अपने ही अज़ाबों का मसदर हो गया हूँ।
दिखता नहीं हूँ, मगर हो गया हूँ।।
ख़ुद से अब फ़ुरसत मिलती नहीं है।
खुदगर्ज़ मेरे यारों इस क़दर हो गया हूँ।।
मंज़िलों से चल पड़ा हूँ, मंज़िलों की ओर।
सफ़र में हूँ सदा से, सफ़र हो गया हूँ।।
तीन नज़्में, पांच ग़ज़लें, कोई दाद नहीं।
शायर क्या मैं इतना बे-असर हो गया हूँ?
आलम तो देखो शिकस्तगी का यारों।
किधर से चला था, किधर हो गया हूँ।।
और पाश हुआ था आईने की तरह मैं।
जो जुड़ गया हूँ वापिस, पत्थर हो गया हूँ।।
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