एक बस्ती, कुछ जानवर
कुछ शज़र और एक नदी...
साथ रहा करते थे सब,
मिल-जुलकर किसी ज़माने में..
खुशियां उगती थीं सब्ज़ सब,
इतराती थीं, लहलहाती थीं,
सब रंग बरसते थे अर्श से...
और फ़िज़ाएँ तैरती रहती थीं...
एक रोज़ बस्ती मक्कार हो गई..
तोड़ शज़र सब निग़ल गई...
रंग सारे मतरूक हो गए..और
अर्श सुर्ख़ सा पड़ गया...
जब आसमान रोया दर्द से,
नदी बड़ी नाराज़ हुई..
छोड़-छाड़ कर बस्ती को...वो
खुल्द मार्ग पर निकल गई...
बस्ती की बाज़ी पलट गई...
रन्ज-ओ-गम की सहर हुई...
सियाह अंधेरा छा गया और,
बस्ती ज़र्द पड़ गई..
हर रोज़ आजकल रातों में,
मैं ख़ौफ़ घोंट कर सोता हूँ...और
अपने काले ख़्वाबों में,
बस्ती को कहते सुनता हूँ..
"लौट आओ ओ नदी हमारी,
लौट आओ ओ ज़िन्दगी।"
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