Monday, 15 January 2018

जी हुज़ूर रहे।



मेरी परछाई से भी वो दूर रहे।

के नफ़रत रहे तो भरपूर रहे।।


चाहकर भी हम कभी मिल ना सके।

ज़माने के ऐसे दस्तूर रहे।।


सादगी से तो धोके मयस्सर हुए।

मुनासिब है ये के मगरूर रहे।।


जो तन गए वो कट गए, शजर की मानिंद।

जो झुक गए वो टिक गए, मशहूर रहे।।


खुद्दारी की तिजारत जिनसे ना हुई।

इस दुनिया में वो ही मजबूर रहे।।


शाहों को मिल गए ताज-ओ-महल।

फकीरों की बस्ती में मज़दूर रहे।।


इस जहाँ में तो कुछ भी जावेदानी नहीं।

फ़िर किस बात का रंज-ओ-सुरूर रहे।।


उन निज़ामों के मुख़ालिफ़ हम हो गए "प्रद्युम्न"।

जो कहते थे ज़ुबाँ पे "जी हुज़ूर" रहे।।

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