Thursday 8 November 2018

A Political Post | एक राजनीतिक लेख।



लम्बी मशक्कत और खींच तान के बीच अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी ने मध्यप्रदेश विधानसभा के प्रत्याशियों की अपनी पांचवी फेहरिस्त जारी करदी। इसके साथ ही पार्टी ने अपने 229 उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं। भारतीय जनता पार्टी भी अपने 230 प्रत्याशियों को मैदान में उतार चुकी है।
इन सभी की किस्मत का फैसला तो 11 दिसंबर को हो जाएगा लेकिन प्रदेश एवं राष्ट्र की किस्मत में दौबारा बेरोजगारी, भ्र्ष्टाचार, गरीबी, प्रदूषण, बेकारी आदि ही आएंगी इस बात में कोई सन्देह नहीं है। याद आता है हास्य कवि सुरेंद्र शर्मा का व्यंग्य के चाहे राम आए या रावण, दोनों सूरत में सीता रूपी जनता ही सताई जाएगी।

काफी समय से विवादित चल रही होशंगाबाद सीट पर कांग्रेस ने पूर्व सांसद और सिवनी विधायक सरताज सिंह को टिकट दिया है। गौरतलब है कि सिंह भाजपा छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हुए हैं और शामिल होते ही उन्होंने कांग्रेस का हाथ थाम लिया है। इससे पूर्व भाजपा के नेता और प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साले संजय सिंह मसानी भी कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं, और कांग्रेस के जाने माने नेता प्रेमचंद गुड्डू भाजपा में शामिल हो गए हैं। होशंगाबाद-नरसिंहपुर से वर्तमान सांसद राव उदय प्रताप एक बार भाजपा से तो एक बार कांग्रेस से संसद जा चुके हैं। सिद्ध होता है कि सत्ता का नशा अफ़ीम, शराब आदि के नशे से कमतर नहीं है।

28 नवम्बर को होने वाले मतदान के लिए चुनाव आयोग कई तरह के प्रचार कर रहा है और वह बहुत हद्द तक सफल भी होगा लेकिन क्या वाकई हमारे वोट सही व्यक्ति तक जाएंगे? या वे सिर्फ इसलिए किसी के चरणों में अर्पित हो जाएंगे क्योंकि वह व्यक्ति किसी एक पार्टी, किसी एक परिवार या किसी एक धर्म से है।

मेरे पास इस बात के आंकड़े नहीं है लेकिन अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि देश की 40 प्रतिशत जनता पहचान, जाती, धर्म, निजी स्वार्थ आदि के आधार पर वोट देती है, 20 प्रतिशत सिर्फ इसलिए वोट देती है क्योंकि यह हमारा कर्तव्य और संविधानिक अधिकार है वगैराह-वगैराह, 5-6 प्रतिशत किसी भी व्यक्ति विशेष के आगे-पीछे घूमने वाले रहते हैं जो किसी भी सूरत में उस ही को वोट देते हैं जिसके आगे-पीछे वे पिछले पांच साल घूमे हैं। इन्हीं पांच प्रतिशत में 4 प्रतिशत लोगों को अखबार की भाषा में छुटभैये नेता कहा जाता है।

दुःखद है कि इनमें से अधिकतम लोग युवा होते हैं जो भले ही कहते नहीं लेकिन मन में नेता बनने का सपना ज़रूर पाले रहते हैं। हर रोज़ सपनों में ये देखते हैं कि अपने घर से बाहर निकलते ही लाखों लोग इनके अभिवादन के लिए खड़े हुए हैं। काबिल ए गौर बात है कि राजनीति कभी कोई व्यवसाय नहीं थी, यह एक सेवा थी। लेकिन आज लोग नेता बनना चाहते हैं, नेता बनने के सपने देखते हैं। वे समाज के बारे में नहीं सोचते, देश के बारे में नहीं सोचते, वे लोगों के बारे में नहीं सोचते। वे सोचते हैं उस नेता के बारे में जिनके अंतर्गत वे छुटभैयेपन में मसरूफ़ हैं।

वर्तमान में "गढ़" नाम का शब्द काफी प्रचलन में है। कोई भी ऐसी जगह जहां से कोई एक निश्चित पार्टी या नेता लगातार चुनाव जीतता है उसका गढ़ बन जाती है। भारत में कई कई नेताओं के अपने पर्सनल गढ़ हैं। विचारणीय है कि क्या गढ़ बन चुकी जगहों का विकास उन जगहों से ज़्यादा होता है जो किसी का डेरा नहीं हैं? इस बात का जवाब तो मेरे पास नहीं लेकिन इतना ज़रूर है कि किसी नेता के गढ़ में उससे किसी तरह के सवाल नहीं पूछे जाते, तमाम परेशानियों, दिक्कतों के बावजूद नहीं पूछे जाते बस उसे जिता दिया जाता है। याद आता है दुष्यन्त का शेर कि "ना हो कम्बल तो पैरों से पेट ढंक लेंगे, कितने मुनासिब हैं यह लोग इस सफर के लिए।

