Wednesday 19 February 2020

मायूस नज़्में।




आदत। आदत क्या होती है? कोई भी ऐसा अमल जिसे आप बार-बार करते हैं, लगातार करते हैं। हर रोज़ करते हैं, बिना भूले करते हैं और कभी-कभी तो मजबूरन करते हैं। और शायद! इसलिए आदत एक मजबूरी है। मजबूरी किसी भी काम को करने की। आदत अच्छी भी होती हैं और बुरी भी। लेकिन कुल मिलाकर कोई भी आदत दरअसल एक आफ़त, एक अज़ाब ही होती है। इसलिए - "अच्छा, बुरा, हो अमल कोई भी/अज़ाब है अगर वह आदत है।" और मेरा अज़ाब है मायूसी, ना-उम्मीदी, निराशा। मुझे रोने की आदत है। या कहना चाहिए की लत है। यह कहते हुए मुझे ज़रा सी भी शर्म, हिचक या कठिनाई महसूस नहीं होती कि मैं एक अव्वल दर्जे का दुखियारा हूँ। दुखियारा इसलिए क्योंकि मैं लगभग मान चुका हूँ कि ख़ुशी मेरी ज़द के, मेरी दुनिया के बाहर की शय है और इसलिए वह मुझे कभी हासिल नहीं हो सकती। नतीजा यह कि अब मैंने उसका तलाश करना ही बंद कर दिया है। "मुझे ज़रूरत ही नहीं ख़ुशी की।" अक्सर यह जुमला कहकर ख़ुद को संभाला करता हूँ। "दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।"

घर की लाइट चले जाने पर आप घुप्प अँधेरे कमरे में टॉर्च की तलाश करते हैं। क्योंकि लाइट के रहते हुए आपको उसकी ज़रूरत महसूस नहीं होती। आप बड़ी मशक्कत करते हैं, कोशिशें करते हैं, जगह-जगह खोजते हैं। लेकिन फिर भी अगर टॉर्च आपके हाथ नहीं लगती तो आप क्या करते हैं? थकान के मारे आप टॉर्च की तलाश बंद कर अँधेरे में ही बैठ जाते हैं और लाइट आने का इंतज़ार करने लगते हैं। और "बस अभी आ जाएगी।" कहकर दिल को बहला लेते हैं। "आल इज़ वेल।" आप उस लोमड़ी की तरह हो जाते हैं, जो जब अंगूर हासिल नहीं कर पाती तो उन्हें खट्टा कहकर उन्हें नकार देती है।

मैं भी इसी जमात का एक हिस्सा हूँ। अब आप पूछेंगे कि आखिर मेरे दर्द का कारण क्या है? ताकि आप मुझे बता सकें कि उसकी दवा क्या है। "दिल ए नादान तुझे हुए क्या है/आखिर इस दर्द की दवा क्या है?" लेकिन मैं आपको इसका जवाब नहीं दे सकूँगा। क्योंकि मेरे पास कोई जवाब है ही नहीं।  मुझे सिर्फ़ अपने दुःख का एहसास है, इसलिए मैं दुखियारा हूँ। लेकिन मुझे अपने दुःख के कारण का एहसास नहीं है, और इसलिए मैं अव्वल दर्जे का दुखियारा हूँ। 

ना-उम्मीदी पिछले कई सालों से मुझमें घर करे हुए है। सब नासेह कहते हैं कि मुझे अपने भीतर की मायूसी को दूर कर उम्मीद पर लिखना चाहिए, ख़ुशी, जमाल पर लिखना चाहिए। लेकिन मैं कहता हूँ कि मैं उस शय पर कैसे कुछ लिखूं जिसका एहसास ही मुझे नहीं है? यह सच है कि मायूसी कोई अच्छी चीज़ नहीं और ना ही मायूसी का जश्न मनना चाहिए। यह बहुत सदाकत है कि मायूसी से सिर्फ़ और सिर्फ़ दुःख और ना-कामी ही हाथ लगती है। लेकिन मेरा ज़ाती मत कहता है कि किसी भी एहसास को दिल से निकालने की जद्दोजहद करने से बेहतर है कि उस पर बेबाक होकर धड़ल्ले से लिखा जाए। इतना लिखा जाए कि वह भाव लिखा-लिखाकर पूरा निचुड़ जाए और उसमें कोई रस बचे ही ना। वह सारा निचुड़ा हुआ रस जमा हो जाएगा आपकी लिखाई में। जैसे मेरा हो गया है- इन नज़्मों में। यह नज्में मेरी मायूसी, मेरे ग़म, मेरी झल्लाहट की अलामत ज़रूर हैं लेकिन साथ ही यह इन सभी एहसासात के अदबी तर्जुमात भी हैं। और इसलिए इन्हें अदब के हिस्सों की तरह पढ़ा जाए, ना कि मायूसी के किस्सों की तरह।

