जयपुर, अजमेर, पुष्कर के अपने ख़याल मैं कह रहा हूँ।
क्यों?
शहर बोल नहीं सकते, स्पष्ट है।
तंग गलियों के किनारों पर
मैंने दर्द को देखा है।
देखा है के किस तरह
वो मांगता है मौत को
वो दर्द ही था, जो नंग होकर,
चिल्ला रहा था "मुझे मार दो"
के दर्द का ज़िंदा रहना
,
बड़ी पीड़ा देता है, सत्य है।
वो दर्द ही था जो मासूम बनकर,
मुस्कुराता आया था।
निकट ज़रा सा क्या गया,
मैं घबरा गया, और भागा फिर
दर्द को बिमारी है।
अजीब सी, लाइलाज शायद
उसे औषधि की दरकार है,
के अब वो गंभीर हो चला है।
मैं नहीं हकीम कोई,
वही किया जो ज़द में था,
दर्द के हाथों में दवा,
एक दिन की नवाज़ दी।
हल्का ही कहलो, हाँ मगर
कुछ असर तो हो गया
पाकर दवा, थोड़ी सही,
दर्द जाकर सो गया।
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