माँ को तस्वीर खिंचवाने का बड़ा शौक था। है नहीं, था। मेरे और छोटे भाई के बड़े होते जाने के साथ वह शौक ज़ईफ़ होता चला गया। माँ की इच्छाएं, इलत्जाएँ, चाहतें बच्चों के लिए होती हैं और बच्चों से भी कभी-कभी।
पिताजी को फोटो खींचने-खिंचवाने का ज़्यादा शौक नहीं था लेकिन अपने बच्चे के बचपन को ऐल्बम में कैद करने के मोह से वह भी ख़ुद को बचा नहीं सके थे।
अपनी सबसे अच्छी साड़ियों में से एक पहनकर और मुझे उस समय के सबसे प्यारे और चटक रंग पहनाकर माँ घर के बाहर बने चबूतरे पर खड़ी हो गई और मुझे हवा में किसी पतंग की तरह लटका दिया। मैं आज भी वह पतंग हूँ, जिसकी डोर माँ के हाथों में है। पतंग-नुमा मैं गाहे-बगाहे हवा में गौचे ज़रूर खाता हूँ लेकिन संभल जाता हूँ। यह अमल धीरे होता है मगर हाँ हो जाता है। वह चाहती थीं कि कैमरामैन एक ऐसी तस्वीर ले जिसमें वे खुद नज़र ना आएं। नज़र आऊं तो सिर्फ मैं, हवा में लटका हुआ। "नहीं, नहीं, ऐसा तो नहीं हो पाएगा" कहकर कैमरामैन ने अपना पल्ला झाड़ लिया और तस्वीर में हम चार लोग आ गए। माँ, पेड़, मैं और मेरी घबराहट, मेरा डर।
मेरे माथे और होंठ पर रोने के बाद का बिखरा हुआ सिसकना भी कैमरे में कैद हो गया जिसे किसी भी एडिटिंग टेबल पर एडिट नहीं किया जा सकता था। हालत-ए-हाल जब तस्वीर को देखता हूँ तो अपने घबराए हुए होने पर हँसता हूँ।
तस्वीर के खींचे जाने के कुछ पांच साल बाद मैं उसी चबूतरे पर खेल रहा था जहाँ यह तस्वीर ली गई थी। माँ भीतर अपने काम में लगी हुई थीं और घर के बाकी सदस्य जो उस वक़्त घर पर थे, भंडारघर में गेहूँ रखवा रहे थे। पेड़ पर बैठी गोरैया मुझे आकर्षित कर रही थी। पिताजी के साथ पाल पर दाने, चावल सिर्फ इसलिए डालता था ताकि किसी रोज़ कोई गोरैया जब दाने खाने आए तो अपनी पूरी बिसात लगाकर उसे पकड़ सकूँ। "पकड़ लूँगा" का विचार मुझे इतना ख़ुश कर देता कि "पकड़ लेने के बाद क्या?" का ख्याल कभी आता ही नहीं।
परिंदों ने मुझे हमेशा मुतासिर किया है सो उस दिन किसी को आसपास ना पाकर मैं उस गोरैया को पकड़ने के मज़बूत इरादे से पाल पर चढ़ गया। मैंने अपना हाथ बढ़ाया और हाथ बढ़ाने के साथ ही गोरैया उड़ गई। वह उड़ी और मैं अधर में लटक गया। पैर पाल में फंस गए, हाथों को पेड़ की शाख ने थाम लिया, सर धरती की तरफ हो गया और शरीर हवा में झूल गया। ठीक त्रिशुंक की तरह जो कि मान्यताओं के अनुसार धरती और आसमान के बीच उल्टा लटका हुआ है। सोचता हूँ कि माँ की मुझे पतंग की तरह हवा में लटकाने की इच्छा कितने ख़ौफ़नाक तरह से पूरी हुई।
"गिर जाने" के डर ने मेरी आवाज़ में चिल्लाना शुरू कर दिया जिससे तमाम मोहल्ले वाला मेरे सर के नीचे आकर खड़े हो गए। माँ भीतर से दौड़ती हुई आई और मेरा पैर पकड़ लिया। वह मुझे पीछे खींचना चाहती थीं। इसके उलट मेरे ताऊ-जी जो कि नीचे खड़े थे मुझे खुद को ढीला छोड़कर गिर जाने को कह रहे थे।
"मैं पकड़ लूंगा" वे कहते। "क्या मैं कोई गेंद हूँ" मेरा बचपन सोचता। गेंद गिरती है तो टप्पा खाती है, मनुष्य टप्पा नहीं खा सकता। धोखा, रश्क, भाव आदि खा सकता है। अफरा-तफरी में जब मेरे बचपन को कुछ सूझ नहीं रहा था मैंने खुद को ढीला छोड़ने का मन बना लिया लेकिन एकाएक माँ ने अपनी पूरी ताकत से मुझे पकड़ा और ऊपर खींच लिया। ऊपर आते ही उन्होंने मुझे ऐसे दबोचा जैसे मैं गोरैया को दबोचने चाहता था। वह रोई हर बार की तरह और मैं भी रोया, हर बार की तरह। रोने के बाद का सिसकना फिर मेरी पेशानी और होंठ पर बिखर गया।
सोचता हूँ कि अगर यह पाल पर लटकने वाला किस्सा तस्वीर लिए जाने से पहले हुआ होता तो तस्वीर में सिर्फ़ हम तीन लोग होते। माँ, पेड़ और मैं।
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