Friday, 10 May 2019

राजनीति और उसके पूर्वाग्रह।



"तुम अपने काम पर ध्यान दो, राजनीति पर विचार-विमर्श बेकार है। यह एक गन्दी नाली है, कूदोगे तो गन्दे हो जाओगे" जैसी दकियानूसी और पूर्वाग्रह से ग्रसित बातों के बीच मैं लगभग एक साल से देश की राजनीति पर अपने विचार, अपने तर्क ओ तथ्य मुख़्तलिफ़ मंचों के माध्यम से आवाम के सामने रख रहा हूँ। अगर मैं ना रखूं तो याद आता फ़िल्म नायक में परेश रावल द्वारा कहा गया संवाद कि - "अरे! जाओ कोई हक नहीं है तुम्हें पॉलिटिशियन्स को गाली देने का"

वे, जिनका ज़िक्र किये बिना ही आपने अंदाज़ा लगा लिया होगा कि "वे" के इस्तेमाल से मैं यहां किस तरह के लोगों को संबोधित कर रहा हूँ एवं उन लोगों की एक तस्वीर आप सभी की आंखों के सामने चस्पा हो गई होगी, कहते हैं कि "तुम युवा हो, तुम्हें राजनीति से कोई फर्क नही पड़ना चाहिए" "अरे! ये क्या बेहूदगी है? क्यों नहीं पड़ना चाहिए" मैं पूछता हूँ। क्या आप मुझे भी उन लाखों लोगों की असंतुलित भीड़ में खड़ा कर देना चाहते हैं जिनके लिए दुष्यंत ने यह लिखा है - "कम्बल ना हो तो पांवों से पेट ढक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए" या कि यह कि - "इस शहर में वो कोई, बारात हो या वारदात अब किसी भी बात पर खुलती नहीं है खिड़कियां" ?

माफ कीजिये मगर मैं उनमें से नहीं हूँ। मैं तो उनमें से हूँ जो दुष्यंत के ही इन शेरों को मजबूत करता है कि - "अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कंवल के फ़ूल कुम्हलाने लगे हैं" और "गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नहीं, पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बद्दुआ"

भारतीय गणतंत्र के जन्म से या कहें कि उसके कुछ साल बाद से ही देश में एक जुमला चला आ रहा है कि राजनीति अच्छे और ईमानदार लोगों के लिए नहीं है। अगर ऐसा है तो फिर उन तमाम भाजपा भक्तों की भक्ति का क्या जो विष्णु के दसवें अवतार के रूप में आए दिन मोदी-पूजन करते दिखाई देते हैं? क्या वे एक बे-ईमान की इबादत कर रहे हैं? एक जुमला यह भी है कि राजनीति में बहुत तीक्ष्ण बुध्दि एवं शानदार वक्तव्य क्षमता की ज़रूरत होती है। तो फिर गांधी परिवार के मसीहा राहुल की तारीफ के पुल बांधने वालों के आगे आप क्या तर्क रखेंगे?

दरअसल ऐसी बातें भारतीय जनता पार्टी द्वारा दिए गए पन्द्रह लाख के जुमले की तरह हैं जो कि किसी निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति हेतु बनाई या तख़लीक़ की गई हैं। ऐसे लक्ष्य जो उजागर नहीं हुए हैं, छिपे हुए हैं। असल में हम सब पूर्वाग्रह से पीड़ित लोग हैं। मिसाल के तौर पर आज तक मैं यही समझता था कि कच्ची लौकी ठीक अपने रिश्तेदार करेले की तरह कड़वी लगती होगी लेकिन एक रोज़ जब पिता जी के ज़ोर देने पर मैंने स्प्राउट्स के साथ उसे खाया तो मालूम हुआ कि लौकी तो ककड़ी के समान होती है।

ऐसे ना-जाने कितने ही मुद्दे हैं जिनपर हमारी अगर कोई राय है तो वह किसी ना किसी प्रेज्यूडिस या अंध-विश्वास पर आधारित है। अब अगर इस स्थिति में हम कहें कि राजनीति तो कुछ निश्चित लोगों के मातहत है तो इसमें राजनीतिज्ञों की क्या ही भूल। भूल तो हमारी है, जो हम भूल रहे हैं कि राजनीत या फिर कोई दूसरा व्यवसाय/प्रोफेशन किसी भी तरह के निश्चित पैमानों या मापदंडों पर नहीं चलता। सबके सफर अलग होते हैं, सबकी राह, कहानी, फसाना अलहदा होता है। ज़रूरत है उसपर चल पड़ने की, बिना किसी पूर्वाग्रह के। क्योंकि हर साहिल को नई लहरों का इंतज़ार रहता ही है और हर मंज़िल को नए राहगीर का।

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