Thursday, 11 February 2016

ये बूढ़ी आँखें।


सूखे पत्तों पे कदम जरा अदब से रखना यारों, ये वही हैं जिन्होंने कभी छाँव दी थी.

-अज्ञात 



बूढ़ी, पुरानी ये मुतमईन आँखें,
झरोखों से यादें तलाशें ये आँखें.
समझती हैं सबकुछ, ये सबकुछ ही ताकें.
उधड़े-उधड़े से पन्नो की ये वाइज़ किताबें.

विशाल दरख़्त थे, अब झुक से गए हैं.
हरे-हरे वरक सब झड़ गए हैं.
चेहरे जो आभा से चमचमाते थे पहले.
आजकल वे थोड़े ज़र्द पड़ गए हैं.

थपकी से इनकी निंदिया आती.
किस्सों-कहानी से सांझ ढल जाती.
ये कल की सोचें, ये कल में झांकें.
ये कल की निगाहें, आज कुछ चाहें.

कपड़ा,खाना और चार दिवारी।
जिसमे गुंझे बाल-किलकारी।।
दर्द सहते हैं मन है धरा सा।
चाहिए इनको प्यार ज़रा सा।।

ख्वाइश भी होगी, फरमाइश भी होगी,
कुछ अनदेखी आदत की नुमाइश भी होगी.
ये ज़िद भी करेंगे, तुम चिढ़ न जाना.
बस याद कर लेना, वो वक़्त पुराना.

ये रूठें तो इनको मनाना है तुमको,
रोएँ तो इनको हँसाना है तुमको.
कुदरत का सीधा सा नियम है ये यारों.
जो पाया है तुमने, लौटाना है तुमको.

बिखरे-बिखरे से मनकों को, एक आकार में ला दें,
हर झगड़े का पल भर में अंत करा दें.
हर घर में हों दो बूढी आँखें.
जो सभी को जुटाकर परिवार बना दें.

देख-रेख कर इनकी, इबादत यही है.
क्या काबा, क्या काशी.
क्या मंदिर, क्या मस्जिद.
तू सेवा कर इनकी, ज़ियारत यही है.


कविता की कुछ पंक्तियाँ नई दुनिया और टाइम्स ऑफ इंडिया में दिनांक 22 मार्च 2016 को प्रकाशित की गई।

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