Saturday, 14 January 2017

शायर।


यह समर्पित है उन सभी शायरों को जिन्हें पढ़कर इस हिंदी भाषी यूवा ने मोहज्ज़ब जबां उर्दू को थोड़ा बहुत जाना और सीखा है। यह ग़ज़ल एक शायर ने शायरों, कवियों, लेखकों आदि को समर्पित करते हुए उनके लिए लिखी है जो लेखन को ना केवल सियासत एवं धर्म से जोड़ते हैं बल्कि उसका उपहास उड़ाकर उसे तुच्छ समझने की भूल अक्सर कर दिया करते हैं।


जो आ गए हो तो सुनो, जज़्बात क्या है।

हम बताते हैं हमारी, औकात क्या है?


अल्फ़ाज़ों से रूह छूने का हुनर रखते हैं।

चेहरे पढ़ के बता देंगे, एहसासात क्या है।।


अफ़वाह ना फैलाना मुतअल्लिक़ हमारा।

हम खुद ही बता देंगे, हालात क्या है।


सब इंसां ही बैठे हैं आखिर तक यहाँ पर।

तुम पूछते हो मुझसे मेरी ज़ात क्या है?


और न हिंदू, न मुस्लिम बस शायर हैं हम।

हमे याद ही नहीं के मज़हबी-नग़मात क्या है।।


झुक जाती है हुक़ूमत भी सामने हमारे।

पूछते हो लफ़्ज़ों की बिसात क्या है?


शेर-ओ-शायरी के आबिद गर बचे ही नहीं हैं।

तो मेरी महफ़िल में बैठी ये जमात क्या है?


सही फरमाया के मुशायरों में भीड़ नहीं आती।

तुम क्या जानो के दीवानों की बात क्या है।।


झूम उठते हैं शहर, दो शेर सुनकर।

तुम पूछते हो शायर की औकात क्या है?

Keep Visiting!

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