दिनभर की भाग-दौड़, काम, व्यस्तताओं, मुलाक़ातों आदि से खुद को अर्श से फर्श तक फ़्रस्ट्रेटे कर लेने के बाद अपने कमरे में लौटना ऐसा लगता है मानो कोई योद्धा युद्ध से जीवित अपने टेंट में वापस आ गया है। एक ओर जहाँ उसके मन में ज़िन्दा लौटने का सुकून रहता है वहीँ दूसरी ओर अगले दिन के युद्ध की कल्पना मात्र से ही वह काँप उठता है। मेरा जीवन भी इसी आम ढर्रे पर चलता मालूम होता है और ऐसे में जीवन यायावर है जैसी बातें महज़ बातें मालूम होती हैं। जीवन की फिल्म मानो मोन्टाजेस में चल रही हो, सबकुछ एक जैसा, वही, वैसा का वैसा।
मैं लेखक हूँ और इसलिए मेरा जीवन दूसरों से पृथक होना चाहिए तक तो ठीक है मगर अगर आप सोच रहे हैं की ऐसा है तो माफ़ करें आप पूरी तरह, शत-प्रतिशत गलत है। सुबह निकलना, पच्चीस तरह के लोगों से मिलकर, एक सो पच्चीस तरह की बातें करके उनसे काम हासिल करना और फिर कहना की इस काम के पांच सो पच्चीस रूपए लगेंगे किसी भी लेखक के जीवन को ख़ास नहीं बनाती। रोज़ की व्यस्तता ने मुझे अस्त-व्यस्त कर रक्खा है। हताश-निराश घर लौटने के बाद जैसी-तैसी चाय का कप हाथ में लेकर भविष्य की रूप रेखा तैयार करना अब ओवर-रेटेड लगता है। आईने के सामने खड़े रहकर खुद की कमतरीयों का पता लगाना, उन्हें जांचना-परखना और फिर झल्ला कर अपने को ही गाली देना, खुद से घिन खाना अब आम बात है। दूसरे शहर में मौजूद अपने बच्चे की सलामती और ख़ुशी की दुआ करते निस्वार्थ माँ-बाप पर अपनी परेशानियों का बोझ लादना और फ़ोन पर बात करते हुए उनकी हर बात पर चिढ़ना मुझे भीतर तक छेद देता है। बढ़ते बालों और बिखरे रहन-सहन का आदि हो चुका "मैं" मुझमे इस क़दर बढ़ रहा है की मेरी ज़मीर की आँखों का रेटिना कमज़ोर होता चला जा रहा है।
आज संडे था और आज का पूरा दिन में टेकाम के साथ था, हम शिव के घर पर अपनी आगामी फिल्म की स्क्रिप्ट लिख रहे थे। टेकाम यानि अर्जुन कुमार टेकाम जिसे हम हँसोड़पन से ग्रसित होकर टेकाम बुलाते थे और शिव यानी?, शिव बटालवी नहीं शिव करोड़े। हम तीनो बेहद करीबी दोस्त हैं और अक्सर हर काम साथ में हि करते हैं। स्नान, नेचर्स कॉल और प्रेम इन कामों में शामिल नहीं हैं।
आधी स्क्रिप्ट लिख कर हमने चाय-ब्रेक लेने का फैसला किया और फिर काम आपस में बाँट दिए गए। काम तो बंट गए मगर हमेशा की तरह दूध-बिस्किट खरीद कर लाने से लेकर गैस पर चाय चढ़ाने तक का काम टेकाम ने ही किया। उबलती हुई की चाय से नज़र हटाकर टेकाम ने मुझे संदेह भरी नज़रों से देखा।
"आजकल किससे बात चल रही हैं", उसने पूछा।
"ईश्वर से", मैंने कहा।
"मज़ाक नहीं, कविता मंच पर पढ़ना, यहाँ सीधे-सीधे कहो, स्पष्ट", टेकाम ने चाय में अदरक डालते हुए कहा।