"दिल से बोला रोना मत और रो पड़े,
ताक ली अँधेरे में छत और रो पड़े।

नासेह ने पहले दिए कई नुस्खे हंसने के
फिर थक के बोले अबे धत और रो पड़े।।"



"सुख और दुःख"

सुख मुझे हमेशा से
हर तरफ से, हर तरह से
हर निगाह से, हर जगह से
हर सबब से, हर वजह से,
एकरंग ही दिखा है।

लेकिन मैंने, सच कहता हूँ -
दुःख के कई रंग देखे हैं
वो सब मेरे संग रहते हैं।

और इसलिए अब मैं शायद!
सुख का पीछा छोड़ चुका हूँ।
वह बहुत आगे है मुझ से?
या उसको पीछे छोड़ चुका हूँ?

ख़ैर! और कितने रंग हैं दुःख के?
सोच रहा हूँ, मैं उन्हें खोज रहा हूँ।


"लड़के ये पगला गए हैं"

लड़के ये पगला गए हैं 
मारने पे आ गए हैं।।

नफ़रतें पी लीं हैं शायद
और मुहब्बत खा गए हैं।।

देके दुःख लड़के बताएं -
कौन सा सुख पा गए हैं।।

इन को आना था दिलों में,
ये सड़क पे आ गए हैं।।

आसमाँ बन सकते थे पर
बन के धुआँ छा गए हैं।।

रहनुमा को फिर ना-जाने
क्यूँ ये लड़के भा गए हैं।।



"कबूतरों पर"

कबूतरों पर कवियों ने बहुत कुछ लिखा है।
और लिख रहे हैं अब भी वे बहुत कुछ सतत।

उन्होंने लिखा है उनके बीच का प्रेम
लिखी है परवाज़ और आवाज़ उनकी

उन्होंने लिखा है उनका फुदकना, गुटरना
"गुटर-गूँ" को दिए हैं अपनी भाषा के शब्द।

उन्होंने लिखा है उनका चूरी चबाना,
पाँखें खुजाना और चोंच लड़ाना
उन्होंने लिखा है उनका छतों पर आना
ठहरना, मचलना और फ़िर उड़ जाना।

उन्होंने लिखी है उनकी चंचलता और
किया है उनकी मटकती आंखों का ज़िक्र,
किया है उनके माथे के प्रश्नों का वर्णन
और उन्होंने उनकी गर्दन का नृत्य लिखा है
कबूतरों पर कवियों ने बहुत कुछ लिखा है।

मगर जहां तक मुझे ज्ञात है किसी कवि ने -
कभी नहीं लिखी कबूतरों की लड़ाई,
कभी नहीं लिखा उनका झगड़ा-फ़साद,
कभी नहीं लिखा उनके बीच छिड़ा युद्ध।

इन बातों का कुल जमा यह है कि शायद
शायद कबूतर कभी लड़ते नहीं हैं।
या फिर कवि में ही दोष है यह कि - 
वह लिखता नहीं है "युद्ध" कभी भी।

कबूतरों पर कवियों ने बहुत कुछ लिखा है।
और लिख रहे हैं अब भी वे बहुत कुछ सतत।

"हिंसा में"

हिंसा में कोई कभी जीत नहीं सकता,

हिंसा की शुरुआत ही "ह से हार" है।

 

हिंसा वो खेल है कि जिसका नतीजा,

सृष्टि के सृजन से "विनाश" रहा है।

और महा-प्रलय तक "विनाश" रहेगा,

निर्माणधीन समाज "हिंसा" नहीं करेगा।

 

हिंसा में हिन्दू मारे नहीं जाते,

हिंसा में मुस्लिम मरते नहीं।

हिंसा में नेता कभी नहीं मरते

और अभिनेता तो कतई नहीं।

 

हिंसा में किसी भी जात-पात-पंथ का,

कभी जनाज़ा नहीं उठता।

हिंसा में किसी धर्म की,

मौत कभी भी नहीं होती।

 

हिंसा में ईश्वर/अल्लाह नहीं मरते,

उन का नाम लेने वाले लोग मरते हैं।

 

नहीं जलते आग में, कभी आग लगाने वाले.

