Sunday, 17 June 2018

माँ और उर्दू।



माँ सोचती बहुत है। उसके पास सोचने के इतने मौज़ू हैं जितने मुल्क की हुकूमत के पास भी नहीं हैं। मैं नदी में तैरना जाता और घर पर कहता की एक घण्टे में लौट आऊंगा। समय सीमा समाप्त होते ही माँ की सोच शुरू हो जाती। वो क्या-क्या सोच लेती ये मैं कभी जान नहीं सका। पूछने पर वह एक ही जवाब देती "अब सोचने में आ जाता है"। पिता जी भी सोचते हैं लेकिन ज़ाहिर नहीं करते। माँ ज़ाहिर करती है। माँ की सारी इच्छाएं, उम्मीदें, तमन्नाएं "काश!" से शुरू होती हैं। काश! भी एक तरह की सोच है, एक विचार है। इस एक लफ्ज़ में उसके बाद की सारी ख्वाइशें वाबस्ता हो जाती हैं।

माँ के काश! ही मेरी ज़िन्दगी के चालक हैं। इनमें कुछ काश! पिताजी के भी हैं। कुछ उन दोनों के हैं, कॉमन। कुछ काश! समाज के भी हैं, दोस्तों और दुश्मनों के। अब किस काश! को तरजीह दी जाए? सवाल है। माँ का एक काश! जो मुझे याद आता है था कि मैं कोई और ज़बान सीखूँ। अँग्रेज़ी और हिंदी से इतर कोई अलहदा ज़बान। वो अक्सर जर्मन और फ्रेंच का ज़िक्र करती। पता नहीं क्यों दुनिया की तमाम ज़बानों में ये ही दो नाम उसकी जुबां पर होते। शायद किसी रिश्तेदार से सुने हों। माँ का कहा ज़्यादातर सुना हुआ होता है। उसके इस काश! को मैंने ख़ास तरजीह नहीं दी और ना गौर किया। लेकिन कॉलेज के तीन सालों में मैंने "उर्दू" सीख ली, इतनी के किसी कम-अक़्ल के सामने अपना ज़हीन होना साबित कर सकता हूँ। बहुत कुछ सीखना बाकी है। बहरहाल माँ को यह बात मेरी नज़्में और अफ़साने पढ़कर मालूम हुई। माँ मुझे पढ़ती कम है, समझती ज़्यादा है। मैं खुश था कि कमसकम उसका एक काश! तो हक़ीक़त में तब्दील हुआ।

माँ ने कल फ़िर से एक काश! पेश किया। अलहदा ज़बान सीखने का काश! इस बार मेरे छोटे भाई के सामने। "बड़े भाई ने नहीं सीखी, तू ही सीख ले" उसने कहा। वह उर्दू को अलग नहीं मानती। "क्यों?" उसने सोचा होगा, माँ सोचती बहुत है।

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