"दिल्ली वाली से" मैंने कहा।
"भाई! तुम दिल्ली कब गए?" शिव चौंक गया।
"परसो सुबह", मैं सवालों से घिर चुका था, जैसे अभिमन्यु घिर गया था चक्रव्यूह में, हालाँकि यह चक्रव्यूह ब्रेकेबल था।
"टोपा ही हो का बे एकदम? परसो सुबह तुम हमारे साथ क्लास में रामधारी सिंघ दिनकर की रश्मिरथी का पाठ पढ़ रहे थे", टेकाम ने चाय छान ली।
"अबे! ओ बुन्देलखण्डी आवाज़ नीची करके बात करो, वरना खंड-खंड करके एक टुकड़ा फेकेंगे ईस्ट यूपी में और दूसरा वेस्ट यूपी में" मैंने मज़ाक किया।
"परसो सुबह इंस्टाग्राम पर मिले हैं बे उससे! ग़ज़ल है भाई मतलब क्या तो मतला है और मक़्ता तो माशा-अल्लाह", मैंने शायरी की टर्मिनोलॉजीस समझाई। मेरी बात सुनकर टेकाम और शिव हँस पड़े और फिर मैं भी।
ऐसा ही हूँ मैं, वैसा नहीं मगर हाँ ऐसा। फर्स्ट ईयर से लेकर आज तक नी-नी करके मुझे छे लड़कियां पसंद आई होंगी मगर मारे शर्म, हया, लज्जा के एक से भी अपने दिल की बात नहीं कही और जिसके परिणामस्वरूप आज वे किसी और की नज़्मे हो चुकी हैं। हालाँकि मैं आज भी उन पर इक्का-दुक्का शेर करता रहता हूँ और कभी-कभी तो पूरी की पूरी नज़्म भी। मेरा मानना है की फ़ूल की तारीफ होनी ही चाहिए भले ही फिर उसका माली कोई और हो।
इन सब बातों में चाय कब खत्म हो गई पता ही नहीं चला, जीवन भी चाय है, शायद!
लगभग आधे घंटे में टेकाम और मैंने स्क्रिप्ट पूरी करदी और अपने-अपने टेंट में मतलब घर लौटने की तैयारी शुरू कर दी। हम तय किये गए समय से पहले निकल रहे थे क्योंकि टेकाम और मुझे कुछ और मुलाक़ातें करनी थीं।
"परसो से इस फ़िल्म का काम शुरू करते हैं" शिव ने कहा।
"कल से करते हैं", टेकाम ने ज़ोर दिया।
"अभी से कर दें?" मैंने तंज कसा।
"कवी बनने को मना किया तो अब व्यंग्यकार बन रहे हो!", टेकाम ने मेरे सर पर चपत लगाई।
"हाँ! पंत नहीं तो परसाई सही" मैंने भी खेंच के मुक्का मारा।
हम जाने को ही थे की शिव ने वही पुराना, छोटा मगर गहरा, सवालों से भरा हुआ, टेंशन से सराबोर, फ़्रस्ट्रेशन ला बाप, महान और कालजयी प्रश्न कर डाला।
"भाई! ये सब तो ठीक है मगरा आगे का क्या?, कुछ सोचा है?, कॉलेज या जॉब के बारे में"
मैं और टेकाम बिना एक भी लफ्ज़ बोले वहां से निकल लिये और वह सवाल रोज़ की तरह हमारे भीतर गूंजने लगा। आगे क्या?, आगे कहाँ?, आखिर क्या?, आखिर कहाँ। हमेशा की तरह दिल बैठ गया, दिमाग बंद पड़ गया और आँखें भविष्य खोजने लगीं। पूरे रास्ते टेकाम और मैंने आपस में बात नहीं की और फिर चौराहे से अपने-अपने रास्ते पकड़ लिए। आज युद्ध के आखिरी चरण में तलवार सीने के पार कर दी गई थी और आश्चर्य के लहू की एक भी बूँद ज़मीन पर नहीं गिरी। लहू भी मानो सूख गया हो जैसे।