तकरीर देने वालों के सर लाल नहीं होते।

हिंसा में अज़ल से ही मरते रहे हैं

लाठियों, तलवारों और गोलियों से लोग।

 

हाँ! लोग(सभी को मैं इंसां नहीं कहूँगा।)

लोग जो बे-हद ज़रूरी हैं राष्ट्र के लिए।

लोग जिनके होने से हैं हिन्दू-मुस्लिम

लोग जिनके होने से नेता हैं, अभिनेता हैं।

 

लोग जिनके होने से मंत्री हैं, संत्री हैं

लोग जिनके होने से ईश्वर या अल्लाह है।

लोग जिनके होने से है - "लोकतंत्र।"

गौर किया जाए इस शब्द पर ऐ! लोगों -

भीड़तंत्र नहीं है, ये है लोकतंत्र।

 

इसलिए अब भीड़ को

द्वेष, घृणा के नीड़ को,

नेता को, अभिनेता को

मंत्री को, संत्री को,

ये समझना होगा कि - 

लोग ज़रूरी हैं।

लोग बे-हद ज़रूरी हैं, राष्ट्र के लिए।

 



"ख़ाब मारे जा रहे हैं"

सब स्वीकारे जा रहे हैं।
हम नकारे जा रहे हैं।।

जीतना चाहते हैं तुम को,
लेकिन हारे जा रहे हैं।।

तुम नज़र से क्या गई हो
सब नज़ारे जा रहे हैं।।

उस तरफ चाँदनी नहीं है,
तो सितारे जा रहे हैं।।

किस लिए ठहरे हैं ये पेड़?
किसे पुकारे जा रहे हैं?

हुक्मरां के सब मुखौटे,
अब उतारे जा रहे हैं।।

हुक्म है कूड़ा तुम्हारा,
हम बुहारे जा रहे हैं।।

वक़्त है वापस बुला लो,
वो बे-चारे जा रहे हैं।।

उड़ान हम भरेंगे एक दिन,
अभी पँख सँवारे जा रहे हैं।।

और क्या देखना बचा है?
ख़ाब मारे जा रहे हैं।।


"घर"

बचपन में ट्रेन से जाते हुए,
गाहे बाबा से पूछता था -

"और कितनी दूर है बाबा घर?
अपना दर, अपना शहर?"

मन रखने को बाबा दूरी,
काट-काट बाँट देते थे।
कहते थे अपना घर आएगा,
सात सुरंग, छह नदियों बाद।

मैं तकता था राह शहर की,
सुरंग, नदियां गिन-गिनकर।
सुकून थामालूम था मुझको,
बहुत जल्द अब घर आएगा।।

आजकल यह नही होता है,
बाबा नहीं बताते कुछ।
अब चंद सुरंग, कुछ नदियों आगे,

मेरा घर नहीं आता।।


"परसिस्टेंस ऑफ विज़न।"

जब कभी भी रौशनी में,
या अंधेरे में
दो हाथों में अपनी आंखें 
ढाँप के सोता हूँ -
देखता हूँ काले-पीले
सफ़ेद-ओ-नीले गोले।
गोले, जिनकी गहराई
मेरे मस्तिष्क जितनी है।

गोले, जिनमें डूब चुके हैं,
मेरे ज़हन के कईं ख़्याल।
गोले, जिनमें उतरकर मैंने
नज़्में ली हैं कईं निकाल।
गोले, जिनमें घुल गए हैं,
मेरी आँखों के कुछ रंग।
गोले, जिनसे पाए हैं
मेरी आँखों ने कुछ नए रंग।
ये गोले मेरे ठीक सामने,
एक यकरँगी स्क्रीन पर,
रक़्स करते हैं मुसलसल,
मुझे तंग करते हैं।
जाने दूँ गर ध्यान ना दूँ
तो बनते-मिटते रहते हैं।
लेकिन गौर से गौर करूँ
तो कईं रूप ले लेते हैं।
मैं देखता हूँ एक गोला
पंछी बन उड़ जाता है।
दूसरा इंसान बन कर
पंछी बनना चाहता है।
पेड़, पर्वत और झरने,
गोलों से जन्म लेते हैं।
कुछ नदी बन जाते हैं तो
कुछ हवा बन बहते हैं।
इंसान पर्वत से अचानक,
कूद हवा में जाता है।
आसमाँ में उड़ता पंछी,
आकर उसे बचाता है।
पंछी के पंजे पकड़ कर
इंसां उड़ने लगता है।
"उड़ मैं सकता हूँ अकेला।"
भृम ये पलने लगता है।
छोड़ देता है फिर इंसां,
पंछी के उड़ते पँजों को।
और गिरने लगता है,
स्वच्छंद कर के अंगों को।।
आदमी के गिरते ही,
आँखें तुरंत खुल जाती हैं।
और "परसिस्टेन्स ऑफ विज़न।" के कारण
एक "इमेज" सामने आती है।
उस "इमेज" में कुछ नहीं
दिखता सिवाय इस चीज़ के -
कि एक इंसां गिर रहा है,
गहरी रौशनी के गोले में।
गोले में, जिसकी गहराई
मेरे मस्तिष्क जितनी है।

