। अब वे गुमठी और कुटिया के बींचो-बीच खड़े थे। मैं बड़े गौर से उनकी पीठ ताकने लगा।

“वह तुम से होकर भीतर आई और आकर सीधे दूधिया पानी के तुक्क्स में चली गई। और क्षण भर में उसमें घुल
भी गई क्योंकि वह उसकी जगह थी, उसका तय स्थान था। तुम्हारी जगह “तलाश” है। तुम कभी शांत नहीं रह पाओगे, तुम्हारा मन कभी तरतीब में नहीं आएगा, तुम हमेशा चंचल, बिखरे हुए, तलबगार बने रहोगे क्योंकि “ठहराव” वह जगह है जिसकी तुम्हें तलाश है और “तलाश” ही तुम्हारी जगह है।” इतना कहकर वे पलटे और मुझे देखकर बोले -

“लेकिन बावजूद इसके मैं तुमसे यही कहूँगा, कि हड़बड़ाना नहीं है।” उन्होंने अपना सफ़ेद गमछा अपनी गर्दन
से उतारा और उसे अपने दाहिने हाथ में भींच लिया। वे कुटिया के अंदर चले गए और मैं उनकी कही बातों में इस क़दर खो गया कि वहीँ ज़मीन पर बैठ गया। मेरा चेहरा पीला पड़ गया। उस पर हैरानी, डर, हताशा, उलझन और रोमांच जैसे अलग-अलग भाव एक साथ आने की असफल कोशिश करने लगे। मैं कुछ देर कुटिया की तरफ नज़रें गढ़ाए एक ही अवस्था में बैठा रहा और उसके मुहाने, जिससे होकर वह आदमी भीतर प्रवेश कर गया था को बिना पलक झपकाए देखता रहा। फिर अचानक मुझे कुछ हुआ और मैं झटपटाकर उठ खड़ा हुआ। मैंने धीरे-धीरे अपने क़दम कुटिया की ओर बढ़ाने शुरू किये और कुछ ही देर में उसके मुहाने के एकदम सामने पहुँच गया। मैं अंदर घुस जाना चाहता था। मैं मिलना चाहता था उस नीले गमछे वाले आदमी से और पूछना चाहता था उससे कईं और सवाल। इन सवालों में “मानव कौन है? और कहाँ है?” के सवाल सबसे अधिक महत्वपूर्ण थे क्योंकि मानव ही मुझे उस गायब हो चुके रास्ते को दोबारा दिखा सकता था।

“काका, काका जी। ओ! चाय वाले काका जी।” मैंने भीतर आवाज़ लगाईं। और मेरे आवाज़ लगाते ही अंदर कुछ हलचल शुरू हो गई। जूँ ही मैंने अपनी गर्दन कुटिया के मुहाने में डाली, तितलियों का एक समूह मेरे चेहरे से टकराया। मैं घबरा कर पीछे हट गया और जब गौर से देखा तो जाना कि यह तो वही समूह है जिसे मैंने अब से कुछ वक़्त पहले देखा था। फ़र्क बस इतना था कि इसमें नीली और भूरी तितलियाँ नहीं थीं। “सब तो यहीं हैं उतनी की उतनी, वैसी की वैसी फिर ये नीली और भूरी वाली कहाँ खो गईं?” यह प्रश्न मैंने मन ही मन दोहराया। मैंने देखा कि तितलियाँ कुटिया से निकल कर समूह में ही क्षितिज की ओर उड़ने लगी हैं और जैसे-जैसे वे क्षितिज की ओर आगे बढ़ रही हैं वह रास्ता जो कि गायब हो गया था, खुलता जा रहा है। पल दो पल में तितलियाँ मेरी आँखों से ओझल हो गईं और पूरा का पूरा रास्ता दोबारा मेरे सामने आ गया।

“वह रास्ता जिससे तुम यहाँ आए हो, जो तुम्हें यहाँ ले आया है वापस आ जाएगा। बस तुम्हें हड़बड़ाना नहीं 
है।” नीले गमछे वाले आदमी की बात मेरे ज़हन में कौंध उठी और मैं आप ही हँस दिया। मैंने एक बार पलट कर फिरसे उस कुटिया और उस चाय की गुमठी को देखा और उलटे पाँव उस ही रास्ते पर बढ़ने लगा जिस पर चलकर मैं इस अजीब लेकिन अद्भूत जगह पर आया था।

“मानव से नहीं मिलोगे?” एक हल्की आवाज़ आई और मैं ठिठक गया।

“तुम, क्या तुम मानव हो?” मैंने पलटकर देखा तो एक 12-13 साल का मासूम सा बच्चा, नीली टी-शर्ट और सफ़ेद निक्कर में खड़ा हुआ था।

“हाँ। मैं मानव। मैं ही तुम्हें तुम्हारा रास्ता दिखाऊंगा।” उसने अपनी महीन आवाज़ में बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ कहा।

“शुक्रिया तुम्हारा लेकिन मुझे मेरा रास्ता मालूम है। ये रहा मेरे पीछे” मैंने अभी-अभी प्रकट हुए उस रास्ते की 
तरफ इशारा किया।