वह 10 साल, 20 साल, 25 साल तक किसी निश्चित सीट से विधायक, सांसद रहता है। जब वह सड़क पर निकलता है तो दुकानदार उसके लिए मेवे, मिठाई, कपड़े, जूते आदि लेकर आते हैं, उसका सम्मान करते हैं भले ही फिर पिछले 20-25 सालों में उस शख्स ने शहर में एक सड़क तक ना बनवाई हो। चुनावी दिनों में नाना प्रकार के जनसंपर्क होते हैं जिन्हें पहले से ही प्लान किया जाता है और भीड़ जुटाई जाती है। कई बार जनसंपर्क में वही लोग होते हैं जो पहले से ही आदरणीय नेता जी के संपर्क में हैं। रास्ते चलते उतरकर आम लोगों के पास जाकर कोई ऐसा नहीं कहता "प्रणाम! शायद आपने मुझे नहीं पहचाना, मैं आपका विधायक। अपनी तकलीफें मुझे बताएं"।

विभिन्न योजनाओं का लाभ भी किस तरह , किन्हें पहुंचाया जाता है सब जानते हैं। लेकिन देश की जनता का क्या कहना, स्थिति बड़ी दयनीय है। किसी नेता ने चाय पिला दी , खाना खिला दिया, हंस के बात कर ली तो दे दिया उसे वोट। बिना यह समझे कि किसी भी नेता का काम कुछ निश्चित लोगों को चाय-नाश्ता करवाना नहीं है।

ऐसे नेताओं के खिलाफ कुछ भी बोलने पर उनके समर्थक या प्रशंसक(ज़्यादा बेहतर लफ्ज़ होगा) इस क़दर नाराज़ हो जाते हैं कि वे आपसे पहले तो तर्क और फिर कुतर्क के सहारे लड़ने लगते हैं। वे अपने नेता को बचाने के भरसक प्रयास करते हैं। वे कई तरह के कारण बताकर अपने नेता की पैरवी करते हैं। उदाहरण के तौर पर अगर प्रदूषण की बात करो तो वे कहते हैं कि जनता को ख़्याल रखना चाहिए। यह तो समझ आता है लेकिन सड़क एवं अन्य विकास की बात करो तो वे कहते हैं कि नगरपालिका और शहर के शासन में समन्वय नहीं है। तो अब क्या यह काम भी जनता का है कि वोट देने से पहले वह यह देखे कि किसकी किससे पटती है और किससे किसकी नहीं?

सबकुछ विफल होता देख वे अंत में आपको देशद्रोही करार देकर पूरे डिबेट को खत्म कर देते हैं। दुष्यन्त का ही शेर है "रहनुमाओं की अदा पर फ़िदा है ये दुनिया, इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारों"

कई बड़ी योजनाओं को शहर में लाया जाता है और उसके लिए करोड़ों रुपए सेंक्शन होते हैं लेकिन काम उसके आधे का भी नहीं होता। और ऐसे में फ़िल्म नायक का संवाद याद आता है जिसे यहां लिखने में मुझे बिल्कुल भी लानत नहीं आती "एव्रीबडी, सब के सब चोर हैं साले"

किसी भी नेता को कहीं से भी चुनाव लड़ने के लिए अपनी पार्टी से टिकट चाहिए, जिसके लिए वह करोड़ों रुपए देता है। परिणामस्वरूप चुनाव जीतने के बाद वह उसका दो गुना जनता से वसूलता है। इस तरह राजनीति व्यवसाय बन जाती है और नेता एक पेशा। ऐसे में अब किस पेशेवर को व्यवसाय की कमान सौंपनी है यह हमारे यानी जनता के ऊपर है। फिर याद आता है दुष्यंत का शेर कि "ये कैसी मशाल लेकर चले तीरगी में आप, जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही।

लेकिन इस सब के बावजूद, इन सब चिंताओं के साथ हम सभी इस बार फिर वोट डालेंगे, ज़रूर डालेंगे। पर सोचकर, समझकर, जानकर, परखकर। इसलिए नहीं कि नेता हमारा दोस्त है, इसलिए नहीं कि नेता हमारी समाज का है, इसलिए नहीं कि नेता हमारी जाती या हमारे धर्म से ताल्लुक रखता है। किसी भी दबाव, प्रलोभन, निजी स्वार्थ में ना आकर वोट इसलिए दें क्योंकि हमें अच्छी शिक्षा चाहिए, अच्छा स्वास्थ चाहिए, अच्छी सड़कें, अच्छे आवास, अच्छे शहर चाहिए, साफ नदियां, साफ हवा, साफ प्रकृति चाहिए। "सबका साथ, सबका विकास" नारा नहीं चाहिए। वास्तव में सबका विकास, साथ-साथ चाहिए। वादे नहीं, इरादे चाहिए। आइए फिर से वोट करें और उसे ही जिताएं जिससे हमें उम्मीदें हों, स्वार्थ, प्रेम, दोस्ती-यारी नहीं।

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