"रोने वाले लोग"

अपनी ख़ुशियाँ खो देते हैं रोने वाले लोग।
बैठे-बैठे रो देते हैं रोने वाले लोग।।

उनकी आँखों का तारा होती है मायूसी,
ग़म से आँखें धो देते हैं रोने वाले लोग।।

रोने वाले क्या देते हैं दुनिया वालों को,
जो पाते हैं वो देते हैं रोने वाले लोग।।

    दुःख से कैसे ख़ूबसूरत नज़्में उगती हैं?
ख़ुद को दुःख में बो देते हैं रोने वाले लोग।।

जितने दर्द सितमगर कोई तुम को देता है।
उतने तो ख़ुद को देते हैं रोने वाले लोग।।

हँसते हैं तो हँसते-हँसते बेहद हँसते हैं।
फिर हँसते-हँसते रो देते हैं रोने वाले लोग।।

"जुबां का मज़हब"


ज़्यादा नहीं है मुझे इल्म मज़हब का,
ना मेरे, ना आपके, ना और किसी का।
मुझे कम मालूम हैं तफ्सील सनातन की,
इस्लाम से भी ख़ास मैं मानूस नहीं हूँ।
.
बाकी और जितने धर्म हैं दहर में,
उनके बारे में तो मेरी फ़हमी सिफ़र है।
मैं नहीं जानता धर्म की सही परिभाषा,
ऐसी कोई भी परिभाषा अगर है।
.
पर मेरी बोली से तय हो मेरा धर्म,
बात यह मुझको स्वीकार नहीं है।
हिंदी को हिन्दू कहा जाए गलत है,
उर्दू किसी निस्बत से मुसलमान नहीं है।
.
भाषा का मज़हब है उसकी लिखावट,
शब्दों का तलफ़्फ़ुज़, और उनकी बनावट।
हर लफ़्ज़ में एक रंग है, एक खनक है,
ये रंग-ओ-खनक ही उसका मज़हब है।
.
मैं जाहिल हूँ - मज़हब समझता नहीं हूँ।
मगर हाँ मैं अपनी ज़ुबाँ समझता हूँ।
मैं नहीं जानता धर्म की सही परिभाषा,
पर कौनसी गलत है ये समझता हूँ।।

"छोटे शहर के लड़के"

छोटे शहर के लड़के,
ट्रेन से चलते हैं
क्योंकि उनके पास फ्लाइट के
पैसे नहीं होते।

छोटे शहर के लड़के,
रेलवे के टेशन पर
टल्लाते हुए ट्रेन की
राह तकते हैं।

वे वेट नहीं कर सकते
"वेटिंग एरिया" में
क्योंकि "वेट" करना,
उन्हें सिखाया नहीं गया।

छोटे शहर के लड़के,
कम खाते हैं ट्रेन में
वे रास्ते भर का भोजन
घर से करके निकलते हैं।

पर ये लड़के लगभग 
हर दूसरे सटेशन पर
खरीद लेते हैं
दस की पनिया चाय।
ये जानते हुए भी कि चाय
पनिया ही मिलेगी।

छोटे शहर के लड़के
गिरते-पड़ते चलते हैं।
छोटे शहर के लड़के
ऊंचाई से डरते हैं
क्योंकि उनके पास फ्लाइट के
पैसे नहीं होते।

टेशन से सटेशन
से स्टेशन घूमते हुए
एक दिन पहुँच जाते हैं
बड़े शहर -
ये छोटे शहर के लड़के।

कमा लेते हैं फ्लाइट के पैसे वहां,
जोड़ लेते हैं हिम्मत
ऊंचाई पर जाने की
और सीख लेते हैं ये
"वेट" करना भी।

लेकिन आश्चर्य है
बावजूद इस सब के
छोटे शहर के लड़के अधिकतर
ट्रेन से ही चलते हैं।

क्या कहूँ? स्तब्ध हूँ।
लेकिन रुको! कहता हूँ -
"बड़े ढीट  होते हैं -
ये छोटे शहर के लड़के।"

"गिप्पा"

भैया?
कौन?
मैं।
क्या है?
चल रए?
कहाँ?
खेलने।
क्या?
गिप्पा।
हाँ।
बुला लूँ?
किस को?
सभी को।
हाँबुला लो
चलते हैं सारे
साथ खेलेंगे 
गिप्पा।

Keep Visiting!

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पूरे चाँद की Admirer || हिन्दी कहानी।

हम दोनों पहली बार मिल रहे थे। इससे पहले तक व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम पर बातचीत होती रही थी। हमारे बीच हुआ हर ऑनलाइन संवाद किसी न किसी मक़सद स...