Sunday, 7 October 2018

ख़ुद के नाम।



किसका कहा मानू? ऐतबार किसपर करूँ?

नज़र में धोखे आते हैं, आंखें जिधर करूँ।।



मैं खुद से परेशान हूँ, खुद से ही यारों।

ये गिला किससे करूँ? किसको ख़बर करूँ?



है मेरे अंदर खुदपरस्ती, मुझ से भी ज़्यादा।

कैसे मेरे अंदर आई? कैसे बाहर करूँ?



मेरी जितनी ग़ज़ल हैं सारी गैर-मुकम्मल हैं।

कैसे मैं उनमें से कोई तेरी नज़र करूँ?



शायद! मुझको नहीं जंचेगा दाएम किसी का साथ।

इसीलिए ता-उम्र मैं शायद! तन्हा सफ़र करूँ।।



मैंने ही रातों के आगे सर झुकाया था।

मेरी ज़िम्मेदारी है कि मैं ही सहर करूँ।।

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