Saturday 27 June 2020

मिलेट्री मैन और मैं।



वो स्कूल के दिन थे। यह वो दिन थे जब मैंने ऑटो से स्कूल जाना छोड़कर, स्कूल तक का अपना सफर सायकल से तय करना शुरू कर दिया था। यह एक पामाल पैटर्न है - लगभग हर शख्स इसी पैटर्न से होकर गुज़रता है। वह पहले-पहले पापा की गाड़ी या सायकल से स्कूल में प्रवेश करता है, फिर ऑटो या वैन में जाना शुरू करता है, उसके बाद अपनी खुद की सायकल से या फिर पैदल जाता है और अंत में वह मोटर-बाइक या स्कूटी से गौरवांवित होते हुए स्कूल में दाखिल होता है। अपवाद हो सकते हैं मगर छोटे शहरों के लड़कों का स्कूल जाने का पैटर्न लगभग-लगभग यही है।

खैर, यह वो दिन थे जब टीवी पर बिनानी सीमेंट का एक एड आया करता था, एड में लगभग तीन दशक से फिल्मी दुनिया पर राज कर रहे सदी के महानायक अमिताभ बच्चन आया करते थे। मुझे पूरा एड तो ठीक से याद नहीं लेकिन उसका अंत मेरी स्मृतियों में अब तक है। कितना सुखद है कि हमें हर चीज़, हर घटना, हर व्यक्ति का सबकुछ नहीं तो कम से कम, कुछ ना कुछ तो हमेशा याद रह जाता है। शायद इसलिए ताकि हम उस थोड़े के सहारे खुद एक पूरे का निर्माण कर सकें, कल्पना से। कल्पना शक्ति भी मानव जीवन का एक वरदान है, नहीं?

उस एड के अंत में अमिताभ बच्चन एक सफ़ या जुमला अपनी भारी भरकम और मुतासिर कर देने वाली आवाज़ में कहते थे - “अपने/बुज़ुर्ग कहीं जाते नहीं, वे यहीं रहते हैं।” हम अक्सर किताबों, फिल्मों, दूसरों की जीवनियों में प्रेरणा तलाशते हैं और अपने प्रयासों की इतिश्री समझ लेते हैं, हम कभी अपने जीवन से प्रेरणा नहीं लेते, अपने आसपास को हम "घर की मुर्गी दाल बराबर" का तमगा पहनाकर एक तरफ रख देते हैं। हमारी कंडिशनिंग ही ऐसी है कि हम एक एड से प्रेरणा ले पाने में असमर्थ साबित हो जाते हैं।

बहरहाल मुझे उस एक लाइन ने बड़ा प्रभावित किया और जब 2014 में अपनी बारहवी की परीक्षा के ठीक पहले मैंने अपनी दादी को उस समय खोया जब मैं स्कूल में आयोनिक बोंड और कोवेलेंट बोंड में अंतर समझ रहा था तो मेरे ज़हन में सबसे पहले वही लाइन कौंधी – "अपने/बुज़ुर्ग कहीं जाते नहीं, वे यहीं रहते हैं।" और यकीन मानिये अपने शहर होशंगाबाद के शास्त्री वार्ड नम्बर एक स्थित अपने घर में मैंने कभी अपनी दादी की कमी महसूस नहीं की। भौतिक तौर पर ज़रूर अब वह मेरे सामने नहीं हैं। उनका मुझे गुठने के बल बैठाकर मेरे सर पर हाथ फेरना अब नहीं होता, उनका मुझे बार-बार पूजा करने को कहना अब नहीं होता, अब कोई मेरे हाथों में नोट थमाकर यह नहीं पूछता कि कौनसा नोट कितने का है, अब कोई मेरे जीते हुए पुरस्कारों, शील्ड्स को अपने हाथ में लेकर उन्हें महसूस नही करता। मगर, मगर आज भी जब कोई घर से कहीं बाहर जाता है तो उसके नाम का एक नारियल भगवान के सामने, या कहना चाहिए की भगवान के हमारे घर में बने मंदिर के सामने रखा  जाता है, बच्छा-बारस की कथाएँ अब भी घर में सुनाई जाती हैं, सैली-सतमी पर खाना ठंडा ही बनता है, नाग-पंचमी पर घर में मांडे बनाए जाते हैं, गन्ना-ग्यारस पर गन्नों से झोपड़ी-नुमा कोई इमारत बनाई जाती है, दशहरे पर शमी की पत्तियां घर में आती हैं, हर गणेश चतुर्थी पर गणेश जी की कथाएँ घर के कमरों में गूंजती हैं, महाशिवरात्री पर बड़ों से बच्चों तक सभी उपवास रखते हैं और नवरात्र में नवमी को बारह बजे पराठे का पहला कौर गुड-घीं के साथ ही लिया जाता है।

यह सब प्रथाएँ, गतिविधियाँ, प्रोसेस, नियम आदि मेरी दादी के शुरू किये हुए हैं और अब मेरी मम्मी और चाची इनकी देखभाल करती हैं –  क्यों? क्योंकि "अपने/बुज़ुर्ग कहीं जाते नहीं, वे यहीं रहते हैं।" कुछ सम्बन्ध कोवेलेंट बोंड की तरह होते हैं – बोंड डिसोसियेशन एनर्जी कितनी ही हाई क्यों ना हो वे कभी नहीं टूटते।