“नहीं। ये रास्ता तो वह है जिसपर चलकर तुम यहाँ आए थे। इसपर जाने से तो तुम वहीँ लौट जाओगे। जंगल के बीचों-बीच, जंगली जानवरों की सोहबत में। जाते हुए तुम वही सब देखोगे जो तुम पहले ही देख चुके हो। कुछ भी नया नहीं होगा। मेरी बात मानों यह तुम्हारा रास्ता नहीं। तुम्हारा रास्ता तो “तलाश” का है और मैं उसे तुम्हें दिखाऊंगा। मैं मानव हूँ।” वह मुझे अपनी तरफ बुलाने लगा।

मुझे उसके मासूम चेहरे ने फांस लिया और मैं मुड़कर उसकी तरफ बढ़ने लगा। तभी मुझे नीले गमछे वाले आदमी की कही बात भी याद आई -  “तुम अपनी चाय ख़त्म करो। उसके के बाद “मानव” तुम्हें तुम्हारा रास्ता दिखा देगा।” उन्होंने कहा था। मैं उस बच्चे के पास पहुंचा और घुटनों के बल बैठ गया। मैंने उसके सर पर हाथ रखा और पूछा – “मुझे मेरा रास्ता बताओ दोस्त। जल्दी, सफ़र तवील होगा मुझे अभी निकलना है। वैसे ही मेरा काफी वक़्त यहां ज़ाया हो गया है।” इस पूरी बात के दौरान वह मुझे बड़े ध्यान से देखता रहा। जैसे ही मैंने अपनी बात खत्म की ना-जाने कहाँ से उसकी पीठ के बल चलकर एक नीलकंठ उसके सर पर आ कर बैठ गया और मेरे हाथ में ज़ोर की चोंच मारी। शायद वह मेरी वक़्त ज़ाया होने वाली बात पर चिढ़ गया था। चोंच लगते ही मैं मारे दर्द के कराह उठा और ज़मीन पर जा बैठा। मैंने अपनी ऊँगली जिसमें से खून बहने लगा था को अपने मुँह में डाल लिया। और फिर हाथ को बार-बार झटकने लगा। मैंने देखा की वह नीलकंठ अब उस बच्चे के शाने पर आ कर बैठ गया है।

“दोस्त प्लीज़ टेल मी माय वे आउट।” मैंने उससे दरख्वास्त की और अपना दर्द सहन करते हुए फिरसे उठ खड़ा
हुआ।

“तो फिर खेलो मेरे साथ।” बच्चा उछलने लगा और उसके शाने पर बैठा नीलकंठ उसके ऊपर उड़ने लगा। “पकड़ो मुझे, पकड़ो मुझे।” चहक कर वह गुमठी की ओर भागा। कोई और चारा ना पाकर मैं भी उसके पीछे भागा। मैंने अपने चोटिल हाथ को अपने दूसरे हाथ से पकड़े रखा था। वह कभी इधर भागता तो कभी उधर, कभी कुटिया में छिप जाता तो कभी गुमठी में, कभी पेड़ों की ओर दौड़ता तो कभी पौधों की ओर। इस दौरान वह नीलकंठ लगातार उसके ऊपर उड़ रहा था। लम्बे समय तक कोशिश करने के बाद भी मैं उसे नहीं पकड़ पाया और थक कर बैठ गया।

“हार गए, हार गए।” वह दौड़ते-दौड़ते गाने लगा। और फिर कुछ देर बाद स्योफल के पौधे के पास जाकर, झरने 
की तरफ मुँह करके बैठ गया। नीलकंठ दोबारा से उसके शाने पर जा बैठा। उसने एक स्योफल तोड़ा और कोई कविता गुनगुनाते हुए उसे खाने लगा। मैं हाँफते हुए अपनी जगह बैठा रहा और वह खाते हुए अपनी जगह। कुछ समय तक हम दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई। अपनी थकान मिटाने के बाद मैं फिर उठा और दबे पाँव मानव की ओर बढ़ने लगा। राफ्ता-राफ्ता कदम बढ़ाते हुए मैं जैसे ही उसके बहुत निकट पहुंचा नीलकंठ पलट गया। और पलटते ही उसने मेरे चश्मे पर अपनी चोंच मार दी। मुझे झटका लगा और मैंने झटके से अपनी आँखें बंद कर लीं। मेरे पाँव फ़ैल गए। इससे मानव सचेत हो गया और वह गुठनों के बल चलकर मेरे फैले पांवों के बीच से होकर पीछे चला गया। उसके पाँव मेरे पाँव में आ गए और बंद आँखों की वजह से मुझे आगे का कुछ दिखाई नहीं दिया। मैं मुँह के बल सीधा खाई में जा गिरा। खाई जिसकी गहराई बता पाना ना-मुमकिन था। 

हवा में कलाबाज़ियाँ खाते हुए जब मेरी आँखें आसमान की तरफ हुईं तो मैंने देखा की नीलकंठ मेरे पीछे उड़ता हुआ आ रहा है। मैं गिर रहा हूँ और मेरे साथ नीलकंठ उड़ रहा है। मानव ऊपर खाई के छोर पर खड़ा हुआ नीचे की ओर मुझे ही देख रहा है, गिरते हुए। तअज्जुब से उसकी टी-शर्ट का रंग अब सफ़ेद हो चुका है। उसके होंठ चल रहे हैं और मैं उसकी आवाज़ सुन पा रहा हूँ। वह कह रहा है कि – “यहाँ से ये नीलकंठ तुम्हें तुम्हारा रास्ता दिखा देगा। बस याद रखना – हड़बड़ाना नहीं है।”


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