मैं परेशान था, रोज़ की तरह, हताश था, रोज़ की तरह, कमज़ोर पड़ चुका था, डर रहा था, रोज़ की तरह। मुझे किसी बात की हैरानी नहीं थी क्योंकि यही मेरे जीवन का ढर्रा बन चुका था। अब घर पहुँच कर रोज़ की तरह मुझे सबकुछ बिखेरना था, थोड़ा रोना था, दुःख भरे गाने सुनना था, दर्द भरी शायरी लिख कर उसे फेसबुक-इंस्टाग्राम पर पोस्ट करना था, चाय का कप हाथ में लिए अपने माज़ी ओ मुस्तकबिल के मुताल्लिक सोचना था, लड़कियों के डीएम्स चेक करने थे और आईने में देखकर खुद पर झल्लाते हुए, खुद से घिन खानी थी। विचार करने पर मालूम होता है की ना चाहते हुए भी मेरा जीवन थम चुका है और उसमे कोई रस शेष नहीं रह गया है।
मगर आज ऐसा नहीं हुआ, शायद नहीं होना था, शायद तय था ये भी। मोहल्ले के चौराहे पर एक बच्ची बड़ी तेज़ी से ओर दौड़ती हुई आई और मेरे सामने से एकदम मुड़ गई। मैंने पीछे मुड़कर देखा की वह बच्ची एक कुत्ते के पिल्ले को सेहला रही है और उसे चॉकलेट भी खिला रही है।
"कितना छोटा सा पपी है, कितना छोटा सा पपी है" वह बार-बार दोहरा रही थी।
मेरी समझदारी ने मुझसे कहा की मैं उस बच्ची को बताऊँ के पपी तो छोटे ही होते हैं, बड़े होने पर उन्हें कुत्ता कहा जाता है मगर मैंने ऐसा किया नहीं। दरससल उस बच्ची के हाथ में "मिल्की बार" नाम की एक चॉकलेट थी जो बचपन में मेरी मनपसंद चॉकलेट हुआ करती थी और मैं अक्सर उसे खाता था, हफ्ते में लगभग आठ बार। मैं दौड़कर पास मौजूद दुकान पर पहुंचा और दस मिल्की बार खरीद ली। उन्हें लेकर मैं कई दिनों में पहली बार दौड़ता हुआ घर गया, कपड़े बदले, लैपटॉप खोला और दस की दस मिल्की बार टेबल पर ऐसे सजा दी मानो वो कोई अवॉर्ड हों जो मुझे अपने लेखन के लिए मिले हों।
दुःख भरे गाने सुनने की जगह मैंने गोविंदा और संजय दत्त की फिल्म जोड़ी नंबर वन का वह गाना बजाया जिसे बचपन में मैंने बहुत एन्जॉय किया था, "आओ सिखाऊं तुम्हे अंडे का फंडा"। इयरफोन लगाकर मैं मस्ती में झूमने लगा और एक के बाद एक दस की दस मिल्की-बार खा गया। मुँह मीठा और दिल खुश हो गया, ऐसा लगा मानो युद्ध समाप्त हो चुका है और कल चैन और सुकून की सुबह होगी। यह सोचते हुए मैं रो पड़ा और बड़ी देर बाद अपने आंसू पोंछते हुए आईने के सामने खड़ा हो गया। मैंने देखा की आईने में मौजूद शख्स मुस्कुरा रहा है और उसके होंठ ऐसे बुदबुदा रहे हैं मानो कह रहे हों की - "मुस्कुराओ! तुम वैसे अच्छे लगते हो, ऐसे नहीं"!
प्रस्तुत कहानी भोपाल से प्रकाशित होने वाले अखबार सुबह सवेरे में दिनांक 11 फरवरी 2018 को प्रकाशित की गई।
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