पिछले साल(2019) जून में जब मुंबई के अपने छोटे से फ्लेट में लेटे-लेटे "बाप-जन्म" नामक एक मराठी फिल्म देखकर जीवन में पिता की एहमियत पर मंथन कर रहा था तब सुबह के लगभग दस बजे छोटे भाई ने फोन कर बताया कि दादी और हम सब के मिलेट्री मैन(भारतीय सेना में कार्यरत/पोस्टेड होने की वजह से परिवार में उनका यह नाम पड़ा) नहीं रहे। मेरे दादा जा चुके थे, दादी के जाने के पांच साल बाद। कहाँ जा चुके थे? एक अनुत्तरित प्रश्न है।

खबर सुनते ही मैं फूटकर नहीं रोया, पर मैंने अपने दोस्त से मेरा बैग जमा देने को कहा। कामायनी एक्सप्रेस से रात के एक बजे मैं होशंगाबाद पहुंचा और दादा को देखा – लेटे हुए। आश्चर्य ही था की उनके चेहरे की चमक वैसी ही थी जैसी मैंने आखिरी बार उनसे मिलते हुए उनके मुख पर देखी थी – अप्रेल के आसपास। उनके होंठ नीचे की ओर लटके हुए थे, ठुड्डी फैली सी नज़र आ रही थी, और मैं फूटकर नहीं रो रहा था। मुझे उनके झुके होंठ देखकर उनका वह नाराज़ चेहरा बार बार याद आता जब हम सब स-परिवार अपने गाँव मन्याखेड़ी जाने के लिए सुबह सात बजे तैयार होना शुरू होते और दादा सुबह छह बजे से ही तैयार होकर अपने जूते पॉलिश कर रहे होते। वे हमेशा अपने पास एक दांत खोरनी, कान खोरनी, कूब्डी आदी चीज़ें रखा करते थे. मुझे कभी कभी अपने आलस पर यकीन नहीं होता। इसलिए नहीं क्योंकि मैं आलसी हूँ मगर इसलिए क्योंकि मैं एक स्फूर्ति और अनुशासन से भरे हुए मिलिट्री मैन का पौता हूँ। मुझमें उनकी कौनसी खासियत या ट्रेट आया है, मैं आज तक डिकोड नहीं कर पाया हूँ। जेनेटिक्स वाकई में एक जटिल विज्ञान है।

कमरे जिनमें लोग “ये ऐसा वो वैसा है” की बातें करते हैं या ले-मैन्स लेंग्वेज में जहाँ लोग एक दूसरे की बुराई करते हैं, चुगलियाँ करते हैं, उन कमरों में मैं बैठ नहीं पाता। बिल्कुल नहीं बैठ पाता नहीं कहूँगा लेकिन हाँ ज़्यादा देर तक तो कभी नहीं बैठ पाता। शायद इसलिए क्योंकि मुझे हर उस कमरे में दादा याद आ जाते। जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने इस तरह की बातें कभी नहीं की। शायद मेरे सामने ना की हों? मगर जो भी हो, मुझे तो यही पता है की उन्होंने कभी किसी को जज नहीं किया, कभी किसी को अच्छा, बुरा, लालची, स्वार्थी, धूर्त, नीच, बेचारा, भिकारी, मतलबी आदि किसी भी प्रकार के तमगे नहीं दिए।

मैं यह नहीं कहूँगा कि मैंने कभी किसी को ऐसे तमगे, ऐसे टैग्स नहीं दिए लेकिन जहाँ केवल और केवल इन्हीं की बातें होती हों उन जगहों को त्याग देना मैंने हमेशा अपने दादा के प्रति अपना कर्तव्य समझा है। शायद उनका यही ट्रेट मुझमें आया है, जेनेटिकली?

हाँ अब यह देखने के लिए या परखने के लिए वे स्वयं यहाँ नहीं हैं, लेकिन अगर वे होते भी तो नहीं करते। क्योंकि हर एक को अलग-अलग टैग्स देना, मुख्तलिफ़ सांचों में डाल देना उन्हें शायद आता ही नहीं था। जब कभी मैं यह सोचता हूँ तो अपने पुराने घर के आगे वाले कमरे(डाइनिंग रूम) में रखे तकत पर बैठे दादा दिखाई पड़ते हैं, लाल स्वेटर और भूरा टोपा लगाए हुए। ठण्ड के मौसम में अपने पैर के पंजों में मौजे चढ़ाए और एक हाथ में कूब्डी थामे अपने सामने हो रही घटनाओं को चुपचाप देखते हुए, अपने चोकोर चश्में से। अजब है ना कि हमें किसी सम्बन्ध की वह स्मृतियाँ भी याद रह जाती हैं जिनमें शायद हम इतने छोटे थे कि ठीक से चीज़ों को समझ भी नही पाते थे। शायद स्मृतियाँ उम्र की मोहताज नहीं होतीं, वे कभी भी बन सकती हैं। स्मृतियाँ भी कहीं नहीं जातीं ठीक जैसे "अपने/बुज़ुर्ग कहीं जाते नहीं, वे यहीं रहते हैं – हमेशा